शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

नागार्जुन: यथार्थवादी प्रगतिशील साहित्य के अप्रतिम रचनाकार

 


नागार्जुन: यथार्थवादी प्रगतिशील साहित्य के अप्रतिम रचनाकार

नागार्जुन, जिनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था, हिन्दी और मैथिली साहित्य के ऐसे प्रमुख साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने लेखन से भारतीय समाज के हर पहलू को छुआ। वे प्रगतिशील साहित्य के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी कविताएँ, उपन्यास, और गद्य रचनाएँ मजदूरों, किसानों, वंचितों, और आम जनता के जीवन का यथार्थवादी चित्रण करती हैं। उनका साहित्यिक योगदान इतना व्यापक है कि उनकी रचनाएँ आज भी साहित्य और समाज दोनों के लिए मार्गदर्शक बनी हुई हैं।

जीवन परिचय और प्रारंभिक शिक्षा

नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के मधुबनी जिले के तरौनी गाँव में हुआ था। उनका नाम बचपन में वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। उनकी आरंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई। संस्कृत के साथ-साथ वे अन्य भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। यह संस्कृत शिक्षा उनके शुरुआती जीवन में साहित्य और दर्शन के प्रति उनकी रुचि को प्रकट करती है।

उन्होंने स्वाध्याय के माध्यम से विभिन्न विषयों में गहन अध्ययन किया। उनकी प्रारंभिक रुचि बौद्ध दर्शन और पालि भाषा में थी, जिसके कारण उन्होंने श्रीलंका की यात्रा की। वहाँ उन्होंने पालि भाषा का अध्ययन किया और बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं को संस्कृत पढ़ाते समय उनका झुकाव बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की ओर हुआ, और इसी प्रेरणा से उन्होंने अपना नाम "नागार्जुन" रख लिया।

साहित्यिक सफर की शुरुआत

नागार्जुन ने मैथिली और हिन्दी में लेखन किया। मैथिली में वे 'यात्री' उपनाम से लिखते थे। उनकी रचनाओं में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों का व्यापक चित्रण मिलता है। उन्होंने कविताओं के अलावा उपन्यास और निबंध भी लिखे। उनका लेखन प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें समाज के वंचित वर्गों के लिए गहरी संवेदनशीलता और सहानुभूति झलकती है।

नागार्जुन की प्रगतिशील दृष्टि

नागार्जुन का साहित्य प्रगतिशील विचारधारा से प्रेरित था। प्रगतिशील साहित्य का उद्देश्य समाज के वंचित और शोषित वर्गों की समस्याओं को उजागर करना और उनके समाधान की दिशा में प्रयास करना है। नागार्जुन ने अपने साहित्य के माध्यम से किसानों, मजदूरों, और आम जनता के संघर्ष को प्रमुख स्थान दिया।

उनकी कविताओं में यथार्थ और क्रांति का अद्भुत संगम मिलता है। उदाहरण के लिए, उनकी कविता "अकाल के बाद" एक ऐसा मार्मिक चित्रण है, जिसमें अकाल के बाद लोगों की भुखमरी, उदासी और कठिन जीवन को सरल लेकिन प्रभावी शब्दों में व्यक्त किया गया है:

"कई दिनों तक चूल्हा रोया, चाकी रही उदास।
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास।"

यह कविता समाज के उन तबकों की त्रासदी को सामने लाती है, जो प्राकृतिक आपदाओं और सामाजिक असमानताओं के कारण पीड़ित होते हैं।

सामाजिक चेतना और राजनीतिक जागरूकता

नागार्जुन का जीवन केवल लेखन तक सीमित नहीं था। वे समाज और राजनीति के प्रति भी उतने ही सक्रिय थे। उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उनके साहित्य में उनकी इस सक्रियता की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

उनकी कविताएँ केवल भावनात्मक नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर तीखी टिप्पणी भी करती हैं। उनकी रचनाएँ समाज के दबे-कुचले वर्गों की आवाज़ बनती हैं। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से नेताओं और सत्ता के अन्यायपूर्ण कार्यों की आलोचना की।

लोकप्रिय कविताएँ और उनका महत्व

नागार्जुन की कविताओं में गाँव-देहात का जीवन, किसानों का संघर्ष, और समाज के वंचित वर्गों का यथार्थ चित्रण मिलता है। उनकी प्रमुख कविताएँ हैं:

  • "अकाल के बाद"
  • "हरिजन गाथा"
  • "बलचनमा"
  • "भोजपुर"

इन कविताओं में उन्होंने समाज के सभी पहलुओं, जैसे गरीबी, अकाल, शोषण, और सत्ता की विसंगतियों को सामने लाया।

कविता की शैली और भाषा

नागार्जुन की कविताओं की भाषा सरल, सहज, और जन-जन के करीब थी। वे क्लिष्ट शब्दावली का उपयोग करने के बजाय बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते थे, जिससे उनकी कविताएँ हर वर्ग के लोगों तक पहुँच सकीं। उनकी शैली में व्यंग्य और आलोचना का समावेश था, जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करता है।

उनकी यह पंक्ति:

"जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं ?
दिल्ली में तो आज शांति है, कलकत्ते में दंगा है।"

राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं पर उनकी स्पष्ट दृष्टि को दर्शाती है।

नागार्जुन के उपन्यास

नागार्जुन ने न केवल कविताएँ, बल्कि उपन्यास भी लिखे। उनके उपन्यास सामाजिक और आर्थिक यथार्थ को बड़े प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। उनके प्रमुख उपन्यास हैं:

  • "बलचनमा"
  • "रतिनाथ की चाची"
  • "वरुण के बेटे"

इन उपन्यासों में ग्रामीण समाज, किसानों के संघर्ष, और उनके जीवन के कटु यथार्थ को चित्रित किया गया है।

बलचनमा

यह नागार्जुन का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है, जिसमें उन्होंने किसानों के जीवन और उनके संघर्ष को मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया है। बलचनमा का नायक एक ऐसा किसान है, जो सामाजिक शोषण और आर्थिक संकटों से जूझता है।

मैथिली साहित्य में योगदान

नागार्जुन का मैथिली साहित्य भी हिन्दी साहित्य के समान ही समृद्ध है। मैथिली में उन्होंने 'यात्री' नाम से कविताएँ लिखीं। उनकी मैथिली कविताएँ भी समाज और व्यक्ति के जीवन की वास्तविकताओं को व्यक्त करती हैं।

नागार्जुन का प्रभाव

नागार्जुन का साहित्यिक योगदान इतना गहरा है कि वह आज भी प्रासंगिक है। उनकी कविताएँ और उपन्यास समाज के लिए दर्पण का कार्य करते हैं। वे साहित्य को केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं मानते थे, बल्कि समाज सुधार का एक महत्वपूर्ण उपकरण मानते थे।

निष्कर्ष

नागार्जुन हिन्दी और मैथिली साहित्य के ऐसे रचनाकार थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के वंचित और पीड़ित वर्गों की आवाज़ को बुलंद किया। उनकी कविताओं में यथार्थ, संघर्ष और क्रांति का स्वर है। वे प्रगतिशील साहित्य के सच्चे प्रतिनिधि थे। उनकी रचनाएँ हमें समाज की वास्तविकताओं से रूबरू कराती हैं और हमें सोचने पर मजबूर करती हैं।

नागार्जुन केवल एक साहित्यकार नहीं थे, बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक योद्धा भी थे। उनके साहित्यिक योगदान के कारण वे भारतीय साहित्य में हमेशा अमर रहेंगे।

प्रगतिशील कविता: एक साहित्यिक धारा

प्रगतिशील कविता: एक साहित्यिक धारा

प्रस्तावना

‘प्रगतिशील कविता’ एक विशेष विचारधारा और उद्देश्य से प्रेरित कविता है, जो समाज और जीवन के सुधार की दिशा में काम करती है। इस कविता का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों की आवाज़ को मुखरित करना और पुरानी रूढ़ियों तथा समाज की असमानताओं के खिलाफ संघर्ष करना है। प्रगतिशील कविता का उद्भव मार्क्सवाद के प्रभाव से हुआ, और इसने भारतीय साहित्य में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। प्रगतिशील कविता की शुरुआत 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ हुई, जब लेखकों और कवियों ने मिलकर सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की दिशा में लेखन को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने का संकल्प लिया। इस लेख में हम प्रगतिशील कविता के महत्व, इसके विशेषताएँ और प्रमुख कवियों पर चर्चा करेंगे।

