बुधवार, 15 अप्रैल 2020

हिंदी काव्य : एक रेखांकन

 

हिंदी साहित्य का आरंभ

हिंदी साहित्य की शुरुआत की एक निश्चित तिथि नहीं बताई जा सकती, लेकिन इसका आरंभ सन् 1000 ई. के आसपास मानी जा सकती  है । तब से लेकर अब तक लगभग एक हजार साल में हिंदी का साहित्य लगातार आगे बढ़ता रहा है । इसमें कई तरह के बदलाव आये । इन बदलावों के आधार पर हिंदी साहित्य को अलग-अलग कालों में बाँटा गया है । इन कालों की सही समय-सीमा और नामकरण को लेकर विद्वानों अलग-अलग विचार हैं । इनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल-विभाजन अधिक मान्य है ‌‌। उनके अनुसार—

1.      आदिकाल (वीरगाथाकाल) : संवत् 1050 से 1375 तक  ( सन् 993 ई. से  सन्1318 ई. )

2.      पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल)  : संवत् 1375 से संवत् 1700 तक ( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

3.      उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल) : संवत् 1700 से संवत् 1900 तक ( सन् 1643 ई. से  सन् 1843 ई. )

4.      आधुनिक काल ( गद्यकाल) : संवत् 1900 से अब तक ( सन् 1843 ई. से  अबतक)

आदिकाल (वीरगाथाकाल )

संवत् 1050 से 1375

आदिकाल हिंदी भाषा में साहित्य लिखने की शुरुआत का समय है । हिंदी भाषा से पहले साहित्य की भाषा अपभ्रंश थी। इसमें आठवीं शताब्दी के आस पास से साहित्य-रचनाएँ मिलने लगती हैं । चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे पुरानी हिंदी कहा है । लेकिन हिंदी साहित्य के आदिकाल का वास्तविक समय संवत् 1050 से 1375 तक माना जाता है। इस समय तीन तरह के साहित्य लिखे गये –

1.      धार्मिक काव्य

2.      वीरगाथा काव्य

3.      स्वतंत्र काव्य

धार्मिक काव्य – इस समय भारत में कई तरह के धार्मिक विचार थे । इनमें से सिद्ध, नाथ और जैन तीन मुख्य थे। आदिकालीन हिंदी में इन तीनों से जुड़ी धार्मिक  रचनाएँ  मिलती हैं । इनमें साहित्य की जगह धार्मिक विचार अधिक प्रभावी  हैं । इन कवियों ने अपनी कविताओं में अपने-अपने धर्मों की शिक्षा दी है। ये धार्मिक विचार की कविताएँ हैं। ये विचार दोहा, चरित काव्य और चार्यापदों में रचे गए हैं । इनमें से मुख्य कवि हैं—

धार्मिक मत

कवि

काव्य

सिद्ध

सरहपा

दोहाकोश

जैन

स्वयंभू

मेरुतुंग

हेमचंद्र

पउम चरिउ (राम-कथा)

प्रबंध चिंतामणि

प्राकृत व्याकरण

नाथ

गोरख नाथ

गोरखबानी

 

जैन काव्य की विशेषताएँ :

1.      जैन काव्य जैन धर्म से प्रभावित है ।

2.      जैन धर्म के महापुरुषों के जीवन को विषय बनाकर चिरित काव्य लिखे गए; जैसे- पउम चरिउ, जसहर चरिउ, करकंडु चरिउ,भविसयत कहा आदि ।

3.      जैन कवियों ने व्याकरण-ग्रंथ भी लिखे ; जैसे- प्राकृत व्याकरण, प्रबंधचिंतामणि, सिद्धहेम शब्दानुशासन आदि ।

4.      कड़वक बंध रचनाएँ और चौपई छंद जैन कवियों की देन है ।

5.      हिंदी का पहला बारहमासा वर्णन जैन साहित्य में मिलता है ।

वीरगाथा काव्य– इस समय भारत में एक केंद्रीय सत्ता की कमी थी। देश कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था और प्रत्येक राजा दूसरे राजा से राज्य छीनना चाह रहा था और अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसलिए वे आपस में लड़ रहे थे। इन राजाओं के राज्य में रहने वाले कवियों ने अपने राजाओं की वीरता का वर्णन  किया है । इस लिए इन्हें वीरगाथा काव्य कहा जाता है। इन कविताओं का विषय लड़ाइयों का वर्णन है। चंदबरदाई का पृथ्वीराज रासो और जगनिक की परमाल रासो इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है।

स्वतंत्र काव्य – जिन कवियों ने धार्मिक काव्य और वीरगाथा काव्य नहीं लिखे । उनकी कविताएँ इन दोनों प्रकार के काव्यों से अलग हैं , उन्हें स्वतंत्र कवि कहा जा सकता है; जैसे विद्यापति और अमीर खुसरो 

