शनिवार, 23 नवंबर 2024

पूस जाड़ थरथर तन काँपा

 



पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक विसि तापा।

बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।
कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।

चकई निसि बिद्धुं विन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।
बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।
रकत बरा माँसू गरा हाड़ भए संब संख।
धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।

यह काव्यांश वियोग और पीड़ा का गहन चित्रण है। इसमें नायिका अपने प्रियतम के वियोग में दुख और असहनीय दर्द व्यक्त कर रही है। यहाँ प्रत्येक पंक्ति में गहरे भाव और प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, जो इसे अत्यंत प्रभावशाली बनाते हैं। नीचे प्रत्येक पंक्ति का शब्दार्थ और भावार्थ दिया गया है:


पंक्ति 1:

पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक विसि तापा।

  • पूस: पौष का महीना (कड़ाके की सर्दी)।
  • थरथर: कांपना।
  • सुरुज: सूर्य।
  • जड़ाइ: ठंड से जमा हुआ।
  • लंक विसि तापा: लंका जैसे तप रहा हो।

अर्थ: ठिठुरती सर्दी के कारण शरीर थर-थर कांप रहा है। यह स्थिति ऐसी है जैसे सूर्य अपनी गर्मी को भूल गया हो, और ठंड ने लंका की जलन जैसी स्थिति पैदा कर दी हो।


पंक्ति 2:

बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।

  • बिरह बाढ़ि: वियोग की बाढ़।
  • दारुन: भयानक।
  • सीऊ: सीता।
  • हरि जीऊ: भगवान का नाम।

अर्थ: वियोग की बाढ़ इतनी बढ़ गई है कि यह सीता के दर्द जैसा भयंकर हो गया है। मेरा शरीर और मन इस दर्द से कांप रहा है, और मैं हरि से अपनी मृत्यु की प्रार्थना कर रही हूँ।


पंक्ति 3:

कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।

  • कंत: प्रियतम।
  • पंथ अपार: अनंत मार्ग।
  • सूझ नहिं नियरें: रास्ता समझ नहीं आ रहा।

अर्थ: प्रियतम कहाँ हैं? मैं अपने दिल से उन्हें कहाँ ढूंढूँ? राह इतनी कठिन और अनंत है कि कुछ भी साफ नजर नहीं आ रहा।


पंक्ति 4:

सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।

  • सौर सुपेती: ठंडी हवा और सर्दी।
  • जूड़ी: कंपकंपी।
  • हिवंचल बूढ़ी: बर्फ की बिस्तर जैसी ठंड।

अर्थ: ठंडी हवा और सर्दी की कंपकंपी मेरे शरीर को जकड़ रही है। ऐसा लगता है जैसे मैं बर्फ की बनी हुई शय्या पर लेटी हुई हूँ।


पंक्ति 5:

चकई निसि बिद्धुं विन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।

  • चकई: एक पक्षी (जिसे रात में चंद्रमा चाहिए होता है)।
  • बिद्धुं: चंद्रमा।
  • निसि बासर: रात-दिन।
  • बिरह कोकिला: वियोग में तड़पती कोयल।

अर्थ: जैसे चकई बिना चंद्रमा के रात में तड़पती है, वैसे ही मैं रात-दिन वियोग की कोयल बन गई हूँ, और प्रिय की प्रतीक्षा कर रही हूँ।


पंक्ति 6:

रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।

  • रैनि: रात।
  • सखी: सहेली।
  • बिछोही पंखी: वियोग में तड़पता पक्षी।

अर्थ: यह रात अकेलेपन से भरी है, और मेरे साथ कोई सखी भी नहीं है। मैं उस पक्षी के समान हूँ जो वियोग में अपने प्रिय की प्रतीक्षा कर रहा है।


पंक्ति 7:

बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।

  • बिरह सैचान: वियोग की जलन।
  • भैवै तन चाँड़ा: शरीर में कड़वाहट।
  • जीयत खाइ: जीवित रहते हुए भस्म होना।
  • मुएँ नहिं छाँड़ा: मरने पर भी पीड़ा नहीं छोड़ी।

अर्थ: वियोग की आग ने मेरे तन और मन में कड़वाहट भर दी है। यह पीड़ा मुझे जीवित रहते हुए भी खा रही है और मरने पर भी मुझे नहीं छोड़ रही।


पंक्ति 8:

रकत बरा माँसू गरा हाड़ भए संब संख।
धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।