प्रगतिशील कविता का उद्भव

‘प्रगति’ का अर्थ है आगे बढ़ना और ‘वाद’ का अर्थ है सिद्धांत या विचारधारा। प्रगतिशीलता का मतलब है विकास की दिशा में चलने का सिद्धांत। साहित्य का उद्देश्य न केवल कला और सौंदर्य को प्रस्तुत करना होता है, बल्कि समाज की वास्तविकताओं को भी उभारना होता है। प्रगतिशील कविता का उद्देश्य एक बेहतर और समान समाज की स्थापना था। इसके लिए मुख्य रूप से मार्क्सवाद का दृष्टिकोण अपनाया गया। यह कविता श्रमिक वर्ग, किसान, गरीब और उत्पीड़ित वर्ग के अधिकारों की बात करती थी और उनके हक में आवाज़ उठाती थी।

1935 में लंदन में इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना हुई थी, और 10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य साहित्य के माध्यम से समाज में बदलाव लाना था। इस संघ के गठन के साथ ही प्रगतिशील कविता का प्रवृत्तियों और दृष्टिकोणों का विकास हुआ। इसके पहले अध्यक्ष प्रेमचंद थे, जिनका साहित्य में बड़ा योगदान था। बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर, जवाहरलाल नेहरू और श्रीपाद डांगे जैसे लोग भी इसके अध्यक्ष बने।

प्रगतिशील कविता की विशेषताएँ

  1. प्रगतिशील जीवन मूल्य: प्रगतिशील कविता पुरानी रूढ़ियों और सामाजिक असमानताओं को नकारती है और नए, प्रगतिशील जीवन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास करती है। यह कविता समाज की विकृतियों के खिलाफ है और समाज के गरीब, मजदूर और किसानों के पक्ष में खड़ी होती है।

  2. यथार्थवाद: प्रगतिशील कविता में कल्पना की बजाय यथार्थ को प्रमुख स्थान मिला। यह कविता समाज के वास्तविक समस्याओं और संघर्षों पर आधारित होती है। इसमें समाज की वास्तविकता, जैसे गरीबी, बेरोज़गारी, असमानता, और शोषण पर ध्यान दिया जाता है।

  3. किसानों और मजदूरों का चित्रण: प्रगतिशील कविता में किसानों और मजदूरों की स्थितियों को उजागर किया गया। इन वर्गों के संघर्ष और उनके जीवन की कठिनाइयाँ कविता का केंद्र बनती हैं। यह कविता उनके अधिकारों और उनके बेहतर भविष्य की बात करती है।

  4. पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष: प्रगतिशील कविता में पूंजीवाद और सामंतवाद का विरोध किया गया। इस कविता में यह बताया गया कि कैसे यह दोनों विचारधाराएँ समाज में असमानता, शोषण और अन्याय का कारण बनती हैं।

  5. गरीबों और निम्नवर्गीय लोगों के अधिकार: प्रगतिशील कविता का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर और शोषित वर्गों के हित की रक्षा करना है। यह कविता इन वर्गों की स्थिति को व्यक्त करती है और उनके अधिकारों की मांग करती है।

  6. सहज और सच्चे सौंदर्य की कविताएँ: इस कविता में मानवता के सौंदर्य को चित्रित किया गया है, जैसे छोटे बच्चों की मुस्कान, दाम्पत्य जीवन की सुंदरता, और किसानों एवं मजदूरों के काम की सुंदरता। यह जीवन के सहज और प्राकृतिक सौंदर्य को स्वीकार करती है।

  7. व्यंग्य और आलोचना: प्रगतिशील कविता में वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य और आलोचना की जाती है। इसमें समाज की असमानताओं, शोषण और भ्रष्टाचार का खुलकर विरोध किया जाता है।

  8. प्रकृति का चित्रण: प्रगतिशील कविता में प्रकृति की सहज सुंदरता का चित्रण किया गया है। इसमें छायावादी कविता की तरह कल्पना की अधिकता नहीं है, बल्कि यह प्रकृति के वास्तविक रूप को दर्शाती है।

  9. सामाजिक प्रेम: प्रगतिशील कविता में प्रेम को सामाजिक रूप में देखा गया है। यहाँ प्रेम एकांतिक न होकर सामूहिक है, जो समाज के लोगों के बीच सहानुभूति और सहयोग को बढ़ावा देता है।

  10. समाजवादी देशों का समर्थन: प्रगतिशील कविता समाजवादी देशों के विचारों का समर्थन करती है और इन देशों की नीतियों को सही ठहराती है। यह कविता समाजवाद और साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में खड़ी होती है।

प्रमुख कवि

प्रगतिशील कविता के प्रमुख कवियों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, गजानन माधव मुक्तिबोध, शिवमंगल सिंह सुमन आदि शामिल हैं। इन कवियों ने अपने साहित्यिक कार्यों के माध्यम से प्रगतिशील विचारधारा को फैलाया और समाज में सकारात्मक बदलाव की दिशा में काम किया।

  • नागार्जुन: नागार्जुन को प्रगतिशील कविता का प्रमुख कवि माना जाता है। उनकी कविताएँ सीधे समाज की समस्याओं और संघर्षों से जुड़ी होती थीं। उन्होंने अपनी कविताओं में मजदूरों, किसानों और सामान्य जनजीवन के बारे में लिखा और समाज में बदलाव की आवश्यकता को उजागर किया।

  • केदारनाथ अग्रवाल: केदारनाथ अग्रवाल का काव्य जीवन के यथार्थ को दर्शाता है। उनकी कविताओं में गहरे समाजिक मुद्दों का चित्रण होता है। वे एक ऐसी कविता रचनाकार थे जो मनुष्य के संघर्ष और उसकी नफरत, प्यार, और शोषण के बारे में लिखते थे।

  • त्रिलोचन: त्रिलोचन की कविताएँ जीवन के प्रतिकूलताओं और समस्याओं को बारीकी से चित्रित करती थीं। वे यथार्थवादी दृष्टिकोण से समाज की कठिनाइयों को उजागर करते थे।

  • गजानन माधव मुक्तिबोध: मुक्तिबोध की कविता में अस्तित्ववाद और मानवता के सवाल प्रमुख थे। उनकी कविता समाज की असमानताओं और व्यक्तित्व की समस्याओं का गहन विश्लेषण करती थी।

  • शिवमंगल सिंह सुमन: शिवमंगल सिंह सुमन की कविताएँ समाज की सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं के खिलाफ थीं। उनका काव्य जनवादी दृष्टिकोण को प्रकट करता है।

निष्कर्ष

प्रगतिशील कविता भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण धारा रही है, जिसने समाज के वंचित वर्गों, उनकी समस्याओं, और उनके अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया। इस कविता ने मार्क्सवादी विचारधारा को अपने साहित्य का आधार बनाया और समाज के भीतर बदलाव की आवश्यकता को व्यक्त किया। प्रगतिशील कविता के कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के असमानताओं, शोषण, और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई और भारतीय साहित्य में एक नई दिशा दी।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

अज्ञेय: जीवन परिचय और साहित्यिक योगदान

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

अज्ञेय का जन्म 1911 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था। उनके पिता हीरानंद शस्त्री एक प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता थे, जिन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति पर महत्वपूर्ण कार्य किए थे। इस कारण अज्ञेय का प्रारंभिक जीवन सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिवेश में बीता। अज्ञेय का वास्तविक नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन था, और वे भारतीय साहित्य के एक महत्वपूर्ण कवि, लेखक, और चिंतक माने जाते हैं।

अज्ञेय ने 1929 में विज्ञान में स्नातक तक शिक्षा प्राप्त की थी, लेकिन बाद में उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई। उनकी शिक्षा का प्रारंभिक प्रभाव उनके विचारों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता का था, जो बाद में उनके साहित्यिक दृष्टिकोण में भी दिखाई देता है।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ और स्वतंत्रता संग्राम
अज्ञेय का जीवन केवल साहित्य तक सीमित नहीं था, वे एक संघर्षशील व्यक्तित्व थे। स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनका झुकाव 1930 के दशक में हुआ, जब वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, अज्ञेय ने ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर पूर्वोत्तर भारत में जापान की सेनाओं के खिलाफ मोर्चा लिया। यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि इस समय ने उन्हें जीवन के कठोर और संघर्षपूर्ण पहलुओं को समझने का अवसर दिया।

शैक्षिक और पेशेवर जीवन
स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सक्रिय भागीदारी के बाद, अज्ञेय ने शैक्षिक क्षेत्र में भी योगदान दिया। उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। इसके अलावा, वे आल इंडिया रेडियो से भी जुड़े रहे, जहाँ उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा देने का कार्य किया। उनके व्यावसायिक जीवन ने उन्हें एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया।

साहित्यिक योगदान
अज्ञेय को आधुनिक हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कवि और लेखक माना जाता है। उनकी कविताएँ भारतीय समाज और मनुष्य की जटिलताओं का गहरा विश्लेषण करती हैं। उनका लेखन प्रायः अस्तित्ववाद, मनोविज्ञान, और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय समाज की वास्तविकताओं और व्यक्तित्व के भीतर के संघर्षों को प्रमुखता से उठाया।

