शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

विद्यापति के पद

  






विद्यपति परिचय : 

  • जन्म : 1352 ई.
  •  मृत्यु  :1448 ई.
  • आश्रय दता राजा: कीर्ति सिंह और शिव सिंह (तिरहुत के राजा थे)
  •  रचनाएं :
  • विद्यापति पदावली ( मैथिली )
  • कीर्ति लता कीर्ति पताका (अपभ्रंश)
  • पुरुष परीक्षा (संस्कृत)
  • उपनाम:  मैथिल कोकिल अभिनव जयदेव
  • भाषा : मैथिली

पद ; 1

के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुःख रे भेल साओन मास्।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुःख दारुन रे जग के पतिआए।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥

शब्दादार्थ 

पतिया: पत्र
जाएत: जाता 
पीतम: प्रिय/प्रेमी
भेल: हुआ 
साओन: सावन
एकसरि : अकेले 
रहलो: रहना 
अनकर: दूसरे का 
दारुण: भयानक पतियाय: विश्वास करना 
मोर: मेरा
हरि: कृष्ण 
हर: चुराना 
गेल: गया
तेजि : छोड़ना 
मधुपुर: मथुरा 
कन: क्यों 
अपजस : अपयश 
गाओल : गाना (क्रिया)
धनि: स्त्री 
धरु: धारण करना
धीर: धैर्य 

संदर्भ

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के 'विद्यापति' शीर्षक पाठ से अवतरित और विद्यापति पदावली में संकलित है इसके रचयिता ‘अभिनव जयदेव’ और 'मैथिली कोकिल' की उपाधि प्राप्त भक्ति और शृंगार के शीर्षस्थ मध्यकालीन कवि विद्यापति की रचना 'विद्यापति पदावली' में संकलित हैl 

प्रसंग:

उद्धृत पंक्तियों में विद्यापति ने राधा के वियोग का चित्रण करते हुए उनके प्रेम की मनोदशा को बड़े मार्मिक ढंग से उकेरा है l

व्याख्या: 

कृष्ण के मथुरा जाने के बाद राधा अपनी विरह व्यथा का वर्णन करते हुए अपनी सखी से कहती है हे सखी कृष्ण को गए हुए बहुत दिन बीत गएl उनकी अनुपस्थिति में अकेलेपन के कारण यह भवन मेरे रहने योग्य नहीं रह गया है l मुझसे इस भवन में अकेले रहा नहीं जाताl  विरह के कारण मेरी जो स्थिति है, वह मैं किसी से का भी नहीं सकती क्योंकि उसका अनुमान कोई दूसरा नहीं लग सकता l दुनिया में दूसरे के दुःख की भयानकता को कोई अन्य व्यक्ति नहीं समझ सकता l ऐसे में मैं किसके हाथ से अपना संदेश भेजूं जो मेरी स्थिति का ठीक ठीक वर्णन कर सके? कौन मेरे प्रीतम के पास मेरा पत्र लेकर जाएगा ?  मेरा दुख अत्यंत असह्य है मेरा हृदय इसे सहन नहीं कर पा रहा है l इसे यह सावन का महीना और अधिक बढ़ा रहा हैl वे अपनी सखी से कहती हैं कि हे सखी ! मेरा मन कृष्णा हर कर (चुरा कर) अपने साथ मथुरा लेकर चले गए और मेरा मन भी मेरे वश में नहीं हैl वह उनके साथ-साथ चला गया और उसने मुझे समाज की दृष्टि में मेरे अन्य अन्यमनस्का होने का अपयश दे दिया l कवि विद्यापति कहते हैं कि हे धन्ये! अपने मन में उम्मीद रखो तुम्हारे मन भावन कृष्ण इसी कार्तिक महीने में लौट आएँगे l तुम दुखी और निराश मत होl  

 

काव्य सौंदर्य 

  •  छंद: पद 
  • रस: वियोग शृंगार 
  • अलंकार:  पतिया और पतियाय में यमक अलंकार, मोर मन और हरि हर में अनुप्रास अलंकारl
  • भाषा: मैथिली

 विशेष: 

  1. इन पंक्तियों में विद्यापति ने राधा के विरह व्यथा का मार्मिक चित्रण किया हैl
  2. इन पंक्तियों की नायिका प्रोषित पतिका है l

साम्य: 

  1. सखि 'अनकर दुख दारू न रे जग के पतियायके समान अभिव्यक्ति हमें घनानंद की इन पंक्तियों में मिलती है कि
    'ब्याउर के उर की पर पीर को बाँझ समाज में जानत को है ?' 
  2. नरसी मेहता ने इस पर पीर को जानने वाले को ही सच्चा वैष्णव कहा है '
    वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाने री l