1.      विद्यापति (14 वीं शताब्दी) — इनके तीन प्रसिद्ध काव्य कीर्तिलता’, कीर्तिपताका और पदावली हैं। कीर्तिलता और कीर्ति पताका का संबंध राजा कीर्ति सिंह से है। विद्यापति उन्हीं के यहाँ रहते थे। पदावली में राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है। इसमें उन दोनों का प्रेम एक सामान्य युवक और युवती के प्रेम जैसा है। विद्यापति के इस काव्य का सबसे अधिक महत्त्व है।

2.      अमीर खुसरो (14 वीं शताब्दी) —  खुसरो फारसी के कवि थे। उन्होंने हिंदी में भी रचनाएँ कीं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने प्रसिद्ध हैं। खुसरो  की रचनाओं की भाषा आधुनिक काल की हिंदी के करीब है। इसलिए इनका ऐतिहारिक महत्त्व है।

3.      अद्दहमाण / अब्दुल रहमान (13वीं शताब्दी)- संदेश रासक (शृंगार काव्य)

4.      रोडा- राउड बेलि (शृंगार काव्य)

5.      लक्षमीधर - प्राकृत पैंगलम्

आदिकाल की सामान्य विशेषताएँ :

1.      इस काल में वीर-काव्य लिखे गए।

2.      इस काल के कवि राजाओं के दरबारी कवि थे और उन्होंने अपने राजाओं की प्रशस्तिमें कविताएँ लिखीं।

3.      आदिकाल में वीर के साथ-साथ कुछ शृंगार (प्रेम) की रचनाएँ की भी मिलती हैं; जैसे-  नरपति नाल्ह की बीसलदेव रासो  और विद्यापति की पदावली

4.      जैन और सिद्ध कवियों ने अपने धार्मिक विचार के प्रचार के लिए साहित्य का आधार बनाया है। जसहर चरिउ’, रिठ्ठणेमि चारिउ आदि ।

5.      इन रचनाओं की भाषा अपभ्रंश मिली-जुली हिंदी (डिंगल- पिंगल और अवहट्ट) है।

6.       खुसरो की रचनाओं तथा उक्तिव्यक्ति प्रकरण से आधुनिक हिंदी भाषा का पूर्वानुमान मिलने लगता है।

7.      चरित, दोहा और पद— जैसे नए काव्य-रूप का प्रयोग किया, जो बाद में अधिक लोकप्रिय हुए ।

 

पूर्वमध्यकाल(भक्तिकाल)

संवत् 1375 से संवत् 1700 तक

( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

मध्य का अर्थ है- बीच ।  मध्यकाल आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का काल है । इसके दो भाग हैं— 1. पूर्वमध्यकाल 2. उत्तरमध्यकाल। पूर्व मध्यकाल का दूसरा नाम भक्तिकाल है । यह काल भक्ति-साहित्य के लिए प्रसिद्ध है ।

भक्ति की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई । रामानंद ने इसे उत्तर भारत ले गए । उनका संबंध तमिल आलवारों से था । आलवार वैष्णव थे । रामनंद का संबंध इन्हीं आलवारों से माना जाता है । हिंदी के भक्त कवि रामानंद की शिष्य-परंपरा में है ।

भक्ति काव्य की  विशेषताएँ—

·        भक्ति काल में भक्ति को विषय बनाकर कविताएँ लिखी गईं।

·        ये कविताएँ ईश्वर के प्रति प्रेम की कविताएँ हैं।

·        भक्ति काव्य का क्षेत्र-विस्तार पूरे भारत में था।

·        भक्ति काव्य ने देसी भाषाओं को महत्व दिया।

·        ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी आदि बोलियों में कविताएँ लिखी गईं।

·        भक्ति काव्य में सामाजिक समानता को महत्व दिया।

·        इसे हिंदी कविता का स्वर्ण युग कहा जाता है।

 

भक्ति दो प्रकार की होती है—

     भक्ति

 

 


                             

निर्गुण भक्ति

         1. ज्ञानाश्रयी    (संत कवि)

            2.  प्रेमाश्रयी  (सूफी कवि)

 सगुण भक्ति                

 


                               

 1. कृष्ण भक्ति   

2.  राम भक्ति 

  

1.     निर्गुण भक्ति

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ :

      निर्गुण कवियों ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की।

      उन्होंने अवतारवाद को अस्वीकार कर दिया।

      निर्गुण कवि मूर्ति-पूजा का विरोध करते थे।

      ब्रह्म (ईश्वर/भगवान) को प्रत्येक मनुष्य के भीतर माना।

      ज्ञान और प्रेम को ब्रह्म तक पहुँचने का रास्ता माना।  

      इन्होंने गुरु को महत्त्व दिया।

       सभी मनुष्यों में समानता को महत्व दिया।

निर्गुण भक्ति की दो शाखाएँ थीं

क.     ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी

ख.    प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी

क.    ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी :

1.      ज्ञानाश्रयी भक्ति काव्य को संतकाव्य भी कहते हैं।

2.      इसमें ज्ञान और योग (साधना) के द्वारा ब्रह्म की उपासना पर बल दिया गया है।

3.      शंकराचार्य के अद्वैतवाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव।

4.      सिद्धों और नाथों की साधना का प्रभाव।

5.      बाहरी आचारमूर्ति-पूजा, नाम-जप, तीर्थाटन आदि का विरोध।

6.      हिंदी की कई बोलियों से मिली-जुली भाषा का प्रयोग।

7.      जाति-पाँति, ऊँच-नीच का विरोध।

8.      प्रमुख कवि- कबीर, नानक, दादू, रैदास आदि।


ख.   प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी :

1.      इसे सूफी कविता भी कहते हैं।

2.      ये कवि ईरानी सूफी दर्शन से प्रभावित थे।

3.      इन्होंने प्रेम को ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता माना।

4.      सूफी कविता में ईश्वर को प्रेयसी और जीव(मनुष्य) को प्रेमी माना गया है।

5.      पूरी दुनिया उसी प्रेयसी के रूप का प्रतिविंब है।

6.       भारतीय लोक-कथाओं को आधार बनाकर प्रबंध काव्य की रचना।

7.       प्रमुख कविजायसी, कुतुबन, मंझन, उस्मान आदि।

जायसी

जायसी सूफी (प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी) कवि थे । उनका पूरा नाम मलिक मुहम्मद जायसी था । उनका जन्म सन्1492 में जायस नगर में हुआ था । पद्मावतउनकी प्रसिद्ध पुस्तक है । पद्मावतमें राजा रतनसेन और पद्मावती की प्रेम-कथा  है । रतन सेन चित्तौड़ का राजा था और पद्मावती सिंघल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी।पद्मावतअवधी बोली में लिखी गई है।

जायसी के विचार :

1.      प्रेम संबंधी विचारमानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।

2.      गुरु संबंधी विचारगुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा बिनु गुरु कृपा को निरगुन पावा।

3.      ब्रह्म संबंधी विचार पद्मावती ईश्वर का प्रतीक है और रतनसेन जीव (मनुष्य) का।

4.      जायसी नागमती का वियोग वर्णन के लिये प्रसिद्ध हैं।

5.      नागमती के वियोग वर्णन में बारहमासा का प्रयोग है।

6.      बारहमासा वियोग के दुःख को बताने वाला एक काव्य है।

7.      पद्मावत मसनवी (सूफी) शैली का काव्य है ।

 

2.     सगुण भक्ति

      सगुण भक्त कवि वैष्णव थे।

      इन्होंने विष्णु के अवतारों की उपासना की।

      इनकी भक्ति का आधार अवतारवाद है।

      सगुण भक्तों ने ब्रह्म की उपासना उनके अवतारों के रूप में की, जैसे- राम और कृष्ण।

      इन भक्तों ने ईश्वर से प्रिय, सखा और दास भाव की भक्ति की।

      भक्त कवियों ने प्रेम को एक व्यापक रूप दिया।

      प्रेम की सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठा (सम्मान)।

      ब्रज और अवधी बोलियों का साहित्य में विकास।

      साहित्य की अनेक अमूल्य कृतियों की रचना; जैसे- रामचरित मानस और सूरसागर।

सगुण भक्ति के दो प्रकार हैं

क.    कृष्णभक्ति काव्य

ख.    रामभक्ति काव्य

 

क.    कृष्ण भक्ति:

कृष्ण भक्ति काव्य के प्रवर्तक बल्लभाचार्य थे । उनके चार और उनके पुत्र के चार शिष्यों को अष्टछाप कवि कहा गया । इनका केंद्र मथुरा था । इन कवियों ने कृष्ण की भक्ति की । इन्होंने कृष्ण की भक्ति सखा या प्रिय के रूप में की । इन कवियों ने कृष्ण के जीवन की लीलाओं का वर्णन किया । इन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखीं। सूरदास इन कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं । सूरसागर कृष्ण-भक्ति काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना है ।


ख.   राम भक्ति:

राम भक्ति का प्रचार रामानंद ने किया । उनके शिष्यों में सगुण और निर्गुण दोनों तरह के भक्त थे । राम की उपासना करने वाले सगुण भक्तों को राम भक्त कवि कहा जाता है । इन कवियों ने राम की उपासना विष्णु के अवतार के रूप में की । इन्होंने राम के जीवन चरित का गान किया । ये प्रायः दास्य भाव के भक्त थे । इन्होंने भगवान को स्वामी माना और स्वयं को सेवक । राम भक्त कवियों ने अवधी और ब्रजभाषा में काव्य लिखे । तुलसी दास राम भक्त कवियों में सबसे प्रसिद्ध हैं । उनका रामचरित मानसहिंदी का प्रसिद्ध महा काव्य है।

