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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

नयी कविता

नयी कविता का जन्म प्रयोगवादी कविता से हुआ, और इस आंदोलन में अज्ञेय का प्रमुख योगदान रहा। अज्ञेय ने स्वयं 'नयी कविता' पद का प्रयोग किया था और इसे प्रयोगवाद से अलग बताया था। उनका मानना था कि तारसप्तक के कवि ही 'नये कवि' हैं, जिनके माध्यम से नयी कविता का प्रसार हुआ।

1951 और 1959 में प्रकाशित सप्तक और तारसप्तक में काव्य रचनाओं ने नयी कविता के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इसके विकास में डॉ. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'नयी कविता' पत्रिका का प्रकाशन एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसे 1954 में शुरू किया गया। इस पत्रिका के प्रकाशन को नयी कविता आंदोलन की शुरुआत माना जाता है। इसके अलावा, अज्ञेय द्वारा संपादित 'प्रतीक' पत्रिका का भी नयी कविता के विकास में अहम योगदान था।

नयी कविता में कवियों का दृष्टिकोण बहु-आयामी था। इसमें प्रगतिशील और प्रयोगशील दोनों धाराओं का समावेश हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती आदि ने अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से इसे और आगे बढ़ाया।

नयी कविता की कुछ मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  1. वाद-मुक्त कविता: नयी कविता किसी विशेष वाद या विचारधारा से बंधी नहीं है।
  2. अनिश्चितता और संशय की प्रवृत्ति: यह कविता दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की सामाजिक और मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब है।
  3. मानव की लघुता: इसमें मानव को छोटे और व्यक्तिगत रूप में दर्शाया गया है, न कि विराट् या आदर्श रूप में।
  4. व्यक्तिवाद और समाज की टकराहट: यहाँ व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति देखने को मिलती है, साथ ही व्यक्ति और समाज के बीच संघर्ष भी दिखाई देता है।
  5. नये विम्ब और प्रतीक: कवियों ने नये प्रकार के विम्बों और प्रतीकों का प्रयोग किया है, जो उनके दृष्टिकोण को और अधिक स्पष्ट करते हैं।

इस तरह, नयी कविता का विकास प्रयोगवादी और प्रगतिवादी काव्य धारा के मिश्रण के रूप में हुआ और इसने भारतीय कविता को एक नयी दिशा दी।

प्रगतिशील कविता: एक साहित्यिक धारा

प्रगतिशील कविता: एक साहित्यिक धारा

प्रस्तावना

‘प्रगतिशील कविता’ एक विशेष विचारधारा और उद्देश्य से प्रेरित कविता है, जो समाज और जीवन के सुधार की दिशा में काम करती है। इस कविता का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों की आवाज़ को मुखरित करना और पुरानी रूढ़ियों तथा समाज की असमानताओं के खिलाफ संघर्ष करना है। प्रगतिशील कविता का उद्भव मार्क्सवाद के प्रभाव से हुआ, और इसने भारतीय साहित्य में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। प्रगतिशील कविता की शुरुआत 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ हुई, जब लेखकों और कवियों ने मिलकर सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की दिशा में लेखन को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने का संकल्प लिया। इस लेख में हम प्रगतिशील कविता के महत्व, इसके विशेषताएँ और प्रमुख कवियों पर चर्चा करेंगे।

प्रगतिशील कविता का उद्भव

‘प्रगति’ का अर्थ है आगे बढ़ना और ‘वाद’ का अर्थ है सिद्धांत या विचारधारा। प्रगतिशीलता का मतलब है विकास की दिशा में चलने का सिद्धांत। साहित्य का उद्देश्य न केवल कला और सौंदर्य को प्रस्तुत करना होता है, बल्कि समाज की वास्तविकताओं को भी उभारना होता है। प्रगतिशील कविता का उद्देश्य एक बेहतर और समान समाज की स्थापना था। इसके लिए मुख्य रूप से मार्क्सवाद का दृष्टिकोण अपनाया गया। यह कविता श्रमिक वर्ग, किसान, गरीब और उत्पीड़ित वर्ग के अधिकारों की बात करती थी और उनके हक में आवाज़ उठाती थी।

1935 में लंदन में इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना हुई थी, और 10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य साहित्य के माध्यम से समाज में बदलाव लाना था। इस संघ के गठन के साथ ही प्रगतिशील कविता का प्रवृत्तियों और दृष्टिकोणों का विकास हुआ। इसके पहले अध्यक्ष प्रेमचंद थे, जिनका साहित्य में बड़ा योगदान था। बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर, जवाहरलाल नेहरू और श्रीपाद डांगे जैसे लोग भी इसके अध्यक्ष बने।

प्रगतिशील कविता की विशेषताएँ

  1. प्रगतिशील जीवन मूल्य: प्रगतिशील कविता पुरानी रूढ़ियों और सामाजिक असमानताओं को नकारती है और नए, प्रगतिशील जीवन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास करती है। यह कविता समाज की विकृतियों के खिलाफ है और समाज के गरीब, मजदूर और किसानों के पक्ष में खड़ी होती है।

  2. यथार्थवाद: प्रगतिशील कविता में कल्पना की बजाय यथार्थ को प्रमुख स्थान मिला। यह कविता समाज के वास्तविक समस्याओं और संघर्षों पर आधारित होती है। इसमें समाज की वास्तविकता, जैसे गरीबी, बेरोज़गारी, असमानता, और शोषण पर ध्यान दिया जाता है।

  3. किसानों और मजदूरों का चित्रण: प्रगतिशील कविता में किसानों और मजदूरों की स्थितियों को उजागर किया गया। इन वर्गों के संघर्ष और उनके जीवन की कठिनाइयाँ कविता का केंद्र बनती हैं। यह कविता उनके अधिकारों और उनके बेहतर भविष्य की बात करती है।

  4. पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष: प्रगतिशील कविता में पूंजीवाद और सामंतवाद का विरोध किया गया। इस कविता में यह बताया गया कि कैसे यह दोनों विचारधाराएँ समाज में असमानता, शोषण और अन्याय का कारण बनती हैं।

  5. गरीबों और निम्नवर्गीय लोगों के अधिकार: प्रगतिशील कविता का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर और शोषित वर्गों के हित की रक्षा करना है। यह कविता इन वर्गों की स्थिति को व्यक्त करती है और उनके अधिकारों की मांग करती है।

  6. सहज और सच्चे सौंदर्य की कविताएँ: इस कविता में मानवता के सौंदर्य को चित्रित किया गया है, जैसे छोटे बच्चों की मुस्कान, दाम्पत्य जीवन की सुंदरता, और किसानों एवं मजदूरों के काम की सुंदरता। यह जीवन के सहज और प्राकृतिक सौंदर्य को स्वीकार करती है।

  7. व्यंग्य और आलोचना: प्रगतिशील कविता में वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य और आलोचना की जाती है। इसमें समाज की असमानताओं, शोषण और भ्रष्टाचार का खुलकर विरोध किया जाता है।

  8. प्रकृति का चित्रण: प्रगतिशील कविता में प्रकृति की सहज सुंदरता का चित्रण किया गया है। इसमें छायावादी कविता की तरह कल्पना की अधिकता नहीं है, बल्कि यह प्रकृति के वास्तविक रूप को दर्शाती है।

  9. सामाजिक प्रेम: प्रगतिशील कविता में प्रेम को सामाजिक रूप में देखा गया है। यहाँ प्रेम एकांतिक न होकर सामूहिक है, जो समाज के लोगों के बीच सहानुभूति और सहयोग को बढ़ावा देता है।

  10. समाजवादी देशों का समर्थन: प्रगतिशील कविता समाजवादी देशों के विचारों का समर्थन करती है और इन देशों की नीतियों को सही ठहराती है। यह कविता समाजवाद और साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में खड़ी होती है।

प्रमुख कवि

प्रगतिशील कविता के प्रमुख कवियों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, गजानन माधव मुक्तिबोध, शिवमंगल सिंह सुमन आदि शामिल हैं। इन कवियों ने अपने साहित्यिक कार्यों के माध्यम से प्रगतिशील विचारधारा को फैलाया और समाज में सकारात्मक बदलाव की दिशा में काम किया।

  • नागार्जुन: नागार्जुन को प्रगतिशील कविता का प्रमुख कवि माना जाता है। उनकी कविताएँ सीधे समाज की समस्याओं और संघर्षों से जुड़ी होती थीं। उन्होंने अपनी कविताओं में मजदूरों, किसानों और सामान्य जनजीवन के बारे में लिखा और समाज में बदलाव की आवश्यकता को उजागर किया।

  • केदारनाथ अग्रवाल: केदारनाथ अग्रवाल का काव्य जीवन के यथार्थ को दर्शाता है। उनकी कविताओं में गहरे समाजिक मुद्दों का चित्रण होता है। वे एक ऐसी कविता रचनाकार थे जो मनुष्य के संघर्ष और उसकी नफरत, प्यार, और शोषण के बारे में लिखते थे।

  • त्रिलोचन: त्रिलोचन की कविताएँ जीवन के प्रतिकूलताओं और समस्याओं को बारीकी से चित्रित करती थीं। वे यथार्थवादी दृष्टिकोण से समाज की कठिनाइयों को उजागर करते थे।

  • गजानन माधव मुक्तिबोध: मुक्तिबोध की कविता में अस्तित्ववाद और मानवता के सवाल प्रमुख थे। उनकी कविता समाज की असमानताओं और व्यक्तित्व की समस्याओं का गहन विश्लेषण करती थी।

  • शिवमंगल सिंह सुमन: शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएँ समाज की सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं के खिलाफ थीं। उनका काव्य जनवादी दृष्टिकोण को प्रकट करता है।

निष्कर्ष

प्रगतिशील कविता भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण धारा रही है, जिसने समाज के वंचित वर्गों, उनकी समस्याओं, और उनके अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया। इस कविता ने मार्क्सवादी विचारधारा को अपने साहित्य का आधार बनाया और समाज के भीतर बदलाव की आवश्यकता को व्यक्त किया। प्रगतिशील कविता के कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के असमानताओं, शोषण, और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई और भारतीय साहित्य में एक नई दिशा दी।

बुधवार, 18 नवंबर 2020

सगुण भक्ति और सगुण भक्त कवि

 सगुण भक्ति का अर्थ और महत्त्व

सगुण भक्ति का अर्थ है, "ईश्वर की उपासना उनके साकार रूप (गुणों के साथ) में करना," यानी ईश्वर के रूपों जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव, विष्णु, आदि की पूजा करना। सगुण भक्ति में ईश्वर की न केवल असीम शक्ति, बल्कि उनके व्यक्तिगत गुण और रूपों का भी महत्व है। इसके अनुसार, भगवान के रूप और गुणों की उपासना करके भक्त उनसे अपने ह्रदय की दूरी मिटाने और उनके साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

सगुण भक्त कवियों का योगदान
सगुण भक्त कवि वैष्णव थे और इनकी भक्ति का मुख्य आधार अवतारवाद था, जिसमें भगवान के विभिन्न अवतारों की पूजा की जाती थी। विशेष रूप से राम और कृष्ण के अवतारों को पूजने का चलन था। इन भक्तों ने ब्रह्म की उपासना उनके साकार रूपों में की, अर्थात उन्होंने राम, कृष्ण, और अन्य देवताओं के रूपों में ईश्वर का दर्शन और उन्हें अपना इष्ट मानकर पूजा की।

सगुण भक्ति का मुख्य उद्देश्य था ईश्वर के साथ प्रिय, सखा और दासभाव के रूप में संबंध स्थापित करना। ये भक्त स्वयं को भगवान का प्रिय (प्रेमी), सखा (मित्र) या दास (सेवक) मानते थे। इस भक्ति में प्रेम को सबसे बड़ा मानवीय मूल्य माना गया और यह प्रेम सच्चे भाव से ईश्वर की भक्ति में निहित होता था। इन कवियों ने प्रेम को मानव जीवन का सबसे पवित्र और सर्वोत्तम मूल्य माना, जो व्यक्ति को दिव्य प्रेम की ओर ले जाता है।