पद-2 

सखि हे कि पुछसि अनुभव मोए।

सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए। 

जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।            

सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।               

कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।   

लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।

कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।

विद्यापति कह प्रान जुड़इते लाखे न मीलल एक।।

शब्दार्थ:   

पूछेसि: पूछती हो 
 मोर : मेरा  
सेह: वह 
पिरिति : प्रीत/प्रेम 
अनुराग: स्नेह
बखानिय: वर्णन करना
तिल तिल: पल पल 
नूतन: नया 
अबधि: काल या समय 
निहारल: निहारना/ देखना 
भेल: हुआ 
सेहो : वही 
स्रवनहि : कानों से
सूनल: सुना 
स्रुति: श्रुति/ कान
परस : स्पर्श 
गेल: गया 
जुग: युग 
हिय: हृदय
राखल: रखा था 
तइओ: फिर भी
जरनि: जलन 
अनुमोदय: अनुमोदन करना/प्रतिपादित करना 
पेखल : प्रेक्षण करना / देखना  जुड़इते: ठंडक 
मीलल: मिलना 
लाखे : लाखों मे

संदर्भ: 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के विद्यापति शीर्षक पाठ से और विद्यापति पदावली में संकलित हैl इसके रचयिता भक्ति और श्रृंगार के अपूर्ण मध्यकालीन कवि अभिनव जयदेव और मैथिल कोकिल विद्यापति हैं l

प्रसंग: 

व्याख्येय पंक्तियों में कवि ने राधा के माध्यम  सच्चेे प्रेम के वास्तविक रूप का चित्रण किया है l

व्याख्या: 

इन पंक्तियों में राधा अपनी सखी से अपनी प्रेम दशा का वर्णन करते हुए कहती हैं यह सखी तुम मेरे प्रेम का मर्म क्या पूछती हो उसे प्रेम के निहित स्नेह का मैं क्या वर्णन करूं जो प्रतिपल मुझे नया-नया लगता है ? जन्म से ही अर्थात बचपन से ही मैं निरंतर कृष्ण के रूप का दर्शन करती रही, किंतु मेरे नेत्र कभी भी तृप्ति का अनुभव नहीं करते हमेशा उनके दर्शन के लिए प्यासे रहते हैं l मैं सदैव उनके मधुर वचनों को सुनती रही हूं, किंतु मेरे कानों को ऐसा महसूस होता है कि अभी तक उनके शब्दों का मेरे सूती पाठ से स्पर्श ही नहीं हुआ अर्थात अभी भी वे कृष्ण के मधुर शब्दों को सुनने के लिए आकुल रहते हैं l कितनी ही रातों में हमने प्रेम क्रीडा की है, किंतु अभी भी मुझे यह नहीं पता है कि प्रेम की कीड़ा का अनुभव वास्तव में कैसा होता है? लाखों- लाखों युगों से मैं अपने हृदय स्वरूप कृष्ण को अपने हृदय में बसाए हुए हूँ फिर भी मेरे हृदय में अभी में विरह की जलन शांत नहीं हुई l ऐसे में प्रेम का वर्णन सहज नहीं है l इसलिए मुझे यह लगता है कि जिन विद्वानों ने प्रेम के रस अर्थात श्रृंगार रस का वर्णन किया है, उन्होंने वास्तव में प्रेम का अनुभव ही नहीं किया क्योंकि वास्तविक प्रेम का अनुभव करने वाला व्यक्ति उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता l 

अलंकार : 

रस : वियोग श्रृंगार 

छंद: पद 

अलंकार: 

 ‘लाख-लाख’ और ‘तिल-तिल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
' हिय हिय राखल' में प्रथम हिय का अर्थ हृदय है और दूसरे ही का तात्पर्य कृष्ण से है इसलिए यमक अलंकार 
 'स्रवनहिं सूनल स्रुति' में अनुप्रास अलंकारl 

भाषा: मैथिली

विशेष/साम्य : 

  • इन पंक्तियों में विद्यापति ने प्रेम की अनिर्वचनीयता का वर्णन किया है l
  • भक्त कवि सूरदास ने भक्ति के अनुभव को इसी तरह से अनिर्वचनीय कहा है ' अवगति-गति कछु कहत न आवै।ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै।’ 
  •  तुलसी दास ने भी  राम के प्रति कौशल्या के प्रेम के संबंध में विद्वानों द्वारा वर्णित प्रेम को सीखा हुआ कहा है: कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी। तुलसिदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥
  • विद्यापति ने जिस तरह नित नूतन प्रेम की बात की है वैसे संस्कृत साहित्य म भोज ने ‘सौंदर्य संबंध में लिखा है ‘क्षणे क्षणे यन्नवतमूपैति तदैव रूपम् रमनीयतायां’|’ 