उनकी कविता में नई कविता के तत्व साफ तौर पर देखे जा सकते हैं, जो विशेष रूप से उनके विचारों और दृष्टिकोण को प्रकट करते थे। अज्ञेय का लेखन हमेशा समाज की परंपराओं, अस्तित्व और आधुनिकता के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश करता था।

प्रयोगवाद में अज्ञेय की भूमिका

प्रयोगवाद (जिसे अंग्रेजी में "Experimentalism" कहा जाता है) 20वीं सदी के मध्य में भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण आंदोलन था, जिसका उद्देश्य कविता की संरचना और भाषा में नयापन लाना था। यह आंदोलन पुराने काव्यशास्त्र और पारंपरिक रूपों से बाहर निकलकर नई प्रयोगात्मक शैलियों की ओर अग्रसर हुआ। अज्ञेय प्रयोगवाद के प्रवर्तकों में से एक थे और इस आंदोलन में उनका योगदान बेजोड़ था।

  1. नई भाषा और शैलियाँ
    अज्ञेय ने प्रयोगवाद के तहत कविता में नई भाषा और शैली का प्रयोग किया। उन्होंने कविता को केवल शब्दों का खेल नहीं माना, बल्कि शब्दों के भीतर गहरे अर्थ और विचारों के साथ एक नया रूप देने की कोशिश की। उनकी कविताएँ न केवल बौद्धिक दृष्टिकोण से बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी गहरी थीं। अज्ञेय ने शब्दों और ध्वनियों के साथ प्रयोग किया, जिससे कविता में गहराई और अस्पष्टता की एक नई दुनिया खुली।

  2. अज्ञेय की कविताओं में प्रतीकवाद और विम्बवाद
    प्रयोगवाद में अज्ञेय ने प्रतीकवाद (Symbolism) और विम्बवाद (Imagism) का भी प्रभाव लिया। उन्होंने कविता के माध्यम से मनुष्य की आंतरिक दुनिया, अस्तित्ववाद, और आत्मा की खोज को व्यक्त किया। उनकी कविताओं में प्रतीक और विम्ब का उपयोग गहरे और सूक्ष्म अर्थों को व्यक्त करने के लिए किया गया, जिससे पाठक को एक नई विचारधारा से साक्षात्कार हुआ।

  3. बौद्धिक और दार्शनिक दृष्टिकोण
    प्रयोगवादी कविता में अज्ञेय ने एक बौद्धिक और दार्शनिक दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत किया। उनकी कविताओं में अस्तित्ववादी विचारों का गहरा प्रभाव दिखता है। उन्होंने कविता को एक साधारण साहित्यिक रूप के रूप में नहीं देखा, बल्कि इसे मानवता के गहरे सवालों और समाज की जटिलताओं का विश्लेषण करने का एक उपकरण माना।

नई कविता में अज्ञेय की भूमिका

नई कविता (जिसे "Nayi Kavita" भी कहा जाता है) का प्रारंभ 1950 के दशक में हुआ था और इसका उद्देश्य प्रगतिशीलता, समाजवाद और अस्तित्ववाद को कविता के केंद्र में लाना था। नई कविता में, अज्ञेय की भूमिका एक प्रमुख कवि के रूप में रही है, जिन्होंने इस आंदोलन को आकार देने में मदद की। उनकी कविता में नई कविता के सिद्धांत और प्रयोगवाद के तत्व समान रूप से मिलते हैं।

  1. नयी कविता का ऐतिहासिक और बौद्धिक संदर्भ
    अज्ञेय ने नई कविता के माध्यम से कविता को मानवतावादी और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने व्यक्तित्व की गहरी आंतरिक दुनिया और सामाजिक संघर्ष को अपनी कविताओं में उभारा। नई कविता की यह विशेषता थी कि यह व्यक्तिवाद और आत्मबोध के प्रति संवेदनशील थी, और अज्ञेय ने इस दिशा में अपनी कविताओं को नई दिशा दी।

  2. अज्ञेय का अस्तित्ववाद
    अज्ञेय की कविताओं में अस्तित्ववाद का प्रभाव साफ दिखाई देता है। उन्होंने मानवीय अस्तित्व के सवालों और अस्तित्व की निरर्थकता को अपने लेखन में उठाया। नई कविता के इस प्रवृत्तिक दृष्टिकोण के तहत, अज्ञेय ने मानवता के संकटों, असंतोष और अस्तित्व के प्रश्नों को सामने रखा। उनकी कविताओं में आत्म-परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए मनुष्य की आंतरिक दुनिया का विश्लेषण किया गया।

  3. सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता
    नई कविता में अज्ञेय ने समाजवाद और सामाजिक मुद्दों को भी उठाया। हालांकि उनका दृष्टिकोण अधिक व्यक्तिगत और अंतरंग था, फिर भी उन्होंने समाज और राजनीति के बारे में अपनी विचारधारा व्यक्त की। यह दृष्टिकोण उन्हें प्रगतिशील कवियों से अलग बनाता है, जो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को सीधे तौर पर अपनी कविताओं में व्यक्त करते थे। अज्ञेय ने कविताओं के माध्यम से संशय और विरोधाभास की बातें की, जिससे कविता में एक गहरी बौद्धिक जटिलता आयी।

  4. कविता का दार्शनिक रूप
    नई कविता में अज्ञेय ने कविता को एक दार्शनिक रूप दिया। उनकी कविताओं में प्रकृति, संसार, और मानव अस्तित्व के बारीक दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत किए गए हैं। वे कविता के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते थे कि मनुष्य का अस्तित्व क्या है और उसकी सीमाएँ क्या हैं।

निष्कर्ष

अज्ञेय की भूमिका प्रयोगवाद और नई कविता दोनों में अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। उन्होंने न केवल भारतीय कविता को एक बौद्धिक और दार्शनिक दृष्टिकोण दिया, बल्कि कविता में प्रयोग और नवाचार के तत्वों को भी प्रमुखता से स्थापित किया। अज्ञेय ने दोनों आंदोलनों में अपनी रचनाओं के माध्यम से आध्यात्मिकता, अस्तित्ववाद, और मानवता के सवालों को उठाया, जिससे भारतीय कविता को न केवल एक नई दिशा मिली, बल्कि यह भारतीय साहित्य के एक अनिवार्य हिस्से के रूप में स्थापित हो गया। उनके योगदान से यह दोनों आंदोलन और अधिक समृद्ध हुए और साहित्य की दुनिया में अज्ञेय का नाम सदैव अमर रहेगा।

निष्कर्ष
अज्ञेय का जीवन और उनका साहित्य दोनों ही भारतीय साहित्य और समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने न केवल साहित्य में एक नया मोड़ दिया, बल्कि अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं में भी असाधारण कार्य किए। उनका साहित्य आज भी भारतीय साहित्यिक धारा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, और उनकी कविताएँ आज भी पाठकों को गहरी सोच और चिंतन के लिए प्रेरित करती हैं।


गुरुवार, 19 नवंबर 2020

महादेवी वर्मा: जीवन परिचय और साहित्यिक योगदान

प्रारंभिक जीवन
महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले में 26 मार्च 1907 को हुआ था। उनके जीवन का अधिकांश समय इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में बीता, जो उनके साहित्यिक जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल था। वे प्रयाग महिला विद्यापीठ में अध्यापिका के रूप में कार्यरत रही थीं। उनका विवाह बचपन में ही हुआ था, लेकिन उन्होंने जीवनभर अविवाहित की तरह जीवन जीने का निर्णय लिया। उनका व्यक्तित्व बहुत ही आत्मनिर्भर और संकल्पित था। वे एक सशक्त महिला के रूप में समाज में पहचान रखती थीं।

महादेवी वर्मा न केवल एक प्रख्यात कवयित्री थीं, बल्कि एक कुशल चित्रकार और संगीतज्ञ भी थीं। उन्होंने साहित्य, कला और संगीत के विभिन्न पहलुओं में महारत हासिल की थी। इसके साथ ही उन्होंने कई रचनाओं के अनुवाद भी किए, जिनमें भारतीय और पश्चिमी साहित्य का मिश्रण देखने को मिलता है।

साहित्यिक योगदान और छायावाद
महादेवी वर्मा का नाम छायावाद के महान कवियों में लिया जाता है। छायावाद युग में कविता में प्रकृति के प्रति प्रेम, कल्पना, और रहस्यवाद की विशेषताएँ प्रमुख थीं, और महादेवी वर्मा ने इन तत्वों का पूरी तरह से अनुसरण किया। छायावादी कविता में प्रकृति को मानव मन की भावनाओं और कल्पनाओं के साथ जोड़ा जाता था।

महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रकृति के साथ एक गहरा संबंध स्थापित किया गया है। वे प्रकृति के माध्यम से ब्रह्म (ईश्वर) की अनुभूति करती हैं। उनके लिए प्रकृति केवल बाहरी दृश्य नहीं, बल्कि एक आंतरिक और दिव्य शक्ति का प्रतीक है, जो मानव जीवन से जुड़ी हुई है। यह रहस्यवाद उनके काव्य की विशेषता है, और उनके काव्य में प्रकृति की क्रियाओं को ईश्वर का संदेश माना जाता है।

प्रेम और विरह
महादेवी वर्मा की कविताओं का एक मुख्य विषय प्रेम और विरह (प्रेमिका का दुख) था। उन्होंने अपनी कविताओं में अप्रत्यक्ष प्रेम की अवधारणा को व्यक्त किया, जहाँ प्रेमी इस दुनिया से परे किसी अदृश्य शक्ति, या ईश्वर से जुड़ा होता है। उनका प्रेमी इस दुनिया से नहीं बल्कि प्रकृति के उस पार कहीं अस्तित्व में होता है।

महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रेम की पीड़ा की गहरी अभिव्यक्ति मिलती है, और उनकी कविताओं में यह प्रेम कभी शारीरिक नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक और सशक्त रूप में प्रस्तुत होता है। इस दृष्टि से महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीरा कहा गया है, क्योंकि उन्होंने प्रेम और विरह को ईश्वर के प्रति एक भक्ति की भावना से जोड़ा। उनके कविता संग्रह 'यामा' में भी इस प्रेम और पीड़ा का गहरा प्रभाव दिखता है, और यही कारण है कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया था।

गद्य लेखन और स्त्री चेतना
महादेवी वर्मा केवल कवि ही नहीं, बल्कि एक सशक्त गद्य लेखक भी थीं। उनका गद्य लेखन विशेष रूप से उनके संस्मरण और रेखाचित्र के लिए प्रसिद्ध है। उनके गद्य में एक विशिष्ट स्त्री-चेतना दिखाई देती है, जहाँ उन्होंने न केवल अपने जीवन के अनुभवों को साझा किया, बल्कि महिलाओं की शिक्षा और स्वतंत्रता के विषय पर भी जोर दिया।

महादेवी वर्मा ने अपने जीवन में स्त्री-शिक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए और स्त्री के सामाजिक उत्थान के लिए भी योगदान दिया। उनका गद्य लेखन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे महिलाओं के अधिकारों और उनके आत्मनिर्भरता के पक्ष में सक्रिय थीं।

सम्मान और पुरस्कार
महादेवी वर्मा की काव्य रचनाएँ अत्यधिक प्रभावशाली और संवेदनशील रही हैं, और उन्हें उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले। उनकी काव्यरचनाओं के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार (1956) से सम्मानित किया गया, जो भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार है।

निष्कर्ष
महादेवी वर्मा ने छायावाद आंदोलन में एक नई दिशा दी और कविता को एक आध्यात्मिक और रहस्यवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी कविताओं में प्रकृति, प्रेम और विरह के दर्शन गहरे हैं, और उन्होंने भारतीय साहित्य में एक विशिष्ट स्थान स्थापित किया है। उनका साहित्य न केवल कविता में, बल्कि गद्य लेखन में भी समान रूप से महत्वपूर्ण रहा है। उनके योगदान को साहित्यिक समाज हमेशा याद रखेगा, और वे आधुनिक हिंदी साहित्य की एक शिखर लेखिका के रूप में हमेशा प्रतिष्ठित रहेंगी।

बुधवार, 18 नवंबर 2020

सगुण भक्ति और सगुण भक्त कवि

 सगुण भक्ति का अर्थ और महत्त्व

सगुण भक्ति का अर्थ है, "ईश्वर की उपासना उनके साकार रूप (गुणों के साथ) में करना," यानी ईश्वर के रूपों जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव, विष्णु, आदि की पूजा करना। सगुण भक्ति में ईश्वर की न केवल असीम शक्ति, बल्कि उनके व्यक्तिगत गुण और रूपों का भी महत्व है। इसके अनुसार, भगवान के रूप और गुणों की उपासना करके भक्त उनसे अपने ह्रदय की दूरी मिटाने और उनके साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

सगुण भक्त कवियों का योगदान
सगुण भक्त कवि वैष्णव थे और इनकी भक्ति का मुख्य आधार अवतारवाद था, जिसमें भगवान के विभिन्न अवतारों की पूजा की जाती थी। विशेष रूप से राम और कृष्ण के अवतारों को पूजने का चलन था। इन भक्तों ने ब्रह्म की उपासना उनके साकार रूपों में की, अर्थात उन्होंने राम, कृष्ण, और अन्य देवताओं के रूपों में ईश्वर का दर्शन और उन्हें अपना इष्ट मानकर पूजा की।

सगुण भक्ति का मुख्य उद्देश्य था ईश्वर के साथ प्रिय, सखा और दासभाव के रूप में संबंध स्थापित करना। ये भक्त स्वयं को भगवान का प्रिय (प्रेमी), सखा (मित्र) या दास (सेवक) मानते थे। इस भक्ति में प्रेम को सबसे बड़ा मानवीय मूल्य माना गया और यह प्रेम सच्चे भाव से ईश्वर की भक्ति में निहित होता था। इन कवियों ने प्रेम को मानव जीवन का सबसे पवित्र और सर्वोत्तम मूल्य माना, जो व्यक्ति को दिव्य प्रेम की ओर ले जाता है।

सगुण भक्ति के कवियों का साहित्य विशेष रूप से ब्रज और अवधी बोलियों में रचा गया। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में भगवान के जीवन, उनके चरित्र, और उनके गुप्त एवं स्पष्ट रूपों का वर्णन किया, ताकि आम जनमानस को उनका महत्व समझ में आ सके।

सगुण भक्ति के प्रमुख प्रकार
सगुण भक्ति के दो प्रमुख प्रकार माने जाते हैं:

  1. कृष्णभक्ति काव्य:
    कृष्ण भक्ति काव्य में मुख्य रूप से श्री कृष्ण के जीवन, उनके बाल्यकाल, उनके माखन चोरी, गोवर्धन धारण, रासलीला, और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित काव्य रचनाएँ होती हैं। कृष्ण भक्ति के कवि श्री कृष्ण को भगवान का परम रूप मानते थे और उन्हें सभी जीवों का उद्धारक मानते थे। इन कवियों में प्रमुख कवि सूरदास हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण के बचपन की लीलाओं को अपनी रचनाओं में अत्यधिक सुंदरता से चित्रित किया।

  2. रामभक्ति काव्य:
    राम भक्ति काव्य में श्री राम के जीवन, उनके आदर्शों, उनके द्वारा किए गए कार्यों और उनके संघर्षों का वर्णन किया जाता है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम (संपूर्ण आदर्श पुरुष) माना जाता था और उनकी पूजा में मर्यादा, सत्य, और धर्म का पालन करने की प्रेरणा दी जाती थी। रामभक्ति के प्रमुख कवियों में तुलसीदास का नाम लिया जाता है, जिन्होंने अपनी काव्यरचना रामचरित मानस के माध्यम से राम के जीवन के आदर्शों को जीवित किया।

सगुण भक्ति के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ

  1. सूरदास:
    सूरदास कृष्ण भक्ति के सबसे बड़े कवि थे। उनकी रचनाएँ विशेष रूप से श्री कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं पर आधारित हैं। "सूरसागर" उनकी प्रमुख रचना है, जिसमें उन्होंने श्री कृष्ण के बाल्यकाल की माखन चोरी, गोवर्धन पूजा, और रासलीला का अत्यधिक सुंदर वर्णन किया।

  2. तुलसीदास:
    तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की, जिसमें उन्होंने श्रीराम के जीवन के आदर्शों को सजीव रूप में प्रस्तुत किया। यह काव्यरचना हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और भारत में राम के भक्तों के लिए यह एक प्रमुख ग्रंथ है।

  3. कबीर:
    हालांकि कबीर को अधिकतर निर्गुण भक्ति का कवि माना जाता है, लेकिन उन्होंने राम और कृष्ण की उपासना भी की। कबीर का भक्ति मार्ग सत्य और प्रेम से जुड़ा था। उनकी कविताएँ जीवन के सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं।

  4. रामानंद:
    रामानंद ने राम के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम व्यक्त किया। वे तुलसीदास के समय से पूर्व राम के प्रमुख भक्त थे और उनके प्रभाव में अनेक भक्ति कवि आए। रामानंद के भक्ति मार्ग ने समाज में भक्ति की चेतना को जागरूक किया।

