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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

नयी कविता


(1954 के बाद )

नयी कविता का जन्म प्रयोगवदी कविता के भीतर से हुआ । इसके विकास में दूसरा सप्तक (1951ई.) और तीसरा सप्तक(1959ई.) के कवियों का योगदान रहा है । प्रयोग’(प्रयोगवाद )  की तरह नयी कविता पद का प्रयोग भी अज्ञेय ने किया था । उन्होंने कहा था कि प्रयोगवाद जैसा कोई वाद नहीं है, बल्कि तारसप्तक के कवि नये कवि हैं । इसा अर्थ में अज्ञेय प्रयोगवाद की तरह नयी कविता के भी प्रवर्तक माने जा सकते हैं ।

            डॉ. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने नयी कविता नाम की पत्रिका का संपादन किया । इस पत्रिका का प्रकशन पहली बार 1954 ई. में हुआ । इस पत्रिका के प्रकाशन को ही नयी कविता आंदोलन की शुरुआत माना जाता है । अतः नयी कविता की शुरुआत सन् 1954 ई. में हुई । नयी कविता के अतिरिक्त अज्ञेय द्वारा संपादित प्रतीक पत्रिका ने भी नयी कविता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । नयी कविता निकष और प्रतीक नयीकविता आंदोलन से जुड़ी मुख्य पत्रिकाएँ हैं ।

 डॉ. जगदीश गुप्त नयी कविता’ पत्रिका के संपादक के साथ-साथ नयी कविता आंदोलन के एक महत्त्वपूर्ण कवि भी थे। उनके अतिरिक्त सप्तक के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध’, भवानीप्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, श्रीनरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय तथा श्रीकांत वर्मा और विजयदेव नारायण साही नयी कविता आंदोलन के महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं ।

            नई कविता में कविता की पहले से आती हुई प्रगतिशील और प्रयोगवादी दोनों धाराएँ एक साथ मिल गईं । इसमें मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय जैसे प्रगतिशील कवि और गिरजाकुमार माथुर और धर्मवीर भारती जैसे प्रयोगशील कवि नयी कविता आंदोलन में एकसाथ खड़े दिखाई देते हैं । विजयदेव नारायण साही का लघुमानव के बहाने नयी कविता पर एक बहस शीर्षक निबंध और श्रीकांत वर्मा की पुस्तक नयी कविता की पहचान ने इस आंदोलन का वैचारिक आधार तैयार किया । बाद में मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी ने इस आंदोलन को नये तरीके से देखने की एक दृष्टि दी ।

विशेषताएँ :

1.      नई कविता वाद-मुक्त कविता है । 

2.      नई कविता दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की कविता है । इसलिए इसमें अनिश्चय और संशय की प्रवृत्ति पायी जाती है।

3.        यह मनुष्य की लघुता का काव्य है । यहाँ छायावाद के विराट् मानव और प्रगतिवाद का सामाजिक मनुष्य लघु मानव के रूप में दिखाई देता है ।

4.      इन कविताओं में कहीं व्यक्तिवाद है तो कहीं व्यक्ति और समाज की टकराहट । इन कविताओं पर कामू और सार्त्र के अस्तित्ववाद का प्रभाव है ।

नयी कविता के कवियों ने नये विम्बों और प्रतीकों के प्रयोग पर बल दिया है ।

 


प्रगतिशील कविता

 

प्रगतिशील कविता

प्रगति का सामान्य अर्थ है, आगे बढ़ना। वाद का अर्थ है सिद्धांत या विचार । प्रगतिवाद का अर्थ है— आगे बढ़ने का सिद्धांत । साहित्य अपने स्वभाव से प्रगतिशील होता है, लेकिन यहाँ प्रगतिशीलता का अर्थ एक खास विचारधारा के साथ आगे बढ़ने से है । वह विचारधारा मार्क्सवाद है। प्रगतिशील कविता पर कार्ल मार्क्स के विचारों का प्रभाव था। इस कविता की शुरुआत सन् 1936 ई. से मानी जाती है।

            पहली बार लंदन में सन् 1935 में इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एशोशिएन की स्थापना की गई । 10 अप्रैल, सन् 1936 ई. को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। इसकी अध्यक्षता हिंदी के लेखक प्रेमचंद ने की। यहाँ पहले-पहल हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता पर विचार हुआ। बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर, जवाहर लाल नेहरू और श्रीपाद डांगे भी इसके इसके सभापति बने।

प्रगतिशील कविता की शुरुआत प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन के बाद से ही मानी जाती है। इसकी प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ) हैं—

1.      प्रगतिशील कविता प्रगतिशील जीवन मूल्यों की कविता है । यह पुरानी रूढ़ियों को नहीं मानती। यह मार्क्सवादी समाज-दृष्टि और विश्वदृष्टि से प्रभावित कविता है ।

2.      प्रगतिशील कविता में कल्पना की जगह यथार्थ ने ले लिया ।

3.      प्रगतिशील कविता में किसानों और मजदूरों की बात की गई।

4.      प्रगतिशील कविता पूँजीवाद और सामंतवाद का लोगों के विरोध है ।

5.      इस कविता में गरीबों, मजदूरों और निम्नवर्गीय लोगों के हित की बात की गई ।

6.      यहाँ मनुष्य के सहज और सच्चे सौंदर्य की कविताएँ लिखी गई, जैसे— छोटे बच्चे की मुस्कान, दाम्पत्य जीवन की सुंदरता, किसानों और मजदूरों के काम की सुंदरता।

7.      इन कविताओं में वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है।

8.      प्रकृति की सहज सुंदरता का वर्णन किया गया। छायावादी कविता की तरह कल्पना की अधिकता नहीं है।

9.      प्रगतिशील कविता सहज मानवीय प्रेम की कविताएँ लिखी गई हैं। उनका प्रेम एकांतिक न होकर सामाजिक है।

10.  यह कविता समाजवादी देशों का समर्थन करती है।

प्रमुख कवि— नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, गजानन माधव मुक्तिबोध’, शिवमंगल सिंह सुमन आदि।

बुधवार, 18 नवंबर 2020

सगुण भक्ति

 सगुण भक्त कवि वैष्णव थे। इन्होंने विष्णु के अवतारों की उपासना की । इनकी भक्ति का आधार अवतारवाद है । सगुण भक्तों ने ब्रह्म की उपासना उनके अवतारों के रूप में की, जैसे- राम और कृष्ण । इन भक्तों ने ईश्वर से प्रिय, सखा और दास भाव की भक्ति की । भक्त कवियों ने प्रेम को एक व्यापक रूप दिया । इनहोंने प्रेम को सबसे बड़ा मानवीय मूल्य माना है । सगुण भक्त कवियों ने अपना साहित्य मुख्य रूप से ब्रज और अवधी बोलियों में लिखा । रामचरित मानस सूरसागर आदि इन कवियों की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

सगुण भक्ति के दो प्रकार हैं

क.        कृष्णभक्ति काव्य

ख.        रामभक्ति काव्य

बुधवार, 11 नवंबर 2020

कृष्ण भक्ति और सूरदास

  कृष्ण भक्ति:

कृष्ण भक्ति काव्य के प्रवर्तक बल्लभाचार्य थे । उनके चार और उनके पुत्र के चार शिष्यों को अष्टछाप कवि कहा गया । इनका केंद्र मथुरा था । इन कवियों ने कृष्ण की भक्ति की । इन्होंने कृष्ण की भक्ति सखा या प्रिय के रूप में की । इन कवियों ने कृष्ण के जीवन की लीलाओं का वर्णन किया । इन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखीं। सूरदास इन कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं । सूरसागरकृष्ण-भक्ति काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना है ।

सूरदास

सूरदास का जन्म 1478 ई. के आस-पास हुआ था । इनके जन्म का स्थान दिल्ली के पास सीही गाँव है। सूरदास जन्म से अंधे थे । वे वृंदावन के श्री नाथ मंदिर में रहते थे । उनके गुरु का नाम बल्लभाचार्य था । सूरदास ने गेय मुक्तक लिखे । सूरदास के नाम से 25 रचनाएँ मिलती हैं । सूरसागरइनमें सबसे प्रसिद्ध है । सूरदास ने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखीं ।  सूरदास की मृत्यु 1581 ई. में हुई थी।

सूरदास की कविता की विशेषताएँ :

