लागेउ माँह परै अब पाला। बिरह काल भएड जड़काला।पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँँ।।
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।
एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।
नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।
टूटहिं बुंद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारैं झोला।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल॥
यह एक अवधी भाषा में लिखी गई सुंदर कविता है, जिसमें विरह की पीड़ा और जाड़े (सर्दी) के मौसम का गहरा और भावपूर्ण वर्णन किया गया है। इसमें विरहिन स्त्री अपने प्रियतम के बिना अपनी दशा को प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त कर रही है। आइए इसे थोड़ा विश्लेषण करें:
प्रमुख भाव:
विरह की पीड़ा:
- "लागेउ माँह परै अब पाला। बिरह काल भएड जड़काला।"
यहाँ पाला (ठंड) और विरह को समान रूप में रखा गया है, जो शरीर और मन दोनों को जकड़ रहा है।
- "लागेउ माँह परै अब पाला। बिरह काल भएड जड़काला।"
शारीरिक और मानसिक अवस्था:
- "पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँँ।"
पहले शरीर को रुई से ढकने पर राहत मिलती थी, लेकिन अब यह ठंड (विरह) बढ़कर हृदय तक पहुँच गई है।
- "पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँँ।"
प्रकृति और प्रेम का संबंध:
- "आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।"
केवल सूर्य के तपने (प्रेमी के आने) से ही इस ठंड से राहत संभव है।
- "आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।"
रस और सौंदर्य का क्षय:
- "एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।"
प्रेमी के बिना जीवन के रस (प्रेम) का ह्रास हो गया है।
- "एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।"
आंसुओं और प्रकृति का चित्रण:
- "नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।"
आँसुओं को ठंडे पानी की बूँदों के समान बताया गया है, जो और भी अधिक सर्दी का अहसास करा रही हैं।
- "नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।"
कविता का संदेश:
यह कविता विरहिन के अंतर्मन की गहराई को बड़ी कोमलता और सजीवता के साथ दर्शाती है। प्रियतम के बिना हर सुख-दुख व्यर्थ लगता है और जीवन केवल शून्य रह जाता है।
व्याख्या :
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