सोमवार, 14 अप्रैल 2025

अरुण यह मधुमय देश हमारा : जयशंकर प्रसाद


 परिचय : "अरुण यह मधुमय देश हमारा" कविता जयशंकर प्रसाद की है, जो छायावाद के प्रमुख स्तंभों में से एक थे।


यह कविता भारतीय प्राकृतिक सौंदर्य, सांस्कृतिक गौरव और देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है। इसमें कल्पनाशीलता, कोमल भावनाएँ और प्रकृति का सौंदर्य, सब कुछ एक साथ मिलता है—जो जयशंकर प्रसाद की शैली की खास पहचान है। 

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।


सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।


लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।


बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।


हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।


बच्चे काम पर जा रहे हैं : राजेश जोशी

परिचय : राजेश जोशी हमारे समाज की एक गहरी विडंबना और चिंता को उजागर करते हैं। बच्चों का कोहरे से ढकी सड़क पर सुबह-सुबह काम पर जाना, न केवल उनके अधिकारों का हनन है, बल्कि हमारी सामूहिक असफलता का प्रतिबिंब भी है। •यह पंक्तियाँ केवल एक स्थिति का वर्णन नहीं करतीं, बल्कि हमें झकझोरती हैं कि क्यों…

कविता 

कुहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं

सुबह-सुबह


बच्चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह


भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना

लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह


काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?

क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें


क्या दीमकों ने खा लिया है

सारी रंग-बिरंगी किताबों को


क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने

क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं


सारे मदरसों की इमारतें

क्या सारे मैदान, सारे बग़ीचे और घरों के आँगन


ख़त्म हो गए हैं एकाएक

तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?


कितना भयानक होता अगर ऐसा होता

भयानक है लेकिन इससे भी ज़्यादा यह


कि हैं सारी चीज़ें हस्बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए


बच्चे, बहुत छोटे 

छोटे बच्चे

काम पर जा रहे हैं।


संदेश

हमारे समाज की एक गहरी विडंबना और चिंता को उजागर करते हैं। बच्चों का कोहरे से ढकी सड़क पर सुबह-सुबह काम पर जाना, न केवल उनके अधिकारों का हनन है, बल्कि हमारी सामूहिक असफलता का प्रतिबिंब भी है।


•यह पंक्तियाँ केवल एक स्थिति का वर्णन नहीं करतीं, बल्कि हमें झकझोरती हैं कि क्यों वे बच्चे, जो स्कूलों में पढ़ने और खेलने-कूदने के अधिकार के साथ जन्म लेते हैं, जीवन की कठोर वास्तविकताओं में झोंक दिए जाते हैं। यह एक प्रश्न उठाती हैं –


काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?


•क्या गरीबी इतनी गहरी है कि उनके माता-पिता को उन्हें बचपन से ही रोज़गार में झोंकना पड़ता है?


•क्या शिक्षा प्रणाली और सामाजिक सुरक्षा तंत्र पर्याप्त नहीं है कि वह इन्हें बचा सके?


•या फिर हम सब, एक समाज के रूप में, अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं?


•इस तरह की रचनाएँ हमें न केवल सोचने पर मजबूर करती हैं, बल्कि बदलाव के लिए प्रेरित भी करती हैं। यह प्रश्न जितना सरल लगता है, उतना ही हमारी व्यवस्था के जटिल और दोषपूर्ण ताने-बाने की ओर इशारा करता है। इसे सवाल के रूप में बार-बार उठाना जरूरी है ताकि समाधान की ओर बढ़ा जा सके।