1.         सूर की भक्ति सख्य-भाव की है।

2.         उन्होंने कृष्ण को अपना सखा(मित्र) मानकर भक्ति की।

3.         सूरदास ने कृष्ण की  बाल-लीला का वर्णन किया है ।

4.         राधा-कृष्ण के प्रेम का भी वर्णन वर्णन किया है ।

रविवार, 1 नवंबर 2020

प्रयोगवादी कविता

(1943-1954)

सप्तक

अज्ञेय ने अपने समय के सात नए कवियों की कविताओं के चार अलग-अलग संकलन संपादित किए थे । इन्हें सप्तक कहा जाता है।  तारसप्तक इनमें से पहला  है । 

    प्रयोगवाद की शुरुआत तार-सप्तक के प्रकाशन के साथ मानी जाती है । इसमें सात कवियों की कविताएँ संकलित थीं। तार-सप्तक संपादन सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने किया था । यह 1943 में प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा था कि इस तार-सप्तक के कवि राही नहीं राहों के अन्वेषी हैं अर्थात् ये सभी नए कवि थे जो कविता की दुनिया में अपनी पहचान बनाने के लिए नई तरह की कविता लिखना चाहते थे । कविता के इस आंदोलन को प्रतीक (1947-1952) पत्रिका से बल मिला और दूसरा सप्तक ने इसे और मजबूत किया ।  

 प्रयोगवाद शब्द का अर्थ है, प्रयोग को महत्त्व देने वाली कविता । इस कविता में भाव, भाषा, शिल्प आदि सभी में नए प्रयोग किए गए । प्रयोगवादी कवियों ने पहले की हिंदी कविता को पुरानी और रूढ़ कहते हुए उसके भाव, प्रतीक, उपमान, और भाषा सबको नकार दिया । प्रयोगवादी  कवियों ने यह कहा कि ये सब पुराने पड़ चुके हैं और कविता में नई भाषा, नए उपमानों और नए प्रतीकों के प्रयोग की जरूरत है ।  प्रयोगवादी कविता व्यक्तिवादी मानी जाती है । इसपर योरोपीय चिंतन का प्रभाव था । इसका जन्म वाद (विचारधारा-केंद्रित कविता) के विरोध से हुआ । तारसप्तक के कई कवि मार्क्सवादी जीवन-दर्शन से प्रभावित थे, लेकिन उनमें से प्रायः ने प्रयोग के लिए विचारधारा छोड़ दी। यह एक तरह से अ-राजनीतिक कविता है ।

 

प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ

1.      प्रयोगवाद पर आधुनिकतावाद का प्रभाव है ।

2.      प्रयोगवादी कविता में व्यक्तिवाद की प्रमुखता है । इसने व्यक्तिगत जीवन के यथार्थ की बात की ।

3.      इसने भावना की जगह बुद्धि को महत्त्व दिया ।

4.      यह मध्यवर्गीय जीवन की जटिलता का काव्य है।

5.      इसमें कहीं-कहीं संदेह, अनास्था और अनिश्चितता का स्वर भी सुनाई पड़ता है; जो द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों का प्रभाव है ।

6.      प्रयोगवादी कविता में पुराने उपमानों और प्रतीकों की जगह नए प्रतीक और उपमान रचे गए ।

7.      प्रयोगवादी कविता की भाषा-शैली में विविधता है । भाषा-शैली की एकरूपता को प्रयोगवादी कवि रूढ़ि और प्रयोग-विरोधी मानते हैं ।

 

प्रयोगवाद को तीन पदों (Terms) से पहचाना जा सकता है— 1. व्यक्ति को महत्त्व, 2. प्रयोगशीलता और 3. विविधता ।

1.       व्यक्ति को महत्त्व

यह दीप अकेला स्नेह भरा

है गर्व भरा मदमाता, पर

इसको भी पंक्ति को दे  दो ।

                               —अज्ञेय 

 प्रयोगवादी कवि व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं । उनके अनुसार मनुष्य की सामाजिक के साथ-साथ एक अपनी निजी पहचान भी है । प्रयोगवादी कविताएँ मनुष्य की निजी पहचान (अस्तित्व) की कविताएँ हैं।


2.      प्रयोगशीलता

प्रयोगवादी कवि

गजानन माधव मुक्तिबोध’, रामविलास शर्मा, नेमिचंद्र जैन, गिरजा कुमार माथुर, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