सगुण भक्ति के कवियों का साहित्य विशेष रूप से ब्रज और अवधी बोलियों में रचा गया। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में भगवान के जीवन, उनके चरित्र, और उनके गुप्त एवं स्पष्ट रूपों का वर्णन किया, ताकि आम जनमानस को उनका महत्व समझ में आ सके।

सगुण भक्ति के प्रमुख प्रकार
सगुण भक्ति के दो प्रमुख प्रकार माने जाते हैं:

  1. कृष्णभक्ति काव्य:
    कृष्ण भक्ति काव्य में मुख्य रूप से श्री कृष्ण के जीवन, उनके बाल्यकाल, उनके माखन चोरी, गोवर्धन धारण, रासलीला, और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित काव्य रचनाएँ होती हैं। कृष्ण भक्ति के कवि श्री कृष्ण को भगवान का परम रूप मानते थे और उन्हें सभी जीवों का उद्धारक मानते थे। इन कवियों में प्रमुख कवि सूरदास हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण के बचपन की लीलाओं को अपनी रचनाओं में अत्यधिक सुंदरता से चित्रित किया।

  2. रामभक्ति काव्य:
    राम भक्ति काव्य में श्री राम के जीवन, उनके आदर्शों, उनके द्वारा किए गए कार्यों और उनके संघर्षों का वर्णन किया जाता है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम (संपूर्ण आदर्श पुरुष) माना जाता था और उनकी पूजा में मर्यादा, सत्य, और धर्म का पालन करने की प्रेरणा दी जाती थी। रामभक्ति के प्रमुख कवियों में तुलसीदास का नाम लिया जाता है, जिन्होंने अपनी काव्यरचना रामचरित मानस के माध्यम से राम के जीवन के आदर्शों को जीवित किया।

सगुण भक्ति के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ

  1. सूरदास:
    सूरदास कृष्ण भक्ति के सबसे बड़े कवि थे। उनकी रचनाएँ विशेष रूप से श्री कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं पर आधारित हैं। "सूरसागर" उनकी प्रमुख रचना है, जिसमें उन्होंने श्री कृष्ण के बाल्यकाल की माखन चोरी, गोवर्धन पूजा, और रासलीला का अत्यधिक सुंदर वर्णन किया।

  2. तुलसीदास:
    तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की, जिसमें उन्होंने श्रीराम के जीवन के आदर्शों को सजीव रूप में प्रस्तुत किया। यह काव्यरचना हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और भारत में राम के भक्तों के लिए यह एक प्रमुख ग्रंथ है।

  3. कबीर:
    हालांकि कबीर को अधिकतर निर्गुण भक्ति का कवि माना जाता है, लेकिन उन्होंने राम और कृष्ण की उपासना भी की। कबीर का भक्ति मार्ग सत्य और प्रेम से जुड़ा था। उनकी कविताएँ जीवन के सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं।

  4. रामानंद:
    रामानंद ने राम के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम व्यक्त किया। वे तुलसीदास के समय से पूर्व राम के प्रमुख भक्त थे और उनके प्रभाव में अनेक भक्ति कवि आए। रामानंद के भक्ति मार्ग ने समाज में भक्ति की चेतना को जागरूक किया।

निष्कर्ष
सगुण भक्ति कवियों का योगदान भारतीय भक्ति साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है। इन कवियों ने भगवान के विभिन्न रूपों की उपासना करके प्रेम और भक्ति के माध्यम से जीवन के उच्चतम आदर्शों को प्रस्तुत किया। उनके काव्य साहित्य में प्रेम, भक्ति, और सत्य का संदेश आज भी लोगों के दिलों में जीवित है। सगुण भक्ति ने आम जन को ईश्वर से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम प्रदान किया, और उनके काव्य ने एक नई दिशा में धार्मिक और भक्ति साहित्य को आकार दिया।

बुधवार, 11 नवंबर 2020

कृष्ण भक्ति और सूरदास

  कृष्ण भक्ति का परिचय

कृष्ण भक्ति, सगुण भक्ति के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण धारा है, जो भगवान श्री कृष्ण की पूजा और भक्ति पर केंद्रित है। इस भक्ति के प्रवर्तक बल्लभाचार्य थे, जिन्होंने कृष्ण को परमात्मा मानकर उनकी पूजा को प्रेरित किया। बल्लभाचार्य के शिष्य और उनके पुत्र के शिष्यों ने कृष्ण भक्ति को फैलाया और इसके लिए उन्होंने अष्टछाप कवि की संज्ञा प्राप्त की। इन कवियों का मुख्य केंद्र मथुरा था, जहाँ उन्होंने कृष्ण की लीलाओं, उनके गुणों, और उनकी उपासना को प्रमुखता दी।

कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण को भगवान का प्रियतम, सखा और प्रिय माना गया है। कवियों ने कृष्ण की बाल लीलाओं, रासलीलाओं और उनकी जीवन गाथाओं का बखूबी वर्णन किया। यह काव्य शैली ब्रजभाषा में लिखी गई, जो क्षेत्रीय साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण थी।

सूरदास और उनकी कृष्ण भक्ति
सूरदास कृष्ण भक्ति के सबसे प्रसिद्ध कवि थे और उन्हें कृष्ण की भक्ति का परम भक्त माना जाता है। सूरदास का जन्म लगभग 1478 ई. के आस-पास दिल्ली के पास स्थित सीही गाँव में हुआ था। वे जन्म से अंधे थे, लेकिन उनकी रचनाएँ और भक्ति की गहराई ने उन्हें भारतीय साहित्य के महान कवियों में स्थान दिलाया। सूरदास ने अपनी अधिकांश जीवन यात्रा वृंदावन में श्री नाथ मंदिर के पास बिताई। उनकी भक्ति का मार्ग श्री कृष्ण के प्रति सखा भाव था, अर्थात उन्होंने कृष्ण को अपना मित्र मानकर भक्ति की।

सूरदास के गुरु का नाम बल्लभाचार्य था, जिनसे उन्होंने कृष्ण भक्ति की शिक्षा ली। सूरदास की रचनाओं का संकलन मुख्य रूप से गेय मुक्तक काव्य में किया गया, जिनमें उन्होंने कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं का वर्णन किया। सूरदास ने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखीं, जिससे उनकी रचनाएँ जनता के बीच लोकप्रिय हो सकीं।

सूरदास की रचनाओं में कृष्ण की बाल लीलाओं का अद्भुत चित्रण किया गया। उन्होंने कृष्ण को सखा रूप में पूजा और उनकी क्रियाओं में अनंत प्रेम और भक्ति की भावना व्यक्त की। उनके काव्य में राधा और कृष्ण के प्रेम को भी अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, और इसे भारतीय भक्ति साहित्य में एक प्रमुख विषय माना गया।

सूरदास की प्रमुख रचनाएँ
सूरदास की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘सूरसागर’ है। यह काव्य कृष्ण भक्ति का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं, माखन चोरी, गोवर्धन पूजा, रासलीला और कृष्ण के प्रेम में डूबे भक्तों के आस्थाएँ और भावनाएँ व्यक्त की हैं। इ में कृष्ण के प्रेम, सखा रूप, और राधा के साथ उनके अद्वितीय संबंधों का सजीव चित्रण किया गया है।

सूरदास की कविता की विशेषताएँ
सूरदास की कविता की कई विशेषताएँ हैं, जो उन्हें अन्य भक्ति कवियों से अलग करती हैं:

  1. सख्य-भाव की भक्ति:
    सूरदास की भक्ति का सबसे प्रमुख भाव था सख्य-भाव, जिसमें कृष्ण को भगवान से अधिक एक मित्र के रूप में पूजा गया। सूरदास ने कृष्ण से अपनी मित्रता के भाव में गहरी भक्ति व्यक्त की, जो उनके काव्य का केंद्रीय विषय बना।

  2. कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन:
    सूरदास ने विशेष रूप से कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया है, जैसे कि माखन चोरी, गोवर्धन पर्वत उठाना, और रासलीला। इन लीलाओं के माध्यम से सूरदास ने कृष्ण के दिव्य रूप और उनकी मनमोहक हरकतों का सुंदर चित्रण किया।

  3. राधा-कृष्ण का प्रेम:
    सूरदास ने राधा और कृष्ण के प्रेम को अत्यधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि राधा और कृष्ण का प्रेम अविनाशी और परम प्रेम है, जो संसार के सभी प्रेमों से श्रेष्ठ है। उनके काव्य में राधा और कृष्ण के बीच के अद्वितीय और दिव्य प्रेम का सजीव वर्णन मिलता है।

निष्कर्ष
सूरदास और कृष्ण भक्ति काव्य ने भारतीय भक्ति साहित्य को एक नई दिशा दी। सूरदास ने कृष्ण को न केवल भगवान बल्कि अपने सखा के रूप में पूजा और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को काव्य के रूप में प्रस्तुत किया। सूरदास का काव्य न केवल कृष्ण भक्ति के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है, बल्कि इसमें प्रेम, भक्ति और अद्वितीय रूप से मानव भावनाओं की गहराई का भी चित्रण मिलता है। उनके काव्य की लोकप्रियता आज भी बनी हुई है और वे भारतीय साहित्य के महान कवि के रूप में सम्मानित हैं।

रविवार, 1 नवंबर 2020

प्रयोगवादी कविता

सप्तक और प्रयोगवाद:

सप्तक का संदर्भ उस महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन से है जिसे हिंदी कविता में प्रयोगवाद के रूप में जाना जाता है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ (1943) को हिंदी कविता में प्रयोगवाद की शुरुआत के रूप में माना जाता है। ‘तारसप्तक’ में सात प्रमुख कवियों की कविताओं को शामिल किया गया था, जो हिंदी कविता की एक नई दिशा की ओर इशारा कर रहे थे। ये कवि पुराने शिल्प, प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए, नई भाषा, शिल्प और विचारधारा की खोज में थे।

प्रयोगवाद की विशेषताएँ:

प्रयोगवाद का जन्म पुराने काव्य शिल्प और काव्यात्मक सिद्धांतों से असंतोष और विद्रोह के परिणामस्वरूप हुआ था। इस साहित्यिक आंदोलन ने कविता की पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी और एक नई तरह की कविता की रचना की।

प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ:

  1. आधुनिकतावाद का प्रभाव: प्रयोगवादी कविता पर यूरोपीय आधुनिकतावाद का गहरा प्रभाव था। यह आंदोलन पारंपरिक और रूढ़िवादी काव्यशास्त्र से अलग, आधुनिकता और व्यक्तित्व के महत्व को मान्यता देता था।

  2. व्यक्तिवाद: प्रयोगवाद के तहत कविता में व्यक्तिगत जीवन और अस्तित्व की जटिलताओं को प्राथमिकता दी गई। यह कविता एक तरह से व्यक्तिगत अनुभवों और अस्तित्व की पहचान को व्यक्त करती है।

  3. बुद्धि का महत्त्व: भावना की जगह बुद्धि को अहमियत दी गई। यह कविता विचारप्रधान और तर्कपूर्ण होती थी, जिसमें संवेदनाओं और व्यक्तित्व के बजाय तर्क और दार्शनिक विचारों का प्रवाह अधिक होता था।

  4. मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण: प्रयोगवादी कविता में विशेष रूप से मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं और संघर्षों को प्रस्तुत किया गया।

  5. संदेह और अनास्था: द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव के कारण कविता में संदेह, अनास्था और अनिश्चितता की भावना देखने को मिलती है।

  6. नए प्रतीक और उपमान: प्रयोगवादी कवियों ने पुराने प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए नए प्रतीक, उपमान और भाषा का प्रयोग किया। इससे कविता में नवीनता और ताजगी आई।

  7. भाषा-शैली की विविधता: प्रयोगवादी कवि कविता की भाषा में विविधता पर जोर देते थे। वे मानते थे कि कविता की भाषा-शैली में एकरूपता को रूढ़िवादिता माना जाता है, और इसका विरोध करते थे।

प्रयोगवाद के तीन मुख्य पहलू:

  1. व्यक्ति को महत्त्व: प्रयोगवादी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी पहचान को महत्व दिया गया। जैसे अज्ञेय की कविता "यह दीप अकेला स्नेह भरा..." में व्यक्तित्व और अस्तित्व के संघर्ष को प्रमुखता दी जाती है। इसमें व्यक्तिगत जीवन, विचार और भावनाओं को व्यक्त किया गया है।

  2. प्रयोगशीलता: प्रयोगवादी कवियों ने कविता के पुराने पैटर्न और शिल्प को अस्वीकार कर दिया और शिल्प, भाषा, प्रतीक, उपमान आदि में नए प्रयोग किए। उदाहरण के लिए, गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नेमिचंद्र जैन, और अज्ञेय जैसे कवियों ने कविता की परंपराओं को चुनौती दी और नए विचार, शिल्प और प्रतीकों का निर्माण किया।

  3. विविधता: प्रयोगवादी कविता में शिल्प और भाषा की विविधता होती थी। एक कवि की अलग-अलग कविताओं में भाषा और शिल्प के रूप में भिन्नता दिखाई देती थी। यही वजह थी कि प्रयोगवादी कविता एक निश्चित पैटर्न में नहीं बँधी थी, बल्कि यह विविधतापूर्ण होती थी।

सप्तक का महत्व:

तारसप्तक’ और बाद में ‘दूसरा सप्तक’ ने हिंदी कविता को एक नई दिशा दी। इन संकलनों में कविता की नयी शैलियों और प्रयोगों की झलक मिलती है। तारसप्तक के कवि नए विचारधाराओं और साहित्यिक प्रयोगों के साथ कविता की पुरानी सीमाओं को तोड़ने में लगे थे। यह कविता का एक व्यक्तिवादी रूप था, जिसमें कवि अपनी निजी भावनाओं, अस्तित्व के संकटों और सामाजिक सन्दर्भों पर अपनी दृष्टि रखते थे।

निष्कर्ष:

प्रयोगवाद एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन था जिसने हिंदी कविता में नये विचारों और शिल्प को जन्म दिया। यह कविता में नवीनता, व्यक्तिवाद और शिल्पगत प्रयोग का प्रतीक बनकर उभरी। सप्तक ने हिंदी कविता में एक नई ताजगी और दिशा लाई और यह कविता की परंपराओं को चुनौती देते हुए कविता को एक व्यक्तिगत और बौद्धिक मंच प्रदान किया।

शनिवार, 5 सितंबर 2020

हिंदी साहित्य में निर्गुण भक्ति

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ और शाखाएँ

निर्गुण भक्ति एक प्रमुख भक्ति आंदोलन था जो मुख्य रूप से भारतीय संत कवियों के द्वारा प्रचारित किया गया। इस भक्ति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है, अर्थात् भगवान को निराकार, निरूपक और अव्यक्त रूप में पूजा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के भीतर स्थित ईश्वर के अनुभव की प्राप्ति था, न कि बाहरी मूर्तियों या प्रतीकों की पूजा।

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ:

  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना: निर्गुण भक्ति के कवियों ने ब्रह्म या ईश्वर को निराकार और निर्गुण रूप में पूजा। वे मानते थे कि भगवान का कोई रूप नहीं होता और न ही वह किसी विशेष प्रतीक या मूर्ति के रूप में अस्तित्व रखते हैं।

  2. अवतारवाद का अस्वीकार: निर्गुण कवियों ने अवतारवाद को अस्वीकार किया। वे यह मानते थे कि भगवान केवल अवतारों के रूप में नहीं आते, बल्कि वह सब में समाहित होते हैं।

  3. मूर्ति-पूजा का विरोध: निर्गुण भक्ति में मूर्ति पूजा का विरोध किया गया। ये कवि मानते थे कि भगवान का कोई रूप नहीं है, इसलिए मूर्ति पूजा निरर्थक है।

  4. ईश्वर को मानव के भीतर देखना: निर्गुण भक्ति के कवियों के अनुसार, भगवान हर व्यक्ति के भीतर मौजूद होते हैं। वे मानते थे कि व्यक्ति को अपने भीतर ही ईश्वर की अनुभूति होनी चाहिए।

  5. ज्ञान और प्रेम का महत्त्व: ईश्वर तक पहुँचने के लिए ज्ञान और प्रेम को माध्यम माना गया। ज्ञान का मतलब सत्य की तलाश और आत्मज्ञान था, जबकि प्रेम ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति का रूप था।

  6. गुरु का महत्त्व: निर्गुण कवियों ने गुरु को अत्यंत महत्त्व दिया। उनका मानना था कि गुरु की कृपा से ही व्यक्ति भगवान के साक्षात्कार तक पहुँच सकता है।

  7. समानता का आदर्श: निर्गुण भक्ति ने जातिवाद और ऊँच-नीच के भेद को नकारा। सभी मनुष्यों को समान समझने का आग्रह किया गया, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग से हों।

निर्गुण भक्ति की दो प्रमुख शाखाएँ:

क. ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी:

  1. संतकाव्य: ज्ञानाश्रयी भक्ति काव्य को संतकाव्य कहा जाता है। इसमें विशेष रूप से ज्ञान, साधना और योग के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति पर जोर दिया गया।

  2. ज्ञान और योग: इसमें ब्रह्म की उपासना के लिए ज्ञान और योग को मार्ग माना गया। यह शाखा विशेष रूप से शंकराचार्य के अद्वैतवाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद से प्रभावित थी।

  3. मूर्ति पूजा और बाहरी आचार का विरोध: इस शाखा के कवियों ने मूर्ति पूजा, नाम जप, तीर्थाटन आदि जैसे बाहरी आचारों का विरोध किया। उन्होंने आंतरिक साधना और आत्मा के अनुभव को प्राथमिकता दी।

  4. जातिवाद का विरोध: इस शाखा के कवियों ने जातिवाद और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने समानता का प्रचार किया और समाज में समरसता की ओर प्रेरित किया।

  5. प्रमुख कवि: इस शाखा के प्रमुख कवियों में कबीर, नानक, दादू, और रैदास शामिल हैं। इन कवियों ने अपने काव्य में इन विचारों को प्रसारित किया।

ख. प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी:

  1. सूफी कविता: प्रेमाश्रयी भक्ति को सूफी कविता भी कहा जाता है। इस शाखा में कवि ईरानी सूफी दर्शन से प्रभावित थे।

  2. प्रेम को मार्ग मानना: प्रेमाश्रयी भक्ति में प्रेम को ही ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता माना गया। इन कवियों के अनुसार, व्यक्ति को प्रेम के द्वारा भगवान से मिलन प्राप्त हो सकता है।

  3. प्रेयसी और प्रेमी का रूप: सूफी कविता में ईश्वर को प्रेयसी और जीव को प्रेमी के रूप में चित्रित किया गया। इसके अनुसार, पूरी दुनिया उसी प्रेयसी के रूप का प्रतिविंब है।

  4. लोककथाओं का आधार: प्रेमाश्रयी कवियों ने भारतीय लोककथाओं और प्रेमकाव्य को आधार बनाकर प्रबंध काव्य की रचना की। इन कवियों का उद्देश्य प्रेम और भक्ति के माध्यम से भगवान के पास पहुँचना था।

  5. प्रमुख कवि: इस शाखा के प्रमुख कवियों में जायसी, कुतुबन, मंझन, और उस्मान शामिल हैं। इन कवियों ने सूफी दर्शन के अनुसार ईश्वर के प्रेम को केंद्रित किया।

निष्कर्ष:

निर्गुण भक्ति का उद्देश्य न केवल बाहरी आचार और धर्म के प्रति श्रद्धा को नकारना था, बल्कि इसने एक आंतरिक यात्रा की ओर इंगीत किया, जिसमें व्यक्ति को अपने भीतर स्थित ईश्वर से मिलन की प्राप्ति करनी थी। इस भक्ति मार्ग में ज्ञान, प्रेम और साधना को मुख्य महत्व दिया गया।

सोमवार, 10 अगस्त 2020

भारतेंदु युग (सन् 1850 से 1900 ई.)


भारतेंदु युग का नामकरण भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया, जिन्हें हिंदी साहित्य का प्रथम आधुनिक कवि और साहित्यकार माना जाता है। यह युग हिंदी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जो नई सोच, नई भाषा, और नई संवेदनाओं का वाहक बना। इस युग में न केवल कविता का विकास हुआ, बल्कि गद्य लेखन भी स्थापित हुआ, जिससे साहित्य का दायरा विस्तारित हुआ।

भारतेंदु युग की विशेषताएँ:

  1. कविता और गद्य का समांतर विकास:

    • इस युग में कविता के साथ-साथ गद्य लेखन का भी तेजी से विकास हुआ। कविता अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई, जबकि गद्य खड़ी बोली में लिखा गया। खड़ी बोली का उपयोग इस युग में हिंदी के अधिकृत रूप के रूप में किया गया।
  2. काव्य में स्वचेतनता:

    • भारतेंदु युग की कविताओं में स्वचेतनता (self-consciousness) की प्रवृत्ति दिखाई देती है। कवियों ने अपने समय की समस्याओं को संबोधित किया, जिसमें देशभक्ति, समाज सुधार, ब्रिटिश शासन और भारतीय संस्कृति की चर्चा की गई।
    • राज-भक्ति के साथ-साथ देशभक्ति की कविताओं का भी विस्तार हुआ। भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं पर भी चिंता व्यक्त की गई।
  3. सामाजिक और राजनीतिक विचार:

    • भारतेंदु युग में कवियों ने ब्रिटिश शासन के नकारात्मक प्रभावों की आलोचना की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों और भारत में अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई।
    • निज भाषा के महत्व को भी इस युग में बल मिला। भारतेंदु और उनके समकालीन कवियों ने यह संदेश दिया कि यदि भारतीय समाज को समृद्ध और सशक्त बनाना है, तो उसे अपनी निज भाषा का सम्मान करना चाहिए।
  4. साहित्यिक योगदान:

    • भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य में काव्य शिल्प और भावों के साथ-साथ राष्ट्रीयता और सामाजिक जागरूकता की झलक मिलती है। उनकी रचनाएँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।
    • भारतेंदु युग की कविताओं में, विशेष रूप से देशभक्ति और निज भाषा के विकास पर जोर दिया गया।

भारतेंदु युग की कुछ प्रमुख कविताएँ:

  1. कठिन सिपाही द्रोह अनल जल बल सों नासी:

    • इस कविता में कवि ने विभिन्न विपत्तियों और कठिनाइयों के बावजूद भारतीय वीरता को प्रस्तुत किया है। यह कविता संघर्ष और शौर्य की प्रतीक है।
  2. अँग्रेज राज सुख साज सबै है भारी:

    • इस कविता में ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की गई है, जिसमें यह दर्शाया गया कि किस प्रकार से भारतीयों का शोषण किया जा रहा था।
  3. निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल:

    • यह कविता भारतीय भाषा और संस्कृति के महत्व को समझाती है। कवि ने यह बताया कि निज भाषा की उन्नति ही समाज की और राष्ट्र की उन्नति का आधार है।
    • कविता का संदेश: "बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल" अर्थात अपनी भाषा के ज्ञान के बिना, किसी भी व्यक्ति का मानसिक संतुलन और आत्मविश्वास स्थापित नहीं हो सकता।

निष्कर्ष:

भारतेंदु युग हिंदी साहित्य में एक नये युग की शुरुआत थी, जिसने न केवल साहित्यिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यह युग भारतीय समाज की चेतना और जागरूकता के विकास का प्रेरणास्त्रोत बना और आगामी साहित्यिक आंदोलनों के लिए एक ठोस नींव तैयार की।

सोमवार, 6 जुलाई 2020

पूर्वमध्यकाल : भक्तिकाल

 

संवत् 1375 से संवत् 1700 तक

( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

मध्य का अर्थ है- बीच ।  मध्यकाल आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का काल है । इसके दो भाग हैं— 1. पूर्वमध्यकाल 2. उत्तरमध्यकाल । पूर्व मध्यकाल का ही दूसरा नाम भक्तिकाल है । यह काल भक्ति-साहित्य के लिए प्रसिद्ध है ।

भक्ति की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई । रामानंद ने इसे उत्तर भारत ले गए । उनका संबंध तमिल आलवारों से था । आलवार वैष्णव थे । रामनंद का संबंध इन्हीं आलवारों से माना जाता है । हिंदी के भक्त कवि रामानंद की शिष्य-परंपरा में हैं ।

भक्ति काव्य की  विशेषताएँ : ईश्वर से प्रेम करने को भक्ति कहते हैं । भक्ति काल में भक्ति को विषय बनाकर कविताएँ लिखी गईं। भक्ति काव्य का क्षेत्र-विस्तार पूरे भारत में था।  भक्ति काव्य ने देशी भाषाओं को महत्व दिया। हिन्दी के भक्ति काव्य में ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी आदि बोलियों में कविताएँ लिखी गईं। इन कविताओं में भक्ति के बाद सबसे अधिक सामाजिक समानता को महत्व दिया। भक्ति काल को हिंदी कविता का स्वर्ण युग कहा जाता है।

 

भक्ति दो प्रकार की होती है—

     भक्ति


 

 


                         सगुण भक्ति                   निर्गुण भक्ति


 


                                   

      कृष्ण भक्ति                 राम भक्ति            ज्ञानाश्रयी              प्रेमाश्रयी

                                                (संत कवि)      (सूफी कवि)

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

हिंदी काव्य : एक रेखांकन

 

हिंदी साहित्य का आरंभ

हिंदी साहित्य की शुरुआत की एक निश्चित तिथि नहीं बताई जा सकती, लेकिन इसका आरंभ सन् 1000 ई. के आसपास मानी जा सकती  है । तब से लेकर अब तक लगभग एक हजार साल में हिंदी का साहित्य लगातार आगे बढ़ता रहा है । इसमें कई तरह के बदलाव आये । इन बदलावों के आधार पर हिंदी साहित्य को अलग-अलग कालों में बाँटा गया है । इन कालों की सही समय-सीमा और नामकरण को लेकर विद्वानों अलग-अलग विचार हैं । इनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल-विभाजन अधिक मान्य है ‌‌। उनके अनुसार—

1.      आदिकाल (वीरगाथाकाल) : संवत् 1050 से 1375 तक  ( सन् 993 ई. से  सन्1318 ई. )

2.      पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल)  : संवत् 1375 से संवत् 1700 तक ( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

3.      उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल) : संवत् 1700 से संवत् 1900 तक ( सन् 1643 ई. से  सन् 1843 ई. )

4.      आधुनिक काल ( गद्यकाल) : संवत् 1900 से अब तक ( सन् 1843 ई. से  अबतक)

आदिकाल (वीरगाथाकाल )

संवत् 1050 से 1375

आदिकाल हिंदी भाषा में साहित्य लिखने की शुरुआत का समय है । हिंदी भाषा से पहले साहित्य की भाषा अपभ्रंश थी। इसमें आठवीं शताब्दी के आस पास से साहित्य-रचनाएँ मिलने लगती हैं । चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे पुरानी हिंदी कहा है । लेकिन हिंदी साहित्य के आदिकाल का वास्तविक समय संवत् 1050 से 1375 तक माना जाता है। इस समय तीन तरह के साहित्य लिखे गये –

1.      धार्मिक काव्य

2.      वीरगाथा काव्य

3.      स्वतंत्र काव्य

धार्मिक काव्य – इस समय भारत में कई तरह के धार्मिक विचार थे । इनमें से सिद्ध, नाथ और जैन तीन मुख्य थे। आदिकालीन हिंदी में इन तीनों से जुड़ी धार्मिक  रचनाएँ  मिलती हैं । इनमें साहित्य की जगह धार्मिक विचार अधिक प्रभावी  हैं । इन कवियों ने अपनी कविताओं में अपने-अपने धर्मों की शिक्षा दी है। ये धार्मिक विचार की कविताएँ हैं। ये विचार दोहा, चरित काव्य और चार्यापदों में रचे गए हैं । इनमें से मुख्य कवि हैं—

धार्मिक मत

कवि

काव्य

सिद्ध

सरहपा

दोहाकोश

जैन

स्वयंभू

मेरुतुंग

हेमचंद्र

पउम चरिउ (राम-कथा)

प्रबंध चिंतामणि

प्राकृत व्याकरण

नाथ

गोरख नाथ

गोरखबानी

 

जैन काव्य की विशेषताएँ :

1.      जैन काव्य जैन धर्म से प्रभावित है ।

2.      जैन धर्म के महापुरुषों के जीवन को विषय बनाकर चिरित काव्य लिखे गए; जैसे- पउम चरिउ, जसहर चरिउ, करकंडु चरिउ,भविसयत कहा आदि ।

3.      जैन कवियों ने व्याकरण-ग्रंथ भी लिखे ; जैसे- प्राकृत व्याकरण, प्रबंधचिंतामणि, सिद्धहेम शब्दानुशासन आदि ।

4.      कड़वक बंध रचनाएँ और चौपई छंद जैन कवियों की देन है ।

5.      हिंदी का पहला बारहमासा वर्णन जैन साहित्य में मिलता है ।

वीरगाथा काव्य– इस समय भारत में एक केंद्रीय सत्ता की कमी थी। देश कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था और प्रत्येक राजा दूसरे राजा से राज्य छीनना चाह रहा था और अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसलिए वे आपस में लड़ रहे थे। इन राजाओं के राज्य में रहने वाले कवियों ने अपने राजाओं की वीरता का वर्णन  किया है । इस लिए इन्हें वीरगाथा काव्य कहा जाता है। इन कविताओं का विषय लड़ाइयों का वर्णन है। चंदबरदाई का पृथ्वीराज रासो और जगनिक की परमाल रासो इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है।

स्वतंत्र काव्य – जिन कवियों ने धार्मिक काव्य और वीरगाथा काव्य नहीं लिखे । उनकी कविताएँ इन दोनों प्रकार के काव्यों से अलग हैं , उन्हें स्वतंत्र कवि कहा जा सकता है; जैसे विद्यापति और अमीर खुसरो 