 पद-3 

कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूँदि रहल दु नयान।
कोकिल-कलरख, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपड कान।।
माधय, सुन-सुन बचन हमारा। 
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूषरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा ॥
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल-धारा ॥
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन-
चौदसि-चाँंद समान।
भनई विद्यापति सिवसिंह नर-पति
लिखिमादेइ-रमान ॥

शब्दार्थ : 

  1. कुसुमित : खिला हुआ
  2. कानन : वन
  3. हेरि : खोजना / देखना
  4. कमलमुखि : कमल के समन मुख वाली मूँदि : बंद करन 
  5. नयान : नेत्र कोकिल : कोयल
  6. कलरव : पक्शियों की ध्वनि
  7.  मधुकर : भौंरा
  8. धुनि : ध्वनि/लय
  9. झाँपई : बंद करना
  10. माधव : कृष्ण
  11. तुअ : तुम
  12. चौदिस : चरों दिशओं में 
  13. गरए : निचडना/बहना
  14. तोहर : तुम्हारा
  15. बिरह  : प्रिय के दूर जाने से होने वाला दुःख
  16. तनु – क्षीण/कमजोर चौदसि- हतुरदशी(कृष्ण पक्ष) 
  17.  समान। (समान) भनई – भणिति/कहना
  18. तहि : वह
  19. पारा : पार पाना/सकना कातर : विवश/ असहाय
  20. दिठि : दृष्टि
  21. गुन : गुण
  22. भेल :हुआ
  23.  दूषरि : दुबली गुनि-गुनि : सोच सोच कर धरनी : धरती 
  24. कत : कितनी 
  25.  बेरि : बार 
  26.  बइसइ : बैठना
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने: बसंत ऋतु के आगमन और प्रकृति में होने वाले बदलावों के विरहाकुला राधा के व्यक्तित्व पर पडने वाले प्रभवों का मार्मिक चित्रण किया है ।

व्याख्या : 


कवि ने इन पंक्तियों में राधा की विरह-आकुलता और प्रकृति की उसमें उद्दीपक रूप की भूमिका का वर्णन किया है। कृष्ण के मथुरा गमन के बाद बसंत ऋतु आगमन पर राधा फूलों से लदे हुए वन को देखकर अपनी आँखें बंद कर लेती हैं। कोयल की मधुर ध्वनि और भौँरें का मधुर गुँजार उन्हें असह्य लगता है। इसलिए इन्हें  सुनकर वे अपने दोनों कान अपने दोनों हाथों से ढंक लेती हैं। कृश्ण की अनुपस्थिति में बसंत के आगमन के कारण राधा को बसंत ऋतु उनके साथ बिताये हुए पल और अधिक व्याकुल कर रहे हैं। विद्यापति कहते हैं कि हे कृष्ण मेरे वचनों को सुनो।  मैं राधा के बारे में आपको जो कुछ बता रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो।  तुम्हारे गुणों को याद करके  और तुम्हरे बारे में सोच-सोच कर वह सुंदरी अत्यंत दुबली हो गई है।  वह इतनी कमजोर हो गई है कि उससे खडा नहीं हुआ जाता।  कितनी ही बार वह  धरती को पकड़कर बैठ जाती है और फिर उसके लिए उठना संभव नहीं होता । वह असहाय दृष्टि से चारों तरफ तुम्हें खोज-खोज कर ऐसे रोने लगती है, मानो उसके नेत्रों से जल निचुड आया है ।  तुम्हारे विरह के कारण प्रतिदिन प्रतिक्षण क्षीण होते होते वह इतनी कमजोर हो गई है, जैसे वह कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की चंद्रमा हो। विद्यापति राजा शिवसिंह और रानी लखिमा देवी को संबोधित करते हुए उनकी मंगल कामना करते हैं और कहते हैं कि राधा क्ष्ण का प्रेम भी इन दोनों की तरह ही है। ये दोनों भी हमेशा उसी तरह रमण करें जैसे राधा कृष्ण मिलन की स्ठिति में करतें हैं । 

विशेष : 


रस: शृंगार रस
छंद : पद
अलंकार : 
‘कुसुमित कानन हेरी कमलमुखी’ ‘कोकिल कलरव’ ‘मधुकर धुनि सुनी’ ‘धरनी धरि धनी’ में अनुप्रास अलंकार 
‘सुन-सुन’, ‘गुन-गुनी’, ‘हेरि-हेरि’ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
 भाषा: मैथिलि 
विशेष : 
प्रकृति का उद्दिपन रूप मं वर्णन
राधा के विरह की मार्मिक व्यंजना 

















कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें