गुरुवार, 19 नवंबर 2020

महादेवी वर्मा: जीवन परिचय और साहित्यिक योगदान

प्रारंभिक जीवन
महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में 26 मार्च 1907 को हुआ था। उनके जीवन का अधिकांश समय इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में बीता, जो उनके साहित्यिक जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल था। वे प्रयाग महिला विद्यापीठ में अध्यापिका के रूप में कार्यरत रही थीं। उनका विवाह बचपन में ही हुआ था, लेकिन उन्होंने जीवनभर अविवाहित की तरह जीवन जीने का निर्णय लिया। उनका व्यक्तित्व बहुत ही आत्मनिर्भर और संकल्पित था। वे एक सशक्त महिला के रूप में समाज में पहचान रखती थीं।

महादेवी वर्मा न केवल एक प्रख्यात कवयित्री थीं, बल्कि एक कुशल चित्रकार और संगीतज्ञ भी थीं। उन्होंने साहित्य, कला और संगीत के विभिन्न पहलुओं में महारत हासिल की थी। इसके साथ ही उन्होंने कई रचनाओं के अनुवाद भी किए, जिनमें भारतीय और पश्चिमी साहित्य का मिश्रण देखने को मिलता है।

साहित्यिक योगदान और छायावाद
महादेवी वर्मा का नाम छायावाद के महान कवियों में लिया जाता है। छायावाद युग में कविता में प्रकृति के प्रति प्रेम, कल्पना, और रहस्यवाद की विशेषताएँ प्रमुख थीं, और महादेवी वर्मा ने इन तत्वों का पूरी तरह से अनुसरण किया। छायावादी कविता में प्रकृति को मानव मन की भावनाओं और कल्पनाओं के साथ जोड़ा जाता था।

महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रकृति के साथ एक गहरा संबंध स्थापित किया गया है। वे प्रकृति के माध्यम से ब्रह्म (ईश्वर) की अनुभूति करती हैं। उनके लिए प्रकृति केवल बाहरी दृश्य नहीं, बल्कि एक आंतरिक और दिव्य शक्ति का प्रतीक है, जो मानव जीवन से जुड़ी हुई है। यह रहस्यवाद उनके काव्य की विशेषता है, और उनके काव्य में प्रकृति की क्रियाओं को ईश्वर का संदेश माना जाता है।

प्रेम और विरह
महादेवी वर्मा की कविताओं का एक मुख्य विषय प्रेम और विरह (प्रेमिका का दुख) था। उन्होंने अपनी कविताओं में अप्रत्यक्ष प्रेम की अवधारणा को व्यक्त किया, जहाँ प्रेमी इस दुनिया से परे किसी अदृश्य शक्ति, या ईश्वर से जुड़ा होता है। उनका प्रेमी इस दुनिया से नहीं बल्कि प्रकृति के उस पार कहीं अस्तित्व में होता है।

महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रेम की पीड़ा की गहरी अभिव्यक्ति मिलती है, और उनकी कविताओं में यह प्रेम कभी शारीरिक नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक और सशक्त रूप में प्रस्तुत होता है। इस दृष्टि से महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीरा कहा गया है, क्योंकि उन्होंने प्रेम और विरह को ईश्वर के प्रति एक भक्ति की भावना से जोड़ा। उनके कविता संग्रह 'यामा' में भी इस प्रेम और पीड़ा का गहरा प्रभाव दिखता है, और यही कारण है कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया था।

गद्य लेखन और स्त्री चेतना
महादेवी वर्मा केवल कवि ही नहीं, बल्कि एक सशक्त गद्य लेखक भी थीं। उनका गद्य लेखन विशेष रूप से उनके संस्मरण और रेखाचित्र के लिए प्रसिद्ध है। उनके गद्य में एक विशिष्ट स्त्री-चेतना दिखाई देती है, जहाँ उन्होंने न केवल अपने जीवन के अनुभवों को साझा किया, बल्कि महिलाओं की शिक्षा और स्वतंत्रता के विषय पर भी जोर दिया।

महादेवी वर्मा ने अपने जीवन में स्त्री-शिक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए और स्त्री के सामाजिक उत्थान के लिए भी योगदान दिया। उनका गद्य लेखन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे महिलाओं के अधिकारों और उनके आत्मनिर्भरता के पक्ष में सक्रिय थीं।

सम्मान और पुरस्कार
महादेवी वर्मा की काव्य रचनाएँ अत्यधिक प्रभावशाली और संवेदनशील रही हैं, और उन्हें उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले। उनकी काव्यरचनाओं के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार (1956) से सम्मानित किया गया, जो भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार है।

निष्कर्ष
महादेवी वर्मा ने छायावाद आंदोलन में एक नई दिशा दी और कविता को एक आध्यात्मिक और रहस्यवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी कविताओं में प्रकृति, प्रेम और विरह के दर्शन गहरे हैं, और उन्होंने भारतीय साहित्य में एक विशिष्ट स्थान स्थापित किया है। उनका साहित्य न केवल कविता में, बल्कि गद्य लेखन में भी समान रूप से महत्वपूर्ण रहा है। उनके योगदान को साहित्यिक समाज हमेशा याद रखेगा, और वे आधुनिक हिंदी साहित्य की एक शिखर लेखिका के रूप में हमेशा प्रतिष्ठित रहेंगी।

बुधवार, 18 नवंबर 2020

सगुण भक्ति और सगुण भक्त कवि

 सगुण भक्ति का अर्थ और महत्त्व

सगुण भक्ति का अर्थ है, "ईश्वर की उपासना उनके साकार रूप (गुणों के साथ) में करना," यानी ईश्वर के रूपों जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव, विष्णु, आदि की पूजा करना। सगुण भक्ति में ईश्वर की न केवल असीम शक्ति, बल्कि उनके व्यक्तिगत गुण और रूपों का भी महत्व है। इसके अनुसार, भगवान के रूप और गुणों की उपासना करके भक्त उनसे अपने ह्रदय की दूरी मिटाने और उनके साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

सगुण भक्त कवियों का योगदान
सगुण भक्त कवि वैष्णव थे और इनकी भक्ति का मुख्य आधार अवतारवाद था, जिसमें भगवान के विभिन्न अवतारों की पूजा की जाती थी। विशेष रूप से राम और कृष्ण के अवतारों को पूजने का चलन था। इन भक्तों ने ब्रह्म की उपासना उनके साकार रूपों में की, अर्थात उन्होंने राम, कृष्ण, और अन्य देवताओं के रूपों में ईश्वर का दर्शन और उन्हें अपना इष्ट मानकर पूजा की।

सगुण भक्ति का मुख्य उद्देश्य था ईश्वर के साथ प्रिय, सखा और दासभाव के रूप में संबंध स्थापित करना। ये भक्त स्वयं को भगवान का प्रिय (प्रेमी), सखा (मित्र) या दास (सेवक) मानते थे। इस भक्ति में प्रेम को सबसे बड़ा मानवीय मूल्य माना गया और यह प्रेम सच्चे भाव से ईश्वर की भक्ति में निहित होता था। इन कवियों ने प्रेम को मानव जीवन का सबसे पवित्र और सर्वोत्तम मूल्य माना, जो व्यक्ति को दिव्य प्रेम की ओर ले जाता है।

सगुण भक्ति के कवियों का साहित्य विशेष रूप से ब्रज और अवधी बोलियों में रचा गया। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में भगवान के जीवन, उनके चरित्र, और उनके गुप्त एवं स्पष्ट रूपों का वर्णन किया, ताकि आम जनमानस को उनका महत्व समझ में आ सके।

सगुण भक्ति के प्रमुख प्रकार
सगुण भक्ति के दो प्रमुख प्रकार माने जाते हैं:

  1. कृष्णभक्ति काव्य:
    कृष्ण भक्ति काव्य में मुख्य रूप से श्री कृष्ण के जीवन, उनके बाल्यकाल, उनके माखन चोरी, गोवर्धन धारण, रासलीला, और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित काव्य रचनाएँ होती हैं। कृष्ण भक्ति के कवि श्री कृष्ण को भगवान का परम रूप मानते थे और उन्हें सभी जीवों का उद्धारक मानते थे। इन कवियों में प्रमुख कवि सूरदास हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण के बचपन की लीलाओं को अपनी रचनाओं में अत्यधिक सुंदरता से चित्रित किया।

  2. रामभक्ति काव्य:
    राम भक्ति काव्य में श्री राम के जीवन, उनके आदर्शों, उनके द्वारा किए गए कार्यों और उनके संघर्षों का वर्णन किया जाता है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम (संपूर्ण आदर्श पुरुष) माना जाता था और उनकी पूजा में मर्यादा, सत्य, और धर्म का पालन करने की प्रेरणा दी जाती थी। रामभक्ति के प्रमुख कवियों में तुलसीदास का नाम लिया जाता है, जिन्होंने अपनी काव्यरचना रामचरित मानस के माध्यम से राम के जीवन के आदर्शों को जीवित किया।