 रीति काल (संवत 1700 से 1900 वि. ) 

अधुनिक काल : गद्यकाल

संवत् 1900 के बाद

(सन् 1843 ई. के बाद)

 

हिंदी साहित्य के इतिहास में चौथे काल को आधुनिक काल कहते हैं । आधुनिक काल की शुरुआत सन् 1843 ई. से  सन् 1857 ई. के बीच मानी जाती है ।  अध्ययन की सुविधा के लिए हम इसे 1850 के बाद मान सकते हैं । बाद मानी जाती है ।

आधुनिकता का अर्थ : आधुनिकता एक प्रवृत्ति है । इसकी शुरुआत फ्रांसीसी क्रांति(1789ई.) से मानी जाती है । इसने पूरे विश्व को प्रभावित किया । धर्म की जगह पर विज्ञान, भावना की जगह पर तर्क और ईश्वर की जगह मनुष्य का महत्त्व आधुनिकता की पहचान है । इसके कारण व्यक्तित्व को महत्व मिला, आधुनिक राष्ट्र का विकास हुआ । राजतंत्र की जगह लोकतंत्र की शुरुअत हुई । समता, न्याय और बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्यों का आरंभ हुआ।

भारत में आधुनिकता :  भारत में आधुनिकता की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई । उस समय भारत में ब्रिटेन का शासन था । सरकार ने अपनी जरूरतों के लिए भारत में कई नये बदलाव किए—

1.      राजनीतिक एकीकरण

2.      आर्थिक एकीकरण

3.      परिवहन के साधनों (रेल) का विकास

4.      शिक्षा का योरोपीयकरण

5.      अँग्रेजी शिक्षा का प्रसार

राजनीतिक एकीकरण: 1707 ई.  में  औरंगजेब  की  मृत्यु हुई । औरंगजेब के बाद भारत में दिल्ली  के  मुगल बादशाहों का शासन ढीला हो गया । अवध और  बंगाल  के नवाब  तथा हैदराबाद के निजाम ने अपने को स्वतंत्र कर लिया । महाराष्ट्र में मरठा राज्य मजबूत हो गया था ।  मुगलों का राज्य दिल्ली तक सिमट गया और पूरा भारत  कई छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया ।

      सन् 1757 ई. बंगाल के नवाब  और  ईस्ट इंडिया कंपनी में पलासी की लड़ाई हुई । इस लड़ाई में बंगाल के नवाब सीराजुद्दौला हार गए और ईस्ट इंडिया कंपनी जीत गई । 1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया दिल्ली  का मुगल बादशाह भी कंपनी से हार गया । वह पेंशन पर लाल किले में रहने लगा । वह केवल नाम के लिए भारत का बादशाह (राजा ) था। भारत की वास्तविक (सच्ची) शासक कंपनी थी ।

      मैसूर के राजा टीपू सुल्तान और महाराष्ट्र के मराठाओं की हार के बाद कंपनी का लगभग पूरे भारत पर राज्य हो गया । इसलिए छोटे-छोटे राज्यों की जगह एक मजबूत केंद्रीय सरकार ने ले लिया । इससे पूरा भारत राजनीतिक स्तर पर एक हो गया ।

आर्थिक एकीकरण : ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्य काम व्यापार था । इसलिए भारत के राजनीतिक एकीकरण के साथ-साथ कंपनी ने पूरे भारत में एक जैसी अर्थ-व्यवस्था और कर-नीति बनाने की कोशिश की ।

परिवहन के साधनों का विकास : ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापार करने वाली कंपनी थी । उसने भारत में राजनीतिक और आर्थिक अधिकार मिलने के बाद तेजी से अपने व्यापार को फैलाया । यह भारत का कच्चा माल ब्रिटेन की मीलों तक पहुँचाने लगी और वहाँ का तैयार माल भारत ले आने लगी । इस माल की ढुलाई और भारत-भर में संपर्क करने के लिए कंपनी ने भारत में संचार और परिवहन की व्यवस्था की । रेल वे लाइनें बिछाईं। इसलिए भारत के विभिन्न हिस्सों तक जाना आसान हो गया ।

शिक्षा का योरोपीयकरण: उन्नीसवीं सदी से पहले भारत में पुराने ढंग से शिक्षा दी जाती थी । यह शिक्षा ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए उपयोगी नहीं थी । उसे आधुनिक योरोपीय ढंग से शिक्षित लोगों की जरूरत थी । इसके लिए उसने भारत में युरोपीय शिक्षा शुरू की । ज्ञान-विज्ञान के नए विषयों की पढ़ाई शुरु की । 

अँग्रेजी शिक्षा का प्रसार : ब्रिटेन में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी था और भारत में फारसी या संस्कृत । ईस्ट इंडिया कंपनी (मैकाले) ने भारत में अँग्रेजी शिक्षा की शुरुआत की । वह कंपनी के लिए अँग्रेजी जानने वाले क्लर्क तैयार करना चहता था ।