 प्रयोगवादी कवियों ने कविता के पुराने पैटर्न को अस्वीकार कर दिया और भाव, विचार, उपमान, प्रतीक, भाषा तथा शिल्प आदि में बदलाव की बात की । उन्होंने कहा कि इन सभी में नये प्रयोग किये जाने चाहिए ।  इसीलिए इन कवियों को प्रयोगवादी कवि कहा जाता है ।

3.      विविधता

 ये कवि प्रयोगवादी हैं । इसलिए कविता के किसी एक पैटर्न में नहीं बँधते । भाव और शिल्प दोनों में अलग-अलग कवियों की कविताओं में विविधता है । यहाँ तक की एक ही कवि की अलग-अलग कविता की भाषा भी अलग अलग है ।

शनिवार, 5 सितंबर 2020

निर्गुण भक्ति

 

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ :

      निर्गुण कवियों ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की।

      उन्होंने अवतारवाद को अस्वीकार कर दिया।

      निर्गुण कवि मूर्ति-पूजा का विरोध करते थे।

      ब्रह्म (ईश्वर/भगवान) को प्रत्येक मनुष्य के भीतर माना।

      ज्ञान और प्रेम को ब्रह्म तक पहुँचने का रास्ता माना।  

      इन्होंने गुरु को महत्त्व दिया।

       सभी मनुष्यों में समानता को महत्व दिया।

      निर्गुण भक्ति की दो शाखाएँ थीं

क.    ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी

ख.    प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी

क.    ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी :

1.      ज्ञानाश्रयी भक्ति काव्य को संतकाव्य भी कहते हैं।

2.      इसमें ज्ञान और योग (साधना) के द्वारा ब्रह्म की उपासना पर बल दिया गया है।

3.      शंकराचार्य के अद्वैतवाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव।

4.      सिद्धों और नाथों की साधना का प्रभाव।

5.      बाहरी आचारमूर्ति-पूजा, नाम-जप, तीर्थाटन आदि का विरोध।

6.      हिंदी की कई बोलियों से मिली-जुली भाषा का प्रयोग।

7.      जाति-पाँति, ऊँच-नीच का विरोध।

8.      प्रमुख कवि- कबीर, नानक, दादू, रैदास आदि।

ख.   प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी :

1.      इसे सूफी कविता भी कहते हैं।

2.      ये कवि ईरानी सूफी दर्शन से प्रभावित थे।

3.      इन्होंने प्रेम को ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता माना।

4.      सूफी कविता में ईश्वर को प्रेयसी और जीव(मनुष्य) को प्रेमी माना गया है।

5.      पूरी दुनिया उसी प्रेयसी के रूप का प्रतिविंब है।

6.       भारतीय लोक-कथाओं को आधार बनाकर प्रबंध काव्य की रचना।

7.       प्रमुख कविजायसी, कुतुबन, मंझन, उस्मान आदि।

सोमवार, 10 अगस्त 2020

भारतेंदु युग

 

(सन् 1850 से 1900 ई.)

भारतेंदु युग का नामकरण भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया । यह आधुनिक हिंदी साहित्य का पहला युग है । इस युग में कविता के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ।  गद्य खड़ी बोली खड़ी बोली में लिखा गया, लेकिन कविता ब्रजभाषा में ही लिखी गई। भारतेंदु युग में रीति काल की राधा-कृष्ण भक्ति की कविताओं का विस्तार  दिखाई देता है । राज-भक्ति के साथ देशभक्ति की कविताएँ लिखी गईं । ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की गई । भारतेंदु युग की कविता में स्वचेतनता की प्रवृत्ति दिखाई देती है । भारत की सामाजिक स्थिति पर कविताएँ लिखी गईं । कविताएँ‌-

      कठिन सिपाही द्रोह अनल जल बल सों नासी।

      अँग्रेज राज सुख साज सबै है भारी।

      पै सब धन विदेस चलि जात यहै है ख्वारी॥

       निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

      बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल ॥

सोमवार, 6 जुलाई 2020

पूर्वमध्यकाल : भक्तिकाल

 

संवत् 1375 से संवत् 1700 तक

( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

मध्य का अर्थ है- बीच ।  मध्यकाल आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का काल है । इसके दो भाग हैं— 1. पूर्वमध्यकाल 2. उत्तरमध्यकाल । पूर्व मध्यकाल का ही दूसरा नाम भक्तिकाल है । यह काल भक्ति-साहित्य के लिए प्रसिद्ध है ।