निष्कर्ष
सगुण भक्ति कवियों का योगदान भारतीय भक्ति साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है। इन कवियों ने भगवान के विभिन्न रूपों की उपासना करके प्रेम और भक्ति के माध्यम से जीवन के उच्चतम आदर्शों को प्रस्तुत किया। उनके काव्य साहित्य में प्रेम, भक्ति, और सत्य का संदेश आज भी लोगों के दिलों में जीवित है। सगुण भक्ति ने आम जन को ईश्वर से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम प्रदान किया, और उनके काव्य ने एक नई दिशा में धार्मिक और भक्ति साहित्य को आकार दिया।

बुधवार, 11 नवंबर 2020

कृष्ण भक्ति और सूरदास

  कृष्ण भक्ति का परिचय

कृष्ण भक्ति, सगुण भक्ति के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण धारा है, जो भगवान श्री कृष्ण की पूजा और भक्ति पर केंद्रित है। इस भक्ति के प्रवर्तक बल्लभाचार्य थे, जिन्होंने कृष्ण को परमात्मा मानकर उनकी पूजा को प्रेरित किया। बल्लभाचार्य के शिष्य और उनके पुत्र के शिष्यों ने कृष्ण भक्ति को फैलाया और इसके लिए उन्होंने अष्टछाप कवि की संज्ञा प्राप्त की। इन कवियों का मुख्य केंद्र मथुरा था, जहाँ उन्होंने कृष्ण की लीलाओं, उनके गुणों, और उनकी उपासना को प्रमुखता दी।

कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण को भगवान का प्रियतम, सखा और प्रिय माना गया है। कवियों ने कृष्ण की बाल लीलाओं, रासलीलाओं और उनकी जीवन गाथाओं का बखूबी वर्णन किया। यह काव्य शैली ब्रजभाषा में लिखी गई, जो क्षेत्रीय साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण थी।

सूरदास और उनकी कृष्ण भक्ति
सूरदास कृष्ण भक्ति के सबसे प्रसिद्ध कवि थे और उन्हें कृष्ण की भक्ति का परम भक्त माना जाता है। सूरदास का जन्म लगभग 1478 ई. के आस-पास दिल्ली के पास स्थित सीही गाँव में हुआ था। वे जन्म से अंधे थे, लेकिन उनकी रचनाएँ और भक्ति की गहराई ने उन्हें भारतीय साहित्य के महान कवियों में स्थान दिलाया। सूरदास ने अपनी अधिकांश जीवन यात्रा वृंदावन में श्री नाथ मंदिर के पास बिताई। उनकी भक्ति का मार्ग श्री कृष्ण के प्रति सखा भाव था, अर्थात उन्होंने कृष्ण को अपना मित्र मानकर भक्ति की।

सूरदास के गुरु का नाम बल्लभाचार्य था, जिनसे उन्होंने कृष्ण भक्ति की शिक्षा ली। सूरदास की रचनाओं का संकलन मुख्य रूप से गेय मुक्तक काव्य में किया गया, जिनमें उन्होंने कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं का वर्णन किया। सूरदास ने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखीं, जिससे उनकी रचनाएँ जनता के बीच लोकप्रिय हो सकीं।

सूरदास की रचनाओं में कृष्ण की बाल लीलाओं का अद्भुत चित्रण किया गया। उन्होंने कृष्ण को सखा रूप में पूजा और उनकी क्रियाओं में अनंत प्रेम और भक्ति की भावना व्यक्त की। उनके काव्य में राधा और कृष्ण के प्रेम को भी अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, और इसे भारतीय भक्ति साहित्य में एक प्रमुख विषय माना गया।

सूरदास की प्रमुख रचनाएँ
सूरदास की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘सूरसागर’ है। यह काव्य कृष्ण भक्ति का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं, माखन चोरी, गोवर्धन पूजा, रासलीला और कृष्ण के प्रेम में डूबे भक्तों के आस्थाएँ और भावनाएँ व्यक्त की हैं। इ में कृष्ण के प्रेम, सखा रूप, और राधा के साथ उनके अद्वितीय संबंधों का सजीव चित्रण किया गया है।

सूरदास की कविता की विशेषताएँ
सूरदास की कविता की कई विशेषताएँ हैं, जो उन्हें अन्य भक्ति कवियों से अलग करती हैं:

  1. सख्य-भाव की भक्ति:
    सूरदास की भक्ति का सबसे प्रमुख भाव था सख्य-भाव, जिसमें कृष्ण को भगवान से अधिक एक मित्र के रूप में पूजा गया। सूरदास ने कृष्ण से अपनी मित्रता के भाव में गहरी भक्ति व्यक्त की, जो उनके काव्य का केंद्रीय विषय बना।

  2. कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन:
    सूरदास ने विशेष रूप से कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया है, जैसे कि माखन चोरी, गोवर्धन पर्वत उठाना, और रासलीला। इन लीलाओं के माध्यम से सूरदास ने कृष्ण के दिव्य रूप और उनकी मनमोहक हरकतों का सुंदर चित्रण किया।

  3. राधा-कृष्ण का प्रेम:
    सूरदास ने राधा और कृष्ण के प्रेम को अत्यधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि राधा और कृष्ण का प्रेम अविनाशी और परम प्रेम है, जो संसार के सभी प्रेमों से श्रेष्ठ है। उनके काव्य में राधा और कृष्ण के बीच के अद्वितीय और दिव्य प्रेम का सजीव वर्णन मिलता है।

निष्कर्ष
सूरदास और कृष्ण भक्ति काव्य ने भारतीय भक्ति साहित्य को एक नई दिशा दी। सूरदास ने कृष्ण को न केवल भगवान बल्कि अपने सखा के रूप में पूजा और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को काव्य के रूप में प्रस्तुत किया। सूरदास का काव्य न केवल कृष्ण भक्ति के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है, बल्कि इसमें प्रेम, भक्ति और अद्वितीय रूप से मानव भावनाओं की गहराई का भी चित्रण मिलता है। उनके काव्य की लोकप्रियता आज भी बनी हुई है और वे भारतीय साहित्य के महान कवि के रूप में सम्मानित हैं।

रविवार, 1 नवंबर 2020

प्रयोगवादी कविता

सप्तक और प्रयोगवाद:

सप्तक का संदर्भ उस महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन से है जिसे हिंदी कविता में प्रयोगवाद के रूप में जाना जाता है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ (1943) को हिंदी कविता में प्रयोगवाद की शुरुआत के रूप में माना जाता है। ‘तारसप्तक’ में सात प्रमुख कवियों की कविताओं को शामिल किया गया था, जो हिंदी कविता की एक नई दिशा की ओर इशारा कर रहे थे। ये कवि पुराने शिल्प, प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए, नई भाषा, शिल्प और विचारधारा की खोज में थे।

प्रयोगवाद की विशेषताएँ:

प्रयोगवाद का जन्म पुराने काव्य शिल्प और काव्यात्मक सिद्धांतों से असंतोष और विद्रोह के परिणामस्वरूप हुआ था। इस साहित्यिक आंदोलन ने कविता की पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी और एक नई तरह की कविता की रचना की।

प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ:

  1. आधुनिकतावाद का प्रभाव: प्रयोगवादी कविता पर यूरोपीय आधुनिकतावाद का गहरा प्रभाव था। यह आंदोलन पारंपरिक और रूढ़िवादी काव्यशास्त्र से अलग, आधुनिकता और व्यक्तित्व के महत्व को मान्यता देता था।

  2. व्यक्तिवाद: प्रयोगवाद के तहत कविता में व्यक्तिगत जीवन और अस्तित्व की जटिलताओं को प्राथमिकता दी गई। यह कविता एक तरह से व्यक्तिगत अनुभवों और अस्तित्व की पहचान को व्यक्त करती है।

  3. बुद्धि का महत्त्व: भावना की जगह बुद्धि को अहमियत दी गई। यह कविता विचारप्रधान और तर्कपूर्ण होती थी, जिसमें संवेदनाओं और व्यक्तित्व के बजाय तर्क और दार्शनिक विचारों का प्रवाह अधिक होता था।

  4. मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण: प्रयोगवादी कविता में विशेष रूप से मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं और संघर्षों को प्रस्तुत किया गया।

  5. संदेह और अनास्था: द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव के कारण कविता में संदेह, अनास्था और अनिश्चितता की भावना देखने को मिलती है।

  6. नए प्रतीक और उपमान: प्रयोगवादी कवियों ने पुराने प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए नए प्रतीक, उपमान और भाषा का प्रयोग किया। इससे कविता में नवीनता और ताजगी आई।

  7. भाषा-शैली की विविधता: प्रयोगवादी कवि कविता की भाषा में विविधता पर जोर देते थे। वे मानते थे कि कविता की भाषा-शैली में एकरूपता को रूढ़िवादिता माना जाता है, और इसका विरोध करते थे।

प्रयोगवाद के तीन मुख्य पहलू:

  1. व्यक्ति को महत्त्व: प्रयोगवादी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी पहचान को महत्व दिया गया। जैसे अज्ञेय की कविता "यह दीप अकेला स्नेह भरा..." में व्यक्तित्व और अस्तित्व के संघर्ष को प्रमुखता दी जाती है। इसमें व्यक्तिगत जीवन, विचार और भावनाओं को व्यक्त किया गया है।

  2. प्रयोगशीलता: प्रयोगवादी कवियों ने कविता के पुराने पैटर्न और शिल्प को अस्वीकार कर दिया और शिल्प, भाषा, प्रतीक, उपमान आदि में नए प्रयोग किए। उदाहरण के लिए, गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नेमिचंद्र जैन, और अज्ञेय जैसे कवियों ने कविता की परंपराओं को चुनौती दी और नए विचार, शिल्प और प्रतीकों का निर्माण किया।

  3. विविधता: प्रयोगवादी कविता में शिल्प और भाषा की विविधता होती थी। एक कवि की अलग-अलग कविताओं में भाषा और शिल्प के रूप में भिन्नता दिखाई देती थी। यही वजह थी कि प्रयोगवादी कविता एक निश्चित पैटर्न में नहीं बँधी थी, बल्कि यह विविधतापूर्ण होती थी।

सप्तक का महत्व:

तारसप्तक’ और बाद में ‘दूसरा सप्तक’ ने हिंदी कविता को एक नई दिशा दी। इन संकलनों में कविता की नयी शैलियों और प्रयोगों की झलक मिलती है। तारसप्तक के कवि नए विचारधाराओं और साहित्यिक प्रयोगों के साथ कविता की पुरानी सीमाओं को तोड़ने में लगे थे। यह कविता का एक व्यक्तिवादी रूप था, जिसमें कवि अपनी निजी भावनाओं, अस्तित्व के संकटों और सामाजिक सन्दर्भों पर अपनी दृष्टि रखते थे।

निष्कर्ष:

प्रयोगवाद एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन था जिसने हिंदी कविता में नये विचारों और शिल्प को जन्म दिया। यह कविता में नवीनता, व्यक्तिवाद और शिल्पगत प्रयोग का प्रतीक बनकर उभरी। सप्तक ने हिंदी कविता में एक नई ताजगी और दिशा लाई और यह कविता की परंपराओं को चुनौती देते हुए कविता को एक व्यक्तिगत और बौद्धिक मंच प्रदान किया।

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

मलिक मुहम्मद जायसी

 

मलिक मुहम्मद जायसी (1492 ई. - ?) को हिंदी साहित्य में एक महान सूफी कवि माना जाता है। वे प्रेमाश्रयी (प्रेममार्गी) कवि थे, जिन्होंने सूफी विचारधारा को अपनी कविता में बहुत गहराई से उतारा। उनका काव्य जीवन और प्रेम के सूफी दृष्टिकोण का प्रतीक था। 'पद्मावत' उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसे अवधी भाषा में लिखा गया था। इसमें राजा रतनसेन और राजकुमारी पद्मावती के प्रेम की कथा है। इस काव्य के माध्यम से जायसी ने प्रेम को एक आध्यात्मिक अनुभव के रूप में चित्रित किया।

जायसी के विचार और उनके काव्य की विशेषताएँ:

  1. प्रेम संबंधी विचार: जायसी के अनुसार प्रेम एक दिव्य और आत्मा को मोक्ष देने वाला अनुभव है। उनका प्रसिद्ध कथन है—

    "मानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।"
    इसका अर्थ है कि प्रेम ही मानव को स्वर्ग (बैकुंठ) तक पहुँचा सकता है, अन्यथा जीवन में कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। जायसी के अनुसार प्रेम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप में सर्वोत्तम है। यह विचार सूफी प्रेम के सिद्धांत को ही दर्शाता है, जिसमें प्रेम को ईश्वर से मिलने का माध्यम माना जाता है।

  2. गुरु संबंधी विचार: जायसी का मानना था कि गुरु ही उस मार्ग को दिखाता है, जो आत्मा को सत्य तक पहुँचाता है। उनके अनुसार बिना गुरु के कृपा के कोई भी व्यक्ति ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता।

    "गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा, बिनु गुरु कृपा को निरगुन पावा।"

  3. ब्रह्म संबंधी विचार: जायसी के अनुसार पद्मावती का प्रतीक ईश्वर है, जबकि रतनसेन का प्रतीक मनुष्य या जीव है। उनका यह दर्शन सूफी विचारधारा से प्रभावित था, जिसमें ईश्वर और जीव के बीच प्रेम को केंद्रित किया गया है। पद्मावती और रतनसेन के प्रेम की कथा, उनकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा के बीच का प्रेम ही है।

  4. नागमती का वियोग: जायसी की कविता में नागमती के वियोग का वर्णन विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस कथा में प्रेमिका के वियोग में व्यक्ति का दुख और पीड़ा को चित्रित किया गया है। यह वियोग, रचनात्मक रूप से बारहमासा के रूप में व्यक्त किया गया है। बारहमासा एक काव्य रूप है जिसमें वर्ष के बारह महीनों में प्रेमिका के वियोग का वर्णन किया जाता है।

  5. बारहमासा: बारहमासा एक विशेष काव्यशैली है जिसका प्रयोग जायसी ने वियोग के दुःख को व्यक्त करने के लिए किया। यह काव्य रूप विशेष रूप से प्रेम और वियोग के भावों को व्यक्त करता है, जिसमें साल के प्रत्येक महीने में प्रेमिका के वियोग का वर्णन किया जाता है। इस शैली का उपयोग जायसी ने नागमती के वियोग के वर्णन में किया।

  6. पद्मावत और मसनवी शैली: ‘पद्मावत’ एक मसनवी शैली में लिखा गया काव्य है। मसनवी शैली सूफी काव्य की एक प्रमुख शैली है, जिसमें कथात्मक रूप से प्रेम और ईश्वर के साथ आत्मा के मिलन की कथा को व्यक्त किया जाता है। जायसी की काव्यशैली में प्रेम, भक्ति और सूफी दर्शन के गहरे विचार समाहित हैं।

निष्कर्ष:

जायसी ने अपनी काव्य रचनाओं में सूफी विचारधारा और प्रेम के आध्यात्मिक स्वरूप को प्रकट किया। उनकी ‘पद्मावत’ में प्रेम को केवल शारीरिक आकर्षण से अलग, एक आत्मिक और दिव्य अनुभव के रूप में चित्रित किया गया है। उनकी कविताएँ न केवल प्रेम के शारीरिक रूप को, बल्कि प्रेम को आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में प्रस्तुत करती हैं। उनके विचार और काव्य शिल्प हिंदी साहित्य में सूफी दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण परंपरा के रूप में देखे जाते हैं।4o mini

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

संत कबीर: जीवन और विचार


जीवन परिचय
संत कबीर का जन्म संवत् 1455 (1398 ई.) में बनारस (वर्तमान वाराणसी) में हुआ था। उन्हें नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति ने पाला था, और यह बात बहुत ही अद्वितीय है क्योंकि कबीर का पालन-पोषण एक जुलाहे के परिवार में हुआ था। उनके जीवन के बारे में कई प्रकार की कथाएँ प्रचलित हैं, लेकिन उनका साक्षात जीवन और कार्य उनकी वाणी के माध्यम से ही जीवित रहता है। कबीर का कार्य जुलाहे का था, और वे विशेष रूप से ज्ञानमार्गी कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

कबीर की शिक्षा-दीक्षा सामान्यत: नहीं हुई थी। वे स्वयं स्वीकार करते थे, "मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ", अर्थात उन्होंने कभी पुस्तक, कलम या कागज का प्रयोग नहीं किया। बावजूद इसके, उनकी कविताएँ, जो आज भी प्रचलित हैं, साहित्य, दर्शन और भक्ति की एक अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।

कबीर की वाणी और रचनाएँ
संत कबीर की वाणी का संकलन 'बीजक' में किया गया है। इस संकलन के तीन प्रमुख खंड हैं:

  1. साखी - इसमें कबीर के अद्वितीय विचार और अनुभव होते हैं, जिन्हें बहुत ही सरल और सीधी भाषा में व्यक्त किया गया है।
  2. सबद - यह खंड कबीर के भक्ति संगीत और कविताओं का संग्रह है।
  3. रमैनी - इसमें कबीर की कुछ विशिष्ट रचनाएँ और उनके विचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

कबीर के प्रमुख विचार
कबीर की कविताएँ और विचार बहुत गहरे और समय से परे हैं। उनके विचार निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित थे:

  1. कविता के बारे में – कबीर ने कविता को केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि ब्रह्म ज्ञान के रूप में माना था। उनका कहना था, "तुम जिन जानो गीत है वह निज ब्रह्म विचार," अर्थात, कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि ब्रह्म की समझ और सत्य का साक्षात्कार है।

  2. निर्गुण ब्रह्म के बारे में – कबीर ने निर्गुण ब्रह्म (जिसका कोई रूप या आकार नहीं होता) की महत्वपूर्ण अवधारणा को प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि ब्रह्म न तो किसी का रूप है और न ही किसी का आकार। वे कहते थे:
    "जाके मुख माथा नहीं नाहीं रूप कुरूप,
    पुहुप बास तैं पातरा ऐसो तत्त अनूप।"
    अर्थात, ब्रह्म न तो किसी का रूप है, न आकार, और वह सबका आधार है।

  3. प्रेम को महत्व – कबीर के लिए प्रेम सर्वोपरि था। उन्होंने प्रेम को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना और इसे आत्मा के ब्रह्म से जुड़ने का मार्ग समझा। उनका कहना था, "कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नहिं," यानी प्रेम वह घर है जहां ईश्वर निवास करते हैं।

  4. मूर्ति-पूजा का विरोध – कबीर ने मूर्ति पूजा का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा, "पाहन पूजे हरि मिलें तौ मैं पूजूँ पहार," अर्थात अगर पत्थर पूजा से भगवान मिल सकते हैं तो वे पहाड़ की पूजा करेंगे। इस कथन से कबीर का उद्देश्य यह था कि भगवान की पहचान रूप और आकार से नहीं, बल्कि आत्मा और सच्चाई से होती है।

  5. हिंदू-मुस्लिम एकता – कबीर ने हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों को एकता की भावना में बांधने का प्रयास किया। उनका प्रसिद्ध वाक्य है:
    "हिंदू मुए राम कहि, मुसलमान खुदाई,"
    जिसका अर्थ है कि हिंदू राम के नाम से मरे हैं और मुसलमान खुदा के नाम से। कबीर ने यह दिखाया कि सभी धर्मों का मूल एक है और हमें धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठना चाहिए।

  6. गुरु का महत्व – कबीर ने गुरु की महिमा का बखान किया और उन्हें मार्गदर्शन देने वाला बताया। उनका प्रसिद्ध उद्धरण है:
    "गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय,"
    अर्थात, जब गुरु और भगवान दोनों सामने खड़े हों तो मैं सबसे पहले गुरु के चरणों में प्रणाम करूंगा, क्योंकि गुरु के बिना भगवान का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है।

निष्कर्ष
संत कबीर का जीवन और उनका दर्शन हमें यह सिखाता है कि धार्मिकता और भक्ति किसी एक धर्म या परंपरा में बंधी नहीं होती, बल्कि यह सार्वभौमिक है। उनके निर्गुण ब्रह्म, प्रेम और धार्मिक एकता के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर का संदेश था कि ईश्वर एक है, और उसकी प्राप्ति का कोई निश्चित मार्ग नहीं है—वह किसी रूप, आकार या धर्म से परे है। उनकी कविताएँ न केवल भक्ति मार्ग को स्पष्ट करती हैं, बल्कि हमारे भीतर के सत्य को पहचानने की प्रेरणा भी देती हैं।

शनिवार, 5 सितंबर 2020

हिंदी साहित्य में निर्गुण भक्ति

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ और शाखाएँ

निर्गुण भक्ति एक प्रमुख भक्ति आंदोलन था जो मुख्य रूप से भारतीय संत कवियों के द्वारा प्रचारित किया गया। इस भक्ति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है, अर्थात् भगवान को निराकार, निरूपक और अव्यक्त रूप में पूजा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के भीतर स्थित ईश्वर के अनुभव की प्राप्ति था, न कि बाहरी मूर्तियों या प्रतीकों की पूजा।

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ:

  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना: निर्गुण भक्ति के कवियों ने ब्रह्म या ईश्वर को निराकार और निर्गुण रूप में पूजा। वे मानते थे कि भगवान का कोई रूप नहीं होता और न ही वह किसी विशेष प्रतीक या मूर्ति के रूप में अस्तित्व रखते हैं।

  2. अवतारवाद का अस्वीकार: निर्गुण कवियों ने अवतारवाद को अस्वीकार किया। वे यह मानते थे कि भगवान केवल अवतारों के रूप में नहीं आते, बल्कि वह सब में समाहित होते हैं।

  3. मूर्ति-पूजा का विरोध: निर्गुण भक्ति में मूर्ति पूजा का विरोध किया गया। ये कवि मानते थे कि भगवान का कोई रूप नहीं है, इसलिए मूर्ति पूजा निरर्थक है।

  4. ईश्वर को मानव के भीतर देखना: निर्गुण भक्ति के कवियों के अनुसार, भगवान हर व्यक्ति के भीतर मौजूद होते हैं। वे मानते थे कि व्यक्ति को अपने भीतर ही ईश्वर की अनुभूति होनी चाहिए।

  5. ज्ञान और प्रेम का महत्त्व: ईश्वर तक पहुँचने के लिए ज्ञान और प्रेम को माध्यम माना गया। ज्ञान का मतलब सत्य की तलाश और आत्मज्ञान था, जबकि प्रेम ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति का रूप था।

  6. गुरु का महत्त्व: निर्गुण कवियों ने गुरु को अत्यंत महत्त्व दिया। उनका मानना था कि गुरु की कृपा से ही व्यक्ति भगवान के साक्षात्कार तक पहुँच सकता है।

  7. समानता का आदर्श: निर्गुण भक्ति ने जातिवाद और ऊँच-नीच के भेद को नकारा। सभी मनुष्यों को समान समझने का आग्रह किया गया, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग से हों।

निर्गुण भक्ति की दो प्रमुख शाखाएँ:

क. ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी:

  1. संतकाव्य: ज्ञानाश्रयी भक्ति काव्य को संतकाव्य कहा जाता है। इसमें विशेष रूप से ज्ञान, साधना और योग के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति पर जोर दिया गया।

  2. ज्ञान और योग: इसमें ब्रह्म की उपासना के लिए ज्ञान और योग को मार्ग माना गया। यह शाखा विशेष रूप से शंकराचार्य के अद्वैतवाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद से प्रभावित थी।

  3. मूर्ति पूजा और बाहरी आचार का विरोध: इस शाखा के कवियों ने मूर्ति पूजा, नाम जप, तीर्थाटन आदि जैसे बाहरी आचारों का विरोध किया। उन्होंने आंतरिक साधना और आत्मा के अनुभव को प्राथमिकता दी।

  4. जातिवाद का विरोध: इस शाखा के कवियों ने जातिवाद और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने समानता का प्रचार किया और समाज में समरसता की ओर प्रेरित किया।

  5. प्रमुख कवि: इस शाखा के प्रमुख कवियों में कबीर, नानक, दादू, और रैदास शामिल हैं। इन कवियों ने अपने काव्य में इन विचारों को प्रसारित किया।

ख. प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी:

  1. सूफी कविता: प्रेमाश्रयी भक्ति को सूफी कविता भी कहा जाता है। इस शाखा में कवि ईरानी सूफी दर्शन से प्रभावित थे।

  2. प्रेम को मार्ग मानना: प्रेमाश्रयी भक्ति में प्रेम को ही ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता माना गया। इन कवियों के अनुसार, व्यक्ति को प्रेम के द्वारा भगवान से मिलन प्राप्त हो सकता है।

  3. प्रेयसी और प्रेमी का रूप: सूफी कविता में ईश्वर को प्रेयसी और जीव को प्रेमी के रूप में चित्रित किया गया। इसके अनुसार, पूरी दुनिया उसी प्रेयसी के रूप का प्रतिविंब है।

  4. लोककथाओं का आधार: प्रेमाश्रयी कवियों ने भारतीय लोककथाओं और प्रेमकाव्य को आधार बनाकर प्रबंध काव्य की रचना की। इन कवियों का उद्देश्य प्रेम और भक्ति के माध्यम से भगवान के पास पहुँचना था।

  5. प्रमुख कवि: इस शाखा के प्रमुख कवियों में जायसी, कुतुबन, मंझन, और उस्मान शामिल हैं। इन कवियों ने सूफी दर्शन के अनुसार ईश्वर के प्रेम को केंद्रित किया।

निष्कर्ष:

निर्गुण भक्ति का उद्देश्य न केवल बाहरी आचार और धर्म के प्रति श्रद्धा को नकारना था, बल्कि इसने एक आंतरिक यात्रा की ओर इंगीत किया, जिसमें व्यक्ति को अपने भीतर स्थित ईश्वर से मिलन की प्राप्ति करनी थी। इस भक्ति मार्ग में ज्ञान, प्रेम और साधना को मुख्य महत्व दिया गया।

सोमवार, 10 अगस्त 2020

भारतेंदु युग (सन् 1850 से 1900 ई.)