      राजनीतिक एकीकरण और आर्थिक एकीकरण भारत के लोगों में एकता की भावना पैदा की । परिवहन और संचार के साधनों से भारत लोगों में करीबी बढ़ी । देश के दो हिस्सों के बीच दूरी (समय) कम हुई । अँग्रेजी भाषा की शिक्षा और शिक्षा के योरोपीकरण से ज्ञान-विज्ञान के नए विषयों के पढ़ने का अवसर मिला । अँग्रेजी के द्वारा विश्व-भर के साहित्य और ज्ञान से परिचय मिला और विश्व में चल रही आधुनिकता की हवा ने भारत के लोगों को प्रभावित किया ।

इनके अलावा इस समय भारत में आधुनिकीकरण के तीन महत्त्वपूर्ण कारक थे—

1.      1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम

2.      सामाजिक सुधार आंदोलन

3.      प्रेस की स्थापना और समाचार पत्रों की शुरुआत

1857 का स्वतंत्रता संग्राम : 1757 की पलासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में एक राजनैतिक ताकत बन गई । उसने धीरे-धीरे पूरे भारत पर अपना राज्य फैला लिया । इसलिए भारत के व्यापार पर उसका अधिकार हो गया । कंपनी के लोग भारतीयों को लूटने और परेशान करने लगे । सेना में भारतीय सिपाहियों को कम वेतन दिया जाता था। अवध और झाँसी जैसे छोटे राज्यों को अपने में मिला लिया और वहाँ के राजाओं का महत्व समाप्त हो गया।  इन सब कारणों से 1857 में भारतीयों की ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ाई हुई । इसमें भारत की जनता, छोटे-छोटे राजा और कंपनी की सेना के भारतीय सिपाहियों ने कंपनी की सेना से लड़ाई की ।

            इस लड़ाई में भारतीय हार गए, लेकिन भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार समाप्त हो गई । महारानी विक्टोरिया ने भारत को ब्रिटिश राज्य बना लिया । भारतीय इतिहास में इस समय के भारत को ब्रिटिश भारत कहा जाता है ।

सामाजिक सुधार आंदोलन : उन्नीवीं  सदी के भारत में ऐसे अनेक कार्यक्रम चलाए गए, जिनका संबंध सामाजिक बुराइयों को खत्म करने से था । इनमें से मुख्य कार्यक्रम थे –

1.      सती प्रथा का विरोध

2.      विधवा विवाह

3.      स्त्री शिक्षा

4.      सामाजिक ऊँच-नीच का विरोध

ये आंदोलन देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग संस्थाओं ने चलाए; जैसे—

संस्था

सुधारक

काम

ब्रह्मो समाज

राजा राम मोहन राय (बंगाल)

सती-प्रथा का विरोध

प्रार्थना समाज

केशव चंद्र सेन (मुंबई)

विधवा विवाह

 

ईश्वरचंद्र विद्यासागर (बंगाल)

विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा

सत्य शोधक समाज

जोति बा फूले , सावित्री बाई फूले (महाराष्ट्र)

दलित स्त्री शिक्षा

 

पंडिता रमा बाई (महाराष्ट्र)

स्त्री-शिक्षा

आर्य समाज

दयानंद सरस्वती (पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश )

धार्मिक सुधार

 

आधुनिक हिंदी साहित्य

·        आधुनिक काल को गद्य काल भी कहते हैं ।

·        यह आधुनिक चेतना के विकास का काल है ।

·        हिंदी में गद्य लिखने की शुरुआत इसी काल में हुई ।

·        आधुनिक काल में साहित्य की भाषा के रूप में खड़ी बोली (मानक हिंदी) का विकास हुआ ।

·        आधुनिक साहित्य मनुष्य-केंद्रित साहित्य है।

·        इसने पहली बार राष्ट्रीयता, सामाजिक जीवन और सामान्य मनुष्य को केंद्र में रखा।

काल- विभाजन :  हिंदी साहित्य के आधुनिक काल को निम्नलिखित कालों में बाँट सकते हैं

1.      भारतेंदु युग (सन् 1850 से 1900 ई.तक)

2.      द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1918 ई.)

3.      छायावाद युग (सन् 1918 से 1936 ई.)

4.      प्रगति-प्रयोग युग (सन् 1936 से 1954 ई. तक)

5.      स्वातंत्र्योत्तर साहित्य (सन् 1947 के बाद)

भारतेंदु युग

(सन् 1850 से 1900 ई.)