1.      विद्यापति (14 वीं शताब्दी) — इनके तीन प्रसिद्ध काव्य कीर्तिलता’, कीर्तिपताका और पदावली हैं। कीर्तिलता और कीर्ति पताका का संबंध राजा कीर्ति सिंह से है। विद्यापति उन्हीं के यहाँ रहते थे। पदावली में राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है। इसमें उन दोनों का प्रेम एक सामान्य युवक और युवती के प्रेम जैसा है। विद्यापति के इस काव्य का सबसे अधिक महत्त्व है।

2.      अमीर खुसरो (14 वीं शताब्दी) —  खुसरो फारसी के कवि थे। उन्होंने हिंदी में भी रचनाएँ कीं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने प्रसिद्ध हैं। खुसरो  की रचनाओं की भाषा आधुनिक काल की हिंदी के करीब है। इसलिए इनका ऐतिहारिक महत्त्व है।

3.      अद्दहमाण / अब्दुल रहमान (13वीं शताब्दी)- संदेश रासक (शृंगार काव्य)

4.      रोडा- राउड बेलि (शृंगार काव्य)

5.      लक्षमीधर - प्राकृत पैंगलम्

आदिकाल की सामान्य विशेषताएँ :

1.      इस काल में वीर-काव्य लिखे गए।

2.      इस काल के कवि राजाओं के दरबारी कवि थे और उन्होंने अपने राजाओं की प्रशस्तिमें कविताएँ लिखीं।

3.      आदिकाल में वीर के साथ-साथ कुछ शृंगार (प्रेम) की रचनाएँ की भी मिलती हैं; जैसे-  नरपति नाल्ह की बीसलदेव रासो  और विद्यापति की पदावली

4.      जैन और सिद्ध कवियों ने अपने धार्मिक विचार के प्रचार के लिए साहित्य का आधार बनाया है। जसहर चरिउ’, रिठ्ठणेमि चारिउ आदि ।

5.      इन रचनाओं की भाषा अपभ्रंश मिली-जुली हिंदी (डिंगल- पिंगल और अवहट्ट) है।

6.       खुसरो की रचनाओं तथा उक्तिव्यक्ति प्रकरण से आधुनिक हिंदी भाषा का पूर्वानुमान मिलने लगता है।

7.      चरित, दोहा और पद— जैसे नए काव्य-रूप का प्रयोग किया, जो बाद में अधिक लोकप्रिय हुए ।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

छायावाद युग (1918-1936 ई.):

छायावाद युग (1918-1936 ई.):

छायावाद युग को आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्ण युग माना जाता है। यह युग हिंदी कविता के इतिहास में विशेष स्थान रखता है क्योंकि इस समय हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया, जिसमें व्यक्ति की मानसिक स्थिति, उसकी भावनाएँ और प्रकृति के साथ उसके संबंधों पर विशेष ध्यान दिया गया।

मुख्य कवि: छायावाद के प्रमुख कवि चार महान कवि थे:

  1. जयशंकर प्रसाद
  2. निराला
  3. महादेवी वर्मा
  4. सुमित्रानंदन पंत

इन कवियों ने अपने-अपने काव्य में छायावादी विचारधारा को विस्तार से प्रस्तुत किया और हिंदी कविता को एक नई दिशा दी।

छायावादी कविता की विशेषताएँ:

  1. प्रेम और सौंदर्य: छायावादी कविता में प्रेम और सौंदर्य का प्रमुख स्थान है। कवियों ने प्रेम को प्रकृति और जीवन के सबसे पवित्र भाव के रूप में चित्रित किया।

  2. कल्पना का अधिक प्रयोग: छायावादी कवियों ने अपनी कविता में कल्पना को महत्व दिया। उन्होंने भावनाओं और विचारों को कल्पना के माध्यम से अभिव्यक्त किया।

  3. प्रकृति का चित्रण: प्रकृति का अत्यधिक उपयोग छायावादी कवियों द्वारा किया गया। इन कवियों ने प्रकृति के चित्रण में न केवल भौतिक रूप, बल्कि उसकी भावना और मनोभावना को भी व्यक्त किया।

  4. मानवीकरण: प्रकृति को मानवीकरण के रूप में चित्रित किया गया। जैसे, नदी, पर्वत, आकाश आदि को मानवीय गुण दिए गए।

  5. स्त्री का सम्मान: छायावादी कविता में स्त्री को सम्मान और प्रेम के प्रतीक के रूप में देखा गया। कविता में स्त्री के रूप में शक्ति, सौंदर्य और प्रेम का आदान-प्रदान हुआ।

  6. मानवता की भावना: इस युग की कविताओं में मानवता, प्रेम, और भाईचारे की भावना प्रमुख थी। कविता का उद्देश्य सामाजिक जागरूकता और समानता को बढ़ावा देना था।

  7. स्वतंत्रता की इच्छा: छायावादी कवियों में स्वतंत्रता और स्वाधीनता की गहरी भावना थी। कविता में कभी-कभी स्वतंत्रता संग्राम की भावना भी छिपी होती थी।

  8. संस्कृत शब्दों का प्रयोग: छायावादी कविता में संस्कृत शब्दों का अधिक प्रयोग किया गया है, जिससे कविता में एक शास्त्रीय और गरिमामय स्वरूप आया।

उदाहरण:
निराला की कविता "संध्या-सुंदरी" से एक अंश:

"दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुंदरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे।"

यह कविता छायावादी विशेषताओं का आदान-प्रदान करती है, जिसमें प्रकृति का सौंदर्य, मानवीकरण और कल्पना का उपयोग किया गया है। संध्या के समय का चित्रण और उसकी तुलना एक सुंदर परी से की गई है, जो छायावाद के प्रभाव को दर्शाता है।

निष्कर्ष:
छायावाद युग ने हिंदी कविता में एक नए युग का आरंभ किया, जहाँ परंपराओं के विपरीत कल्पना, मनोविज्ञान, और भव्यता को प्रमुख स्थान दिया गया। इस युग के कवियों ने भावनाओं, सौंदर्य और प्रेम के माध्यम से मानवता और समाज के प्रति अपनी संवेदनाएँ व्यक्त कीं।