  • रकत बरा: खून से भरा।
  • माँसू गरा: मांस गल गया।
  • संब संख: संपूर्ण।
  • सारस: एक पक्षी जो अपने साथी के बिना नहीं रहता।
  • ररि मुई: तड़पकर मर जाना।
  • समेटहु पंख: पंखों से समेटना।

अर्थ: मेरा शरीर खून और मांस से भरा हुआ है, लेकिन वियोग ने इसे पूरी तरह से तोड़ दिया है। मैं चाहती हूँ कि प्रिय सारस की तरह मेरे पास आए और मुझे अपने पंखों से समेट ले।


सारांश:

यह काव्य वियोग की अत्यधिक पीड़ा, अकेलापन, और प्रियतम के लिए तड़प को दर्शाता है। इसमें नायिका ने ठंड, वियोग की अग्नि, पक्षियों के प्रतीकों, और प्रिय की अनुपस्थिति का उपयोग अपने भावनात्मक दर्द को व्यक्त करने के लिए किया है।

यह काव्यांश एक वियोगिनी नायिका की भावनाओं को व्यक्त करता है, जो अपने प्रिय के वियोग में गहरे दुख और पीड़ा से भरी हुई है। कवि ने वियोग की वेदना को अत्यंत सजीव और मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें प्राकृतिक उपमाओं और प्रतीकों का कुशलतापूर्वक प्रयोग हुआ है।


पंक्ति 1-2:

पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक विसि तापा।
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।

इन पंक्तियों में नायिका वियोग में सर्दी के मौसम की ठंडक को अपने भीतर की पीड़ा से जोड़ती है। पौष मास की कंपकंपी भरी ठंड उसे असहनीय लग रही है। सूर्य भी जैसे ठंड से जम गया है। वियोग की पीड़ा इतनी बढ़ गई है कि यह राम-रावण युद्ध के समय सीता के दुख के समान भयंकर हो गई है। नायिका भगवान से मृत्यु की प्रार्थना करती है, क्योंकि वह इस वियोग को सहन करने में असमर्थ है।


पंक्ति 3-4:

कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।

यहाँ नायिका अपने प्रियतम (कंत) को पुकार रही है और अपने हृदय में उनकी तलाश कर रही है। परंतु वियोग का मार्ग इतना कठिन और अनिश्चित है कि उसे प्रियतम का पता ही नहीं चल रहा। वह ठंडी हवा और सर्द मौसम को अपने दुख का साथी मानती है। उसकी स्थिति इतनी दयनीय है कि बर्फ की सेज पर लेटना भी इस दुख से कम प्रतीत होता है।


पंक्ति 5-6:

चकई निसि बिद्धुं विन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।

इन पंक्तियों में चकई पक्षी और कोकिला (कोयल) का रूपक प्रस्तुत किया गया है। चकई रात में चंद्रमा के बिना नहीं रह सकती, वैसे ही नायिका अपने प्रियतम के बिना वियोग में तड़प रही है। दिन-रात वह कोयल की तरह विरह का गीत गा रही है। रात अकेलेपन से भरी है, और उसके पास न कोई सहेली है, न कोई साथी। यह अकेलापन उसे और अधिक पीड़ा दे रहा है।


पंक्ति 7:

बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।

यहाँ विरह को अग्नि के रूप में चित्रित किया गया है, जो शरीर और आत्मा को जला रही है। यह अग्नि शरीर को अंदर से गला रही है, परंतु इस जलन का अंत नहीं हो रहा। नायिका कहती है कि यह पीड़ा उसे जीवित रहते हुए भी खा रही है और मृत्यु के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगी।


पंक्ति 8:

रकत बरा माँसू गरा हाड़ भए संब संख।
धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।

इन पंक्तियों में नायिका की पीड़ा चरम पर पहुँचती है। वह कहती है कि उसका शरीर रक्त, मांस और हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया है। वह सारस पक्षी की तरह अपने प्रियतम को पुकारती है। सारस पक्षी अपने साथी के बिना नहीं रह सकता, और यहाँ नायिका कहती है कि वह भी बिना प्रियतम के मरने की स्थिति में पहुँच गई है। वह चाहती है कि प्रियतम आकर उसे अपने पंखों से ढँक ले।


सामान्य व्याख्या:

इस काव्यांश में वियोगिनी नायिका की वेदना का मार्मिक चित्रण किया गया है। वह अपने प्रियतम के बिना असहनीय दर्द और अकेलेपन का अनुभव कर रही है। सर्दी के मौसम, चकई और सारस जैसे प्रतीकों के माध्यम से कवि ने वियोग की तीव्रता को प्रकृति के साथ जोड़ा है। नायिका के भीतर विरह का अग्नि है, जो उसे भीतर-भीतर जला रही है। यह काव्य वियोग की मानव संवेदनाओं और भावनाओं का उत्कृष्ट उदाहरण है।

प्रमुख विशेषताएँ:

  1. प्रकृति और वियोग का मेल: सर्दी की ठिठुरन, चकई का चंद्रमा के बिना तड़पना, और सारस का प्रतीक वियोग की पीड़ा को गहराई से व्यक्त करता है।
  2. भावनात्मक गहराई: नायिका की वेदना इतनी सजीव है कि पाठक उसकी पीड़ा को महसूस कर सकता है।
  3. प्रतीकात्मकता: बिरह, अग्नि, ठंड, और पक्षियों के माध्यम से भावनाओं को व्यक्त किया गया है।
  4. अलंकार: रूपक, उपमा और पुनरुक्ति का सुंदर प्रयोग हुआ है।

यह काव्य वियोग की पीड़ा को शाश्वत रूप से प्रस्तुत करता है और पाठक को भावनात्मक रूप से प्रभावित करता है।

इस काव्यांश में काव्य सौंदर्य अत्यंत मनोहारी और प्रभावशाली है। कवि ने वियोग की अनुभूति को गहराई और मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है। इसमें निम्नलिखित काव्य सौंदर्य के तत्व प्रमुखता से उभरते हैं:


1. भाव सौंदर्य (Emotion and Sentiment):

यह काव्यांश वियोग शृंगार रस से परिपूर्ण है। नायिका की पीड़ा और प्रियतम के वियोग की अग्नि उसकी हर पंक्ति में व्यक्त होती है। कवि ने भावों को इतने सजीव रूप से चित्रित किया है कि पाठक उसकी वेदना में डूब जाता है।

  • उदाहरण:
    "बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।"
    यह पंक्ति वियोग की तीव्रता को भीतर तक झकझोर देती है।

2. प्रतीकात्मकता (Symbolism):

कवि ने वियोग की भावना को व्यक्त करने के लिए प्रकृति और पक्षियों के प्रतीकों का सुंदर प्रयोग किया है।

  • चकई और चंद्रमा: यह नायिका के वियोग को दर्शाने का प्रमुख प्रतीक है। जिस तरह चकई रात में चंद्रमा के बिना तड़पती है, वैसे ही नायिका अपने प्रिय के बिना तड़प रही है।
  • सारस पक्षी: सारस पक्षी का प्रतीक नायिका की निष्ठा और वियोग में मृत्यु की कामना को दर्शाता है।
  • सर्दी और अग्नि: ठिठुरती सर्दी और वियोग की अग्नि के माध्यम से नायिका के भीतर और बाहर के संघर्ष को चित्रित किया गया है।

3. प्रकृति चित्रण (Nature Imagery):

कवि ने वियोग की वेदना को प्रकृति के माध्यम से सजीव किया है। सर्दी की ठंडक, बर्फ की शय्या, और ठिठुरती हवाओं का वर्णन नायिका की पीड़ा को गहराई देता है।

  • उदाहरण:
    "पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक विसि तापा।"
    यह पंक्ति सर्दी की ठिठुरन के साथ नायिका की मानसिक अवस्था को जोड़ती है।

4. अलंकार प्रयोग (Figures of Speech):

काव्य में अलंकारों का सुंदर और प्रभावशाली प्रयोग हुआ है, जिससे रचना का सौंदर्य कई गुना बढ़ गया है।

  • उपमा (Simile):
    "जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।"
    नायिका अपनी शय्या को बर्फ की बनी हुई शय्या से उपमित करती है।
  • रूपक (Metaphor):
    "बिरह सैचान भैवै तन चाँड़ा।"
    वियोग को एक जलती हुई अग्नि के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  • अनुप्रास (Alliteration):
    "पूस जाड़ थरथर तन काँपा।"
    "थ" ध्वनि की पुनरावृत्ति से पंक्ति में मधुरता आती है।

5. रस सौंदर्य (Aesthetic of Rasa):

इस काव्यांश में मुख्य रूप से वियोग शृंगार रस की प्रधानता है। नायिका का वियोग और उसकी भावनाएँ पाठक के मन को गहरे प्रभावित करती हैं।

  • करुण रस भी विद्यमान है, विशेषकर जब नायिका अपनी असहाय स्थिति को व्यक्त करती है।
    "जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।"
    यह पंक्ति पाठक को करुणा से भर देती है।

6. ध्वनि सौंदर्य (Phonetic Beauty):