भारतेंदु युग का नामकरण भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया । यह आधुनिक हिंदी साहित्य का पहला युग है । इस युग में कविता के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ।  गद्य खड़ी बोली खड़ी बोली में लिखा गया, लेकिन कविता ब्रजभाषा में ही लिखी गई। भारतेंदु युग में रीति काल की राधा-कृष्ण भक्ति की कविताओं का विस्तार  दिखाई देता है । राज-भक्ति के साथ देशभक्ति की कविताएँ लिखी गईं । ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की गई । भारतेंदु युग की कविता में स्वचेतनता की प्रवृत्ति दिखाई देती है । भारत की सामाजिक स्थिति पर कविताएँ लिखी गईं । कविताएँ‌-

      कठिन सिपाही द्रोह अनल जल बल सों नासी।

      अँग्रेज राज सुख साज सबै है भारी।

      पै सब धन विदेस चलि जात यहै है ख्वारी॥

       निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

      बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल ॥

 

द्विवेदी युग

(सन् 1900 ई. से 1920 ई. )

द्विवेदी युग आधुनिक हिंदी कविता का दूसरा युग है । इसका नामकरण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हुआ। खड़ी बोली में कविता लिखने की शुरुआत द्विवेदी युग में हुई ।  इस युग की कविता में सहजता और सपाटता है । इन कविताओं  में वर्णन (इतिवृत्तात्मकता) अधिक हैं । द्विवेदी युग की कविता की भाषा संस्कृतनिष्ठ है । इस युग में प्रबंध और मुक्तक दोनों तरह की कविताएँ लिखी गईं । अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध और मैथिलिशरण गुप्त इस युग के मुख्य कवि हैं । प्रिय प्रवास’, साकेत और भारत भारती इस युग की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं ।


छायावाद युग

(सन् 1918 से 1936 ई.)

आधुनिक हिंदी  कविता  के तीसरे  युग को छायावाद युग  कहा जाता है  । इसे आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्ण-युग माना जाता है। छायावाद युग में लिखी गई कविताओं को छायावादी कविता कहते हैं । छावादी कविताएँ लिखने वाले चार मुख्य कवि हैं

1.      जयशंकर प्रसाद

2.      निराला

3.      महादेवी वर्मा

4.      सुमित्रा नंदन पंत

छायावादी  कविता  की  विशेषताएँ :

1.      छायावादी कविता प्रेम और सौंदर्य की कविता है ।

2.      इन कविताओं में कल्पना अधिक है ।

3.      छायावादी कवियों ने प्रकृति से प्रेम की कविताएँ लिखी हैं ।

4.      इन्होंने प्रकृति का वर्णन मनुष्य के रूप में (मानवीकरण) किया है ।

5.      छायावादी कविता में स्त्री को प्रेम और सम्मान दिया गया है ।

6.      छायावादी कविता मानवता की कविता है ।

7.      इस कविताओं स्वतंत्रता की इच्छा है ।

8.       छायावादी कविता की भाषा में संस्कृत शब्दों का प्रयोग अधिक है ।

उदाहरण :

दिवसावसान का समय

मेघमय आसमान से उतर रही है

वह संध्या-सुंदरी परी-सी

धीरे-धीरे-धीरे ।                                         (संध्या-सुंदरी : निराला )

 



उत्तरछायावादी काव्य 

 

 उत्तर-छायवदी काव्य का दूसरा  नाम तीसोत्तरी कविता भी है ; क्योंकि यह कविता सन् 1930 ई. के बाद की कविता है । इस दौर में बच्चन के साथ-साथ माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, नरेंद्र शर्मा, अंचल आदि कवियों ने कविता लिखने की शुरुआत की । इसलिए इन सभी को उत्तर-छायावादी कवि कहा जाता है ।

उत्तर-छायावादी कवियों ने दो तरह की कविताएँ लिखीं हैं—

1.      राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविताएँ

2.      प्रेम, सौंदर्य और मस्ती की कविताएँ

दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान और बाल कृष्ण शर्मा नवीन को राष्ट्रीय संस्कृतिक धारा का कवि कहा जाता है । प्रेम और मस्ती की कविता लिखने वालों में हरिवंश राय बच्चन, अंचल, भगवती चरण वर्मा के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं ।

प्रगतिशील कविता 

 

(1936) 

प्रगति का सामान्य अर्थ है, आगे बढ़ना। वाद का अर्थ है सिद्धांत या विचार । प्रगतिवाद का अर्थ है— आगे बढ़ने का सिद्धांत । साहित्य अपने स्वभाव से प्रगतिशील होता है, लेकिन यहाँ प्रगतिशीलता का अर्थ एक खास विचारधारा के साथ आगे बढ़ने से है । वह विचारधारा मार्क्सवाद है। प्रगतिशील कविता पर कार्ल मार्क्स के विचारों का प्रभाव था। इस कविता की शुरुआत सन् 1936 ई. से मानी जाती है।

            पहली बार लंदन में सन् 1935 में इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एशोशिएन की स्थापना की गई । 10 अप्रैल, सन् 1936 ई. को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसकी अध्यक्षता हिंदी के लेखक प्रेमचंद ने की। यहाँ पहले-पहल हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता पर विचार हुआ। बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर, जवाहर लाल नेहरू और श्रीपाद डांगे भी इसके इसके सभापति बने।