भक्ति की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई । रामानंद ने इसे उत्तर भारत ले गए । उनका संबंध तमिल आलवारों से था । आलवार वैष्णव थे । रामनंद का संबंध इन्हीं आलवारों से माना जाता है । हिंदी के भक्त कवि रामानंद की शिष्य-परंपरा में हैं ।

भक्ति काव्य की  विशेषताएँ : ईश्वर से प्रेम करने को भक्ति कहते हैं । भक्ति काल में भक्ति को विषय बनाकर कविताएँ लिखी गईं। भक्ति काव्य का क्षेत्र-विस्तार पूरे भारत में था।  भक्ति काव्य ने देशी भाषाओं को महत्व दिया। हिन्दी के भक्ति काव्य में ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी आदि बोलियों में कविताएँ लिखी गईं। इन कविताओं में भक्ति के बाद सबसे अधिक सामाजिक समानता को महत्व दिया। भक्ति काल को हिंदी कविता का स्वर्ण युग कहा जाता है।

 

भक्ति दो प्रकार की होती है—

     भक्ति


 

 


                         सगुण भक्ति                   निर्गुण भक्ति


 


                                   

      कृष्ण भक्ति                 राम भक्ति            ज्ञानाश्रयी              प्रेमाश्रयी

                                                (संत कवि)      (सूफी कवि)

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

हिंदी काव्य : एक रेखांकन

 

हिंदी साहित्य का आरंभ

हिंदी साहित्य की शुरुआत की एक निश्चित तिथि नहीं बताई जा सकती, लेकिन इसका आरंभ सन् 1000 ई. के आसपास मानी जा सकती  है । तब से लेकर अब तक लगभग एक हजार साल में हिंदी का साहित्य लगातार आगे बढ़ता रहा है । इसमें कई तरह के बदलाव आये । इन बदलावों के आधार पर हिंदी साहित्य को अलग-अलग कालों में बाँटा गया है । इन कालों की सही समय-सीमा और नामकरण को लेकर विद्वानों अलग-अलग विचार हैं । इनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल-विभाजन अधिक मान्य है ‌‌। उनके अनुसार—

1.      आदिकाल (वीरगाथाकाल) : संवत् 1050 से 1375 तक  ( सन् 993 ई. से  सन्1318 ई. )

2.      पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल)  : संवत् 1375 से संवत् 1700 तक ( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

3.      उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल) : संवत् 1700 से संवत् 1900 तक ( सन् 1643 ई. से  सन् 1843 ई. )

4.      आधुनिक काल ( गद्यकाल) : संवत् 1900 से अब तक ( सन् 1843 ई. से  अबतक)

आदिकाल (वीरगाथाकाल )

संवत् 1050 से 1375

आदिकाल हिंदी भाषा में साहित्य लिखने की शुरुआत का समय है । हिंदी भाषा से पहले साहित्य की भाषा अपभ्रंश थी। इसमें आठवीं शताब्दी के आस पास से साहित्य-रचनाएँ मिलने लगती हैं । चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे पुरानी हिंदी कहा है । लेकिन हिंदी साहित्य के आदिकाल का वास्तविक समय संवत् 1050 से 1375 तक माना जाता है। इस समय तीन तरह के साहित्य लिखे गये –

1.      धार्मिक काव्य

2.      वीरगाथा काव्य

3.      स्वतंत्र काव्य

धार्मिक काव्य – इस समय भारत में कई तरह के धार्मिक विचार थे । इनमें से सिद्ध, नाथ और जैन तीन मुख्य थे। आदिकालीन हिंदी में इन तीनों से जुड़ी धार्मिक  रचनाएँ  मिलती हैं । इनमें साहित्य की जगह धार्मिक विचार अधिक प्रभावी  हैं । इन कवियों ने अपनी कविताओं में अपने-अपने धर्मों की शिक्षा दी है। ये धार्मिक विचार की कविताएँ हैं। ये विचार दोहा, चरित काव्य और चार्यापदों में रचे गए हैं । इनमें से मुख्य कवि हैं—

धार्मिक मत

कवि

काव्य

सिद्ध

सरहपा

दोहाकोश

जैन

स्वयंभू

मेरुतुंग

हेमचंद्र

पउम चरिउ (राम-कथा)