सगुण भक्ति के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ

  1. सूरदास:
    सूरदास कृष्ण भक्ति के सबसे बड़े कवि थे। उनकी रचनाएँ विशेष रूप से श्री कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं पर आधारित हैं। "सूरसागर" उनकी प्रमुख रचना है, जिसमें उन्होंने श्री कृष्ण के बाल्यकाल की माखन चोरी, गोवर्धन पूजा, और रासलीला का अत्यधिक सुंदर वर्णन किया।

  2. तुलसीदास:
    तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की, जिसमें उन्होंने श्रीराम के जीवन के आदर्शों को सजीव रूप में प्रस्तुत किया। यह काव्यरचना हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और भारत में राम के भक्तों के लिए यह एक प्रमुख ग्रंथ है।

  3. कबीर:
    हालांकि कबीर को अधिकतर निर्गुण भक्ति का कवि माना जाता है, लेकिन उन्होंने राम और कृष्ण की उपासना भी की। कबीर का भक्ति मार्ग सत्य और प्रेम से जुड़ा था। उनकी कविताएँ जीवन के सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं।

  4. रामानंद:
    रामानंद ने राम के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम व्यक्त किया। वे तुलसीदास के समय से पूर्व राम के प्रमुख भक्त थे और उनके प्रभाव में अनेक भक्ति कवि आए। रामानंद के भक्ति मार्ग ने समाज में भक्ति की चेतना को जागरूक किया।

निष्कर्ष
सगुण भक्ति कवियों का योगदान भारतीय भक्ति साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है। इन कवियों ने भगवान के विभिन्न रूपों की उपासना करके प्रेम और भक्ति के माध्यम से जीवन के उच्चतम आदर्शों को प्रस्तुत किया। उनके काव्य साहित्य में प्रेम, भक्ति, और सत्य का संदेश आज भी लोगों के दिलों में जीवित है। सगुण भक्ति ने आम जन को ईश्वर से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम प्रदान किया, और उनके काव्य ने एक नई दिशा में धार्मिक और भक्ति साहित्य को आकार दिया।

बुधवार, 11 नवंबर 2020

कृष्ण भक्ति और सूरदास

  कृष्ण भक्ति का परिचय

कृष्ण भक्ति, सगुण भक्ति के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण धारा है, जो भगवान श्री कृष्ण की पूजा और भक्ति पर केंद्रित है। इस भक्ति के प्रवर्तक बल्लभाचार्य थे, जिन्होंने कृष्ण को परमात्मा मानकर उनकी पूजा को प्रेरित किया। बल्लभाचार्य के शिष्य और उनके पुत्र के शिष्यों ने कृष्ण भक्ति को फैलाया और इसके लिए उन्होंने अष्टछाप कवि की संज्ञा प्राप्त की। इन कवियों का मुख्य केंद्र मथुरा था, जहाँ उन्होंने कृष्ण की लीलाओं, उनके गुणों, और उनकी उपासना को प्रमुखता दी।

कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण को भगवान का प्रियतम, सखा और प्रिय माना गया है। कवियों ने कृष्ण की बाल लीलाओं, रासलीलाओं और उनकी जीवन गाथाओं का बखूबी वर्णन किया। यह काव्य शैली ब्रजभाषा में लिखी गई, जो क्षेत्रीय साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण थी।

सूरदास और उनकी कृष्ण भक्ति
सूरदास कृष्ण भक्ति के सबसे प्रसिद्ध कवि थे और उन्हें कृष्ण की भक्ति का परम भक्त माना जाता है। सूरदास का जन्म लगभग 1478 ई. के आस-पास दिल्ली के पास स्थित सीही गाँव में हुआ था। वे जन्म से अंधे थे, लेकिन उनकी रचनाएँ और भक्ति की गहराई ने उन्हें भारतीय साहित्य के महान कवियों में स्थान दिलाया। सूरदास ने अपनी अधिकांश जीवन यात्रा वृंदावन में श्री नाथ मंदिर के पास बिताई। उनकी भक्ति का मार्ग श्री कृष्ण के प्रति सखा भाव था, अर्थात उन्होंने कृष्ण को अपना मित्र मानकर भक्ति की।

सूरदास के गुरु का नाम बल्लभाचार्य था, जिनसे उन्होंने कृष्ण भक्ति की शिक्षा ली। सूरदास की रचनाओं का संकलन मुख्य रूप से गेय मुक्तक काव्य में किया गया, जिनमें उन्होंने कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं का वर्णन किया। सूरदास ने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखीं, जिससे उनकी रचनाएँ जनता के बीच लोकप्रिय हो सकीं।

सूरदास की रचनाओं में कृष्ण की बाल लीलाओं का अद्भुत चित्रण किया गया। उन्होंने कृष्ण को सखा रूप में पूजा और उनकी क्रियाओं में अनंत प्रेम और भक्ति की भावना व्यक्त की। उनके काव्य में राधा और कृष्ण के प्रेम को भी अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, और इसे भारतीय भक्ति साहित्य में एक प्रमुख विषय माना गया।

सूरदास की प्रमुख रचनाएँ
सूरदास की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘सूरसागर’ है। यह काव्य कृष्ण भक्ति का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं, माखन चोरी, गोवर्धन पूजा, रासलीला और कृष्ण के प्रेम में डूबे भक्तों के आस्थाएँ और भावनाएँ व्यक्त की हैं। इ में कृष्ण के प्रेम, सखा रूप, और राधा के साथ उनके अद्वितीय संबंधों का सजीव चित्रण किया गया है।

सूरदास की कविता की विशेषताएँ
सूरदास की कविता की कई विशेषताएँ हैं, जो उन्हें अन्य भक्ति कवियों से अलग करती हैं:

  1. सख्य-भाव की भक्ति:
    सूरदास की भक्ति का सबसे प्रमुख भाव था सख्य-भाव, जिसमें कृष्ण को भगवान से अधिक एक मित्र के रूप में पूजा गया। सूरदास ने कृष्ण से अपनी मित्रता के भाव में गहरी भक्ति व्यक्त की, जो उनके काव्य का केंद्रीय विषय बना।

  2. कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन:
    सूरदास ने विशेष रूप से कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया है, जैसे कि माखन चोरी, गोवर्धन पर्वत उठाना, और रासलीला। इन लीलाओं के माध्यम से सूरदास ने कृष्ण के दिव्य रूप और उनकी मनमोहक हरकतों का सुंदर चित्रण किया।

  3. राधा-कृष्ण का प्रेम:
    सूरदास ने राधा और कृष्ण के प्रेम को अत्यधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि राधा और कृष्ण का प्रेम अविनाशी और परम प्रेम है, जो संसार के सभी प्रेमों से श्रेष्ठ है। उनके काव्य में राधा और कृष्ण के बीच के अद्वितीय और दिव्य प्रेम का सजीव वर्णन मिलता है।

निष्कर्ष
सूरदास और कृष्ण भक्ति काव्य ने भारतीय भक्ति साहित्य को एक नई दिशा दी। सूरदास ने कृष्ण को न केवल भगवान बल्कि अपने सखा के रूप में पूजा और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को काव्य के रूप में प्रस्तुत किया। सूरदास का काव्य न केवल कृष्ण भक्ति के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है, बल्कि इसमें प्रेम, भक्ति और अद्वितीय रूप से मानव भावनाओं की गहराई का भी चित्रण मिलता है। उनके काव्य की लोकप्रियता आज भी बनी हुई है और वे भारतीय साहित्य के महान कवि के रूप में सम्मानित हैं।

रविवार, 1 नवंबर 2020

प्रयोगवादी कविता

सप्तक और प्रयोगवाद:

सप्तक का संदर्भ उस महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन से है जिसे हिंदी कविता में प्रयोगवाद के रूप में जाना जाता है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ (1943) को हिंदी कविता में प्रयोगवाद की शुरुआत के रूप में माना जाता है। ‘तारसप्तक’ में सात प्रमुख कवियों की कविताओं को शामिल किया गया था, जो हिंदी कविता की एक नई दिशा की ओर इशारा कर रहे थे। ये कवि पुराने शिल्प, प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए, नई भाषा, शिल्प और विचारधारा की खोज में थे।

प्रयोगवाद की विशेषताएँ:

प्रयोगवाद का जन्म पुराने काव्य शिल्प और काव्यात्मक सिद्धांतों से असंतोष और विद्रोह के परिणामस्वरूप हुआ था। इस साहित्यिक आंदोलन ने कविता की पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी और एक नई तरह की कविता की रचना की।

प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ:

  1. आधुनिकतावाद का प्रभाव: प्रयोगवादी कविता पर यूरोपीय आधुनिकतावाद का गहरा प्रभाव था। यह आंदोलन पारंपरिक और रूढ़िवादी काव्यशास्त्र से अलग, आधुनिकता और व्यक्तित्व के महत्व को मान्यता देता था।

  2. व्यक्तिवाद: प्रयोगवाद के तहत कविता में व्यक्तिगत जीवन और अस्तित्व की जटिलताओं को प्राथमिकता दी गई। यह कविता एक तरह से व्यक्तिगत अनुभवों और अस्तित्व की पहचान को व्यक्त करती है।

  3. बुद्धि का महत्त्व: भावना की जगह बुद्धि को अहमियत दी गई। यह कविता विचारप्रधान और तर्कपूर्ण होती थी, जिसमें संवेदनाओं और व्यक्तित्व के बजाय तर्क और दार्शनिक विचारों का प्रवाह अधिक होता था।

  4. मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण: प्रयोगवादी कविता में विशेष रूप से मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं और संघर्षों को प्रस्तुत किया गया।

  5. संदेह और अनास्था: द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव के कारण कविता में संदेह, अनास्था और अनिश्चितता की भावना देखने को मिलती है।

  6. नए प्रतीक और उपमान: प्रयोगवादी कवियों ने पुराने प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए नए प्रतीक, उपमान और भाषा का प्रयोग किया। इससे कविता में नवीनता और ताजगी आई।

  7. भाषा-शैली की विविधता: प्रयोगवादी कवि कविता की भाषा में विविधता पर जोर देते थे। वे मानते थे कि कविता की भाषा-शैली में एकरूपता को रूढ़िवादिता माना जाता है, और इसका विरोध करते थे।

प्रयोगवाद के तीन मुख्य पहलू:

  1. व्यक्ति को महत्त्व: प्रयोगवादी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी पहचान को महत्व दिया गया। जैसे अज्ञेय की कविता "यह दीप अकेला स्नेह भरा..." में व्यक्तित्व और अस्तित्व के संघर्ष को प्रमुखता दी जाती है। इसमें व्यक्तिगत जीवन, विचार और भावनाओं को व्यक्त किया गया है।

  2. प्रयोगशीलता: प्रयोगवादी कवियों ने कविता के पुराने पैटर्न और शिल्प को अस्वीकार कर दिया और शिल्प, भाषा, प्रतीक, उपमान आदि में नए प्रयोग किए। उदाहरण के लिए, गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नेमिचंद्र जैन, और अज्ञेय जैसे कवियों ने कविता की परंपराओं को चुनौती दी और नए विचार, शिल्प और प्रतीकों का निर्माण किया।

  3. विविधता: प्रयोगवादी कविता में शिल्प और भाषा की विविधता होती थी। एक कवि की अलग-अलग कविताओं में भाषा और शिल्प के रूप में भिन्नता दिखाई देती थी। यही वजह थी कि प्रयोगवादी कविता एक निश्चित पैटर्न में नहीं बँधी थी, बल्कि यह विविधतापूर्ण होती थी।

सप्तक का महत्व:

तारसप्तक’ और बाद में ‘दूसरा सप्तक’ ने हिंदी कविता को एक नई दिशा दी। इन संकलनों में कविता की नयी शैलियों और प्रयोगों की झलक मिलती है। तारसप्तक के कवि नए विचारधाराओं और साहित्यिक प्रयोगों के साथ कविता की पुरानी सीमाओं को तोड़ने में लगे थे। यह कविता का एक व्यक्तिवादी रूप था, जिसमें कवि अपनी निजी भावनाओं, अस्तित्व के संकटों और सामाजिक सन्दर्भों पर अपनी दृष्टि रखते थे।

निष्कर्ष:

प्रयोगवाद एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन था जिसने हिंदी कविता में नये विचारों और शिल्प को जन्म दिया। यह कविता में नवीनता, व्यक्तिवाद और शिल्पगत प्रयोग का प्रतीक बनकर उभरी। सप्तक ने हिंदी कविता में एक नई ताजगी और दिशा लाई और यह कविता की परंपराओं को चुनौती देते हुए कविता को एक व्यक्तिगत और बौद्धिक मंच प्रदान किया।