प्रगतिशील कविता की शुरुआत प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन के बाद से ही मानी जाती है। इसकी प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ) हैं—

1.      प्रगतिशील कविता प्रगतिशील जीवन मूल्यों की कविता है । यह पुरानी रूढ़ियों को नहीं मानती। यह मार्क्सवादी समाज-दृष्टि और विश्वदृष्टि से प्रभावित कविता है ।

2.      प्रगतिशील कविता में कल्पना की जगह यथार्थ ने ले लिया ।

3.      प्रगतिशील कविता में किसानों और मजदूरों की बात की गई।

4.      प्रगतिशील कविता पूँजीवाद और सामंतवाद का लोगों के विरोध है ।

5.      इस कविता में गरीबों, मजदूरों और निम्नवर्गीय लोगों के हित की बात की गई ।

6.      यहाँ मनुष्य के सहज और सच्चे सौंदर्य की कविताएँ लिखी गई, जैसे— छोटे बच्चे की मुस्कान, दाम्पत्य जीवन की सुंदरता, किसानों और मजदूरों के काम की सुंदरता।

7.      इन कविताओं में वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है।

8.      प्रकृति की सहज सुंदरता का वर्णन किया गया। छायावादी कविता की तरह कल्पना की अधिकता नहीं है।

9.      प्रगतिशील कविता सहज मानवीय प्रेम की कविताएँ लिखी गई हैं। उनका प्रेम एकांतिक न होकर सामाजिक है।

10.  यह कविता समाजवादी देशों का समर्थन करती है।

प्रमुख कवि— नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, गजानन माधव मुक्तिबोध’, शिवमंगल सिंह सुमन आदि ।


 

प्रयोगवादी कविता

(1943-1954)

सप्तक

अज्ञेय ने अपने समय के सात नए कवियों की कविताओं के चार अलग-अलग संकलन संपादित किए थे । इन्हें सप्तक कहा जाता है।  तारसप्तक इनमें से पहला  है । 

प्रयोगवाद की शुरुआत तार-सप्तक के प्रकाशन के साथ मानी जाती है । इसमें सात कवियों की कविताएँ संकलित थीं। तार-सप्तक संपादन सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने किया था । यह 1943 में प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा था कि इस तार-सप्तक के कवि राही नहीं राहों के अन्वेषी हैं अर्थात् ये सभी नए कवि थे जो कविता की दुनिया में अपनी पहचान बनाने 




के लिए नई तरह की कविता लिखना चाहते थे । कविता के इस आंदोलन को प्रतीक (1947-1952) पत्रिका से बल मिला और दूसरा सप्तक ने इसे और मजबूत किया ।  

प्रयोगवादी कवि

गजानन माधव मुक्तिबोध’, रामविलास शर्मा, नेमिचंद्र जैन, गिरजा कुमार माथुर, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

 प्रयोगवाद शब्द का अर्थ है, प्रयोग को महत्त्व देने वाली कविता । इस कविता में भाव, भाषा, शिल्प आदि सभी में नए प्रयोग किए गए । प्रयोगवादी कवियों ने पहले की हिंदी कविता को पुरानी और रूढ़ कहते हुए उसके भाव, प्रतीक, उपमान, और भाषा सबको नकार दिया । प्रयोगवादी  कवियों ने यह कहा कि ये सब पुराने पड़ चुके हैं और कविता में नई भाषा, नए उपमानों और नए प्रतीकों के प्रयोग की जरूरत है ।  प्रयोगवादी कविता व्यक्तिवादी मानी जाती है । इसपर योरोपीय चिंतन का प्रभाव था । इसका जन्म वाद (विचारधारा-केंद्रित कविता) के विरोध से हुआ । तारसप्तक के कई कवि मार्क्सवादी जीवन-दर्शन से प्रभावित थे, लेकिन उनमें से प्रायः ने प्रयोग के लिए विचारधारा छोड़ दी। यह एक तरह से अ-राजनीतिक कविता है ।

 

प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ

1.      प्रयोगवाद पर आधुनिकतावाद का प्रभाव है ।

2.      प्रयोगवादी कविता में व्यक्तिवाद की प्रमुखता है । इसने व्यक्तिगत जीवन के यथार्थ की बात की ।

3.      इसने भावना की जगह बुद्धि को महत्त्व दिया ।

4.      यह मध्यवर्गीय जीवन की जटिलता का काव्य है।

5.      इसमें कहीं-कहीं संदेह, अनास्था और अनिश्चितता का स्वर भी सुनाई पड़ता है; जो द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों का प्रभाव है ।

6.      प्रयोगवादी कविता में पुराने उपमानों और प्रतीकों की जगह नए प्रतीक और उपमान रचे गए ।