प्रबंध चिंतामणि

प्राकृत व्याकरण

नाथ

गोरख नाथ

गोरखबानी

 

जैन काव्य की विशेषताएँ :

1.      जैन काव्य जैन धर्म से प्रभावित है ।

2.      जैन धर्म के महापुरुषों के जीवन को विषय बनाकर चिरित काव्य लिखे गए; जैसे- पउम चरिउ, जसहर चरिउ, करकंडु चरिउ,भविसयत कहा आदि ।

3.      जैन कवियों ने व्याकरण-ग्रंथ भी लिखे ; जैसे- प्राकृत व्याकरण, प्रबंधचिंतामणि, सिद्धहेम शब्दानुशासन आदि ।

4.      कड़वक बंध रचनाएँ और चौपई छंद जैन कवियों की देन है ।

5.      हिंदी का पहला बारहमासा वर्णन जैन साहित्य में मिलता है ।

वीरगाथा काव्य– इस समय भारत में एक केंद्रीय सत्ता की कमी थी। देश कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था और प्रत्येक राजा दूसरे राजा से राज्य छीनना चाह रहा था और अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसलिए वे आपस में लड़ रहे थे। इन राजाओं के राज्य में रहने वाले कवियों ने अपने राजाओं की वीरता का वर्णन  किया है । इस लिए इन्हें वीरगाथा काव्य कहा जाता है। इन कविताओं का विषय लड़ाइयों का वर्णन है। चंदबरदाई का पृथ्वीराज रासो और जगनिक की परमाल रासो इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है।

स्वतंत्र काव्य – जिन कवियों ने धार्मिक काव्य और वीरगाथा काव्य नहीं लिखे । उनकी कविताएँ इन दोनों प्रकार के काव्यों से अलग हैं , उन्हें स्वतंत्र कवि कहा जा सकता है; जैसे विद्यापति और अमीर खुसरो 

1.      विद्यापति (14 वीं शताब्दी) — इनके तीन प्रसिद्ध काव्य कीर्तिलता’, कीर्तिपताका और पदावली हैं। कीर्तिलता और कीर्ति पताका का संबंध राजा कीर्ति सिंह से है। विद्यापति उन्हीं के यहाँ रहते थे। पदावली में राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है। इसमें उन दोनों का प्रेम एक सामान्य युवक और युवती के प्रेम जैसा है। विद्यापति के इस काव्य का सबसे अधिक महत्त्व है।

2.      अमीर खुसरो (14 वीं शताब्दी) —  खुसरो फारसी के कवि थे। उन्होंने हिंदी में भी रचनाएँ कीं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने प्रसिद्ध हैं। खुसरो  की रचनाओं की भाषा आधुनिक काल की हिंदी के करीब है। इसलिए इनका ऐतिहारिक महत्त्व है।

3.      अद्दहमाण / अब्दुल रहमान (13वीं शताब्दी)- संदेश रासक (शृंगार काव्य)

4.      रोडा- राउड बेलि (शृंगार काव्य)

5.      लक्षमीधर - प्राकृत पैंगलम्

आदिकाल की सामान्य विशेषताएँ :

1.      इस काल में वीर-काव्य लिखे गए।

2.      इस काल के कवि राजाओं के दरबारी कवि थे और उन्होंने अपने राजाओं की प्रशस्तिमें कविताएँ लिखीं।

3.      आदिकाल में वीर के साथ-साथ कुछ शृंगार (प्रेम) की रचनाएँ की भी मिलती हैं; जैसे-  नरपति नाल्ह की बीसलदेव रासो  और विद्यापति की पदावली

4.      जैन और सिद्ध कवियों ने अपने धार्मिक विचार के प्रचार के लिए साहित्य का आधार बनाया है। जसहर चरिउ’, रिठ्ठणेमि चारिउ आदि ।

5.      इन रचनाओं की भाषा अपभ्रंश मिली-जुली हिंदी (डिंगल- पिंगल और अवहट्ट) है।

6.       खुसरो की रचनाओं तथा उक्तिव्यक्ति प्रकरण से आधुनिक हिंदी भाषा का पूर्वानुमान मिलने लगता है।

7.      चरित, दोहा और पद— जैसे नए काव्य-रूप का प्रयोग किया, जो बाद में अधिक लोकप्रिय हुए ।