भारतेंदु युग का नामकरण भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया, जिन्हें हिंदी साहित्य का प्रथम आधुनिक कवि और साहित्यकार माना जाता है। यह युग हिंदी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जो नई सोच, नई भाषा, और नई संवेदनाओं का वाहक बना। इस युग में न केवल कविता का विकास हुआ, बल्कि गद्य लेखन भी स्थापित हुआ, जिससे साहित्य का दायरा विस्तारित हुआ।

भारतेंदु युग की विशेषताएँ:

  1. कविता और गद्य का समांतर विकास:

    • इस युग में कविता के साथ-साथ गद्य लेखन का भी तेजी से विकास हुआ। कविता अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई, जबकि गद्य खड़ी बोली में लिखा गया। खड़ी बोली का उपयोग इस युग में हिंदी के अधिकृत रूप के रूप में किया गया।
  2. काव्य में स्वचेतनता:

    • भारतेंदु युग की कविताओं में स्वचेतनता (self-consciousness) की प्रवृत्ति दिखाई देती है। कवियों ने अपने समय की समस्याओं को संबोधित किया, जिसमें देशभक्ति, समाज सुधार, ब्रिटिश शासन और भारतीय संस्कृति की चर्चा की गई।
    • राज-भक्ति के साथ-साथ देशभक्ति की कविताओं का भी विस्तार हुआ। भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं पर भी चिंता व्यक्त की गई।
  3. सामाजिक और राजनीतिक विचार:

    • भारतेंदु युग में कवियों ने ब्रिटिश शासन के नकारात्मक प्रभावों की आलोचना की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों और भारत में अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई।
    • निज भाषा के महत्व को भी इस युग में बल मिला। भारतेंदु और उनके समकालीन कवियों ने यह संदेश दिया कि यदि भारतीय समाज को समृद्ध और सशक्त बनाना है, तो उसे अपनी निज भाषा का सम्मान करना चाहिए।
  4. साहित्यिक योगदान:

    • भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य में काव्य शिल्प और भावों के साथ-साथ राष्ट्रीयता और सामाजिक जागरूकता की झलक मिलती है। उनकी रचनाएँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।
    • भारतेंदु युग की कविताओं में, विशेष रूप से देशभक्ति और निज भाषा के विकास पर जोर दिया गया।

भारतेंदु युग की कुछ प्रमुख कविताएँ:

  1. कठिन सिपाही द्रोह अनल जल बल सों नासी:

    • इस कविता में कवि ने विभिन्न विपत्तियों और कठिनाइयों के बावजूद भारतीय वीरता को प्रस्तुत किया है। यह कविता संघर्ष और शौर्य की प्रतीक है।
  2. अँग्रेज राज सुख साज सबै है भारी:

    • इस कविता में ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की गई है, जिसमें यह दर्शाया गया कि किस प्रकार से भारतीयों का शोषण किया जा रहा था।
  3. निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल:

    • यह कविता भारतीय भाषा और संस्कृति के महत्व को समझाती है। कवि ने यह बताया कि निज भाषा की उन्नति ही समाज की और राष्ट्र की उन्नति का आधार है।
    • कविता का संदेश: "बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल" अर्थात अपनी भाषा के ज्ञान के बिना, किसी भी व्यक्ति का मानसिक संतुलन और आत्मविश्वास स्थापित नहीं हो सकता।

निष्कर्ष:

भारतेंदु युग हिंदी साहित्य में एक नये युग की शुरुआत थी, जिसने न केवल साहित्यिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यह युग भारतीय समाज की चेतना और जागरूकता के विकास का प्रेरणास्त्रोत बना और आगामी साहित्यिक आंदोलनों के लिए एक ठोस नींव तैयार की।

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

हिंदी साहित्य में आधुनिक काल (सन् 1850 से अब तक) का विकास

 आधुनिक काल (सन् 1850 से अब तक) का परिभाषा और विकास

आधुनिक काल को हिंदी साहित्य के इतिहास में चौथा काल माना जाता है। इसकी शुरुआत सन् 1843 ई. से होती है और यह 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के बाद पूर्ण रूप से विकसित हुआ। इस युग में भारतीय समाज में आधुनिकता का प्रवेश हुआ, जो फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई.) से प्रेरित था। यह युग बदलाव, सामाजिक जागरूकता और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का युग था।

आधुनिकता का अर्थ:

आधुनिकता एक प्रवृत्ति है, जो व्यक्ति, समाज, और राज्य के प्रति नए दृष्टिकोणों को लेकर आई। इसका मूल उद्देश्य था:

  • धर्म की जगह विज्ञान का महत्व,
  • भावना की जगह तर्क का स्थान,
  • ईश्वर की जगह मनुष्य को सर्वोच्च मानना।

इसने व्यक्तित्व, लोकतंत्र, और मानवीय अधिकारों की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके परिणामस्वरूप राजतंत्र का स्थान लोकतंत्र ने लिया, और समता, न्याय, और बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्य प्रबल हुए।

भारत में आधुनिकता:

भारत में आधुनिकता की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई। इस समय ब्रिटिश शासन का प्रभाव था, जिसने कई बड़े बदलावों की शुरुआत की:

  1. राजनीतिक एकीकरण: छोटे-छोटे राज्यों के विलय के बाद, भारत एक केंद्रीय सरकार के अधीन आ गया।
  2. आर्थिक एकीकरण: ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को एकीकृत किया, जिससे व्यापार की प्रणाली में बदलाव आया।
  3. परिवहन और संचार: रेलवे और अन्य परिवहन के साधनों के विकास से पूरे देश में आपसी संपर्क बढ़ा।
  4. शिक्षा का यूरोपीकरण: यूरोपीय शिक्षा पद्धति को अपनाकर अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा का प्रसार हुआ।

आधुनिकता के महत्त्वपूर्ण कारक:

  1. 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम: इस युद्ध के बाद भारतीयों में एकता की भावना जागृत हुई और ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति की ललक पैदा हुई।
  2. सामाजिक सुधार आंदोलन: सती प्रथा, विधवा विवाह, और स्त्री शिक्षा जैसे सामाजिक सुधार आंदोलनों ने भारत में सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी।
  3. प्रेस की स्थापना और समाचार पत्रों का प्रकाशन: प्रेस की भूमिका ने जन जागरूकता में वृद्धि की और समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई।

आधुनिक हिंदी साहित्य:

आधुनिक काल को हिंदी साहित्य में गद्य काल भी कहा जाता है। इस काल में:

  • गद्य साहित्य का विकास हुआ।
  • हिंदी में खड़ी बोली (मानक हिंदी) को साहित्य की भाषा के रूप में अपनाया गया।
  • साहित्य ने राष्ट्रीयता, सामाजिक जीवन, और सामान्य मनुष्य को केंद्र में रखा।

आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख कालविभाजन निम्नलिखित हैं:

  1. भारतेंदु युग (सन् 1850 से 1900 ई.):

    • इस काल में कविता और गद्य दोनों का विकास हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र के योगदान के कारण इसे विशेष महत्व प्राप्त है।
  2. द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1918 ई.):

    • इस युग में संस्कृत साहित्य और प्रारंभिक हिंदी साहित्य का पुनरुत्थान हुआ।
  3. छायावाद युग (सन् 1918 से 1936 ई.):

    • छायावाद में प्रकृति, रुमानिज़्म, और आध्यात्मिकता की प्रमुखता रही। प्रमुख कवि जैसे सुमित्रानंदन पंत, सोरहिंद वर्मा, जयशंकर प्रसाद इस काल के प्रमुख लेखक थे।
  4. प्रगति-प्रयोग युग (सन् 1936 से 1954 ई.):

    • यह युग समाजवादी विचारधारा और नवजागरण का समय था। सामाजिक मुद्दों और संघर्षों पर आधारित साहित्य को प्रमुखता मिली।
  5. स्वातंत्र्योत्तर साहित्य (सन् 1947 के बाद):

    • यह काल स्वतंत्र भारत के बाद के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलावों को दर्शाता है।

निष्कर्ष:
आधुनिक काल ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और उसे राष्ट्रीय पहचान प्रदान की। इसके परिणामस्वरूप साहित्य ने न केवल सामाजिक सुधार, बल्कि राष्ट्र निर्माण और मनुष्य के अधिकार को भी केंद्र में रखा।

अधुनिक काल : गद्यकाल

 संवत् 1900 (सन् 1843 ई. के बाद) से अब तक