7.      प्रयोगवादी कविता की भाषा-शैली में विविधता है । भाषा-शैली की एकरूपता को प्रयोगवादी कवि रूढ़ि और प्रयोग-विरोधी मानते हैं ।

प्रयोगवाद को तीन पदों (Terms) से पहचाना जा सकता है— 1. व्यक्ति को महत्त्व, 2. प्रयोगशीलता और 3. विविधता ।

यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता, पर

इसको भी पंक्ति को दे  दो ।

                               —अज्ञेय 

1.       व्यक्ति को महत्त्व

 प्रयोगवादी कवि व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं । उनके अनुसार मनुष्य की सामाजिक के साथ-साथ एक अपनी निजी पहचान भी है । प्रयोगवादी कविताएँ मनुष्य की निजी पहचान (अस्तित्व) की कविताएँ हैं।

2.      प्रयोगशीलता

 प्रयोगवादी कवियों ने कविता के पुराने पैटर्न को अस्वीकार कर दिया और भाव, विचार, उपमान, प्रतीक, भाषा तथा शिल्प आदि में बदलाव की बात की । उन्होंने कहा कि इन सभी में नये प्रयोग किये जाने चाहिए ।  इसीलिए इन कवियों को प्रयोगवादी कवि कहा जाता है ।

3.      विविधता

 ये कवि प्रयोगवादी हैं । इसलिए कविता के किसी एक पैटर्न में नहीं बँधते । भाव और शिल्प दोनों में अलग-अलग कवियों की कविताओं में विविधता है । यहाँ तक की एक ही कवि की अलग-अलग कविता की भाषा भी अलग अलग है ।


 

नयी कविता

(1954 के बाद )

नयी कविता का जन्म प्रयोगवदी कविता के भीतर से हुआ । इसके विकास में दूसरा सप्तक (1951ई.) और तीसरा सप्तक(1959ई.) के कवियों का योगदान रहा है । प्रयोग’(प्रयोगवाद )  की तरह नयी कविता पद का प्रयोग भी अज्ञेय ने किया था । उन्होंने कहा था कि प्रयोगवाद जैसा कोई वाद नहीं है, बल्कि तारसप्तक के कवि नये कवि हैं । इसा अर्थ में अज्ञेय प्रयोगवाद की तरह नयी कविता के भी प्रवर्तक माने जा सकते हैं ।

            डॉ. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने नयी कविता नाम की पत्रिका का संपादन किया । इस पत्रिका का प्रकशन पहली बार 1954 ई. में हुआ । इस पत्रिका के प्रकाशन को ही नयी कविता आंदोलन की शुरुआत माना जाता है । अतः नयी कविता की शुरुआत सन् 1954 ई. में हुई । नयी कविता के अतिरिक्त अज्ञेय द्वारा संपादित प्रतीक पत्रिका ने भी नयी कविता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । नयी कविता निकष और प्रतीक नयीकविता आंदोलन से जुड़ी मुख्य पत्रिकाएँ हैं ।

 डॉ. जगदीश गुप्त नयी कवितापत्रिका के संपादक के साथ-साथ नयी कविता आंदोलन के एक महत्त्वपूर्ण कवि भी थे। उनके अतिरिक्त सप्तक के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध’, भवानीप्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, श्रीनरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय तथा श्रीकांत वर्मा और विजयदेव नारायण साही नयी कविता आंदोलन के महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं ।

            नई कविता में कविता की पहले से आती हुई प्रगतिशील और प्रयोगवादी दोनों धाराएँ एक साथ मिल गईं । इसमें मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय जैसे प्रगतिशील कवि और गिरजाकुमार माथुर और धर्मवीर भारती जैसे प्रयोगशील कवि नयी कविता आंदोलन में एकसाथ खड़े दिखाई देते हैं । विजयदेव नारायण साही का लघुमानव के बहाने नयी कविता पर एक बहस शीर्षक निबंध और श्रीकांत वर्मा की पुस्तक नयी कविता की पहचान ने इस आंदोलन का वैचारिक आधार तैयार किया । बाद में मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी ने इस आंदोलन को नये तरीके से देखने की एक दृष्टि दी ।

विशेषताएँ :

1.      नई कविता वाद-मुक्त कविता है । 

2.      नई कविता दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की कविता है । इसलिए इसमें अनिश्चय और संशय की प्रवृत्ति पायी जाती है।

3.        यह मनुष्य की लघुता का काव्य है । यहाँ छायावाद के विराट् मानव और प्रगतिवाद का सामाजिक मनुष्य लघु मानव के रूप में दिखाई देता है ।

4.      इन कविताओं में कहीं व्यक्तिवाद है तो कहीं व्यक्ति और समाज की टकराहट । इन कविताओं पर कामू और सार्त्र के अस्तित्ववाद का प्रभाव है ।

नयी कविता के कवियों ने नये विम्बों और प्रतीकों के प्रयोग पर बल दिया है ।

 


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