इस काव्यांश की भाषा सरल, प्रवाहमयी और मधुर है। शब्दों का चयन और ध्वनि की अनुगूंज इसे संगीतात्मक बनाते हैं।

  • उदाहरण:
    "रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।"
    इस पंक्ति में तुकांत और लयबद्धता के कारण काव्य की संगीतमयता बढ़ जाती है।

7. नायिका की मनोवैज्ञानिक स्थिति (Psychological Depiction):

कवि ने नायिका की मानसिक स्थिति का अत्यंत सजीव चित्रण किया है। उसकी पीड़ा, अकेलापन, और मृत्यु की कामना सब कुछ इतने गहरे भाव से व्यक्त किया गया है कि पाठक उसके साथ जुड़ जाता है।


8. सांस्कृतिक और लोकजीवन का चित्रण:

कविता में ग्रामीण और प्राकृतिक परिवेश का सुंदर चित्रण किया गया है। ठंड, सर्दी, पक्षियों के प्रतीकों और वियोग की भावनाओं के माध्यम से कवि ने भारतीय लोकजीवन और उसकी भावनाओं को व्यक्त किया है।


सारांश:

यह काव्यांश वियोग की पीड़ा का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो अपनी भावनात्मक गहराई, प्रतीकात्मकता, और भाषा की सरलता से पाठक के मन को छूता है। इसके भाव, प्रतीक, और अलंकार इसे न केवल सुंदर बनाते हैं, बल्कि इसे एक कालजयी रचना का रूप देते हैं।4oYou said:

गहन देवस घटा निसि बाढ़ी


गहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दु:ख सो जाइ किमि काढ़ी।
अब धनि देवस बिरह भा राती। जर बिरह ज्यों बीपक बाती।
काँपा हिया जनाबा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।
घर-घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिर फिरै रँग सोईं।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
पिय सौं कहेहू सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग॥ 




यह पद या छंद गहन विरह के भावों से ओतप्रोत है, जो प्रेम, वियोग और उसकी गहराई को दर्शाता है। इसमें कवि ने अपने हृदय के भीतर के संताप और तड़प को अत्यंत मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है। आइए इसे थोड़ा विस्तार से समझें:

पंक्तियों का भावार्थ:

  1. गहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दु:ख सो जाइ किमि काढ़ी।
    यहाँ कवि कहता है कि दिन और रात दोनों गहन दुःख की घटा से भरे हुए हैं। इस गहन पीड़ा से बाहर निकलने का कोई उपाय समझ नहीं आ रहा।

  2. अब धनि देवस बिरह भा राती। जर बिरह ज्यों बीपक बाती।
    कवि कहता है कि अब तो दिन भी विरह के समान रात जैसा अंधकारमय हो गया है। विरह की ज्वाला दीपक की लौ की तरह लगातार जल रही है।

  3. काँपा हिया जनाबा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।
    सीता की तरह (जो राम के वियोग में तड़प रही थीं), हृदय काँप रहा है। यह सोचकर मन को तसल्ली है कि इस पीड़ा के बाद शायद प्रियतम का संग मिलेगा।

  4. घर-घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।
    यह पंक्ति द्रौपदी के चीरहरण की घटना की ओर संकेत करती है। कवि कहता है कि मेरे रूप और रंग (अर्थात् मेरी पहचान) को सभी ने छीन लिया है, मेरे प्रिय ने भी छोड़ दिया है।

  5. पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिर फिरै रँग सोईं।
    जो बिछड़ चुका है, वह लौटकर नहीं आता। लेकिन उस प्रियतम की याद और रंग (अर्थात् उसकी स्मृति) बार-बार मन में घूम रही है।

  6. सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
    विरह अग्नि ने नायिका के हृदय को इस प्रकार जला दिया है कि वह राख का ढेर बन गया है। यह दुःख लगातार सुलगता रहता है।

  7. पिय सौं कहेहू सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
    सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग॥

    कवि भँवरे और कौवे को संदेशवाहक बनाकर अपने प्रिय को संदेश देना चाहता है कि वह (प्रेमिका) विरह की आग में जलकर भस्म हो गई है, और उसी जलन का धुआँ अब मुझ तक पहुँच रहा है।

भावनात्मक विश्लेषण:

यह रचना प्रेम और वियोग के सबसे गहन और मर्मस्पर्शी रूप का चित्रण करती है। इसमें प्रतीकों का सुंदर और सजीव प्रयोग किया गया है, जैसे – दीपक की लौ, द्रौपदी का चीरहरण, विरह की अग्नि। यह दर्शाता है कि प्रेम में केवल मिलन ही नहीं, बल्कि वियोग भी अपनी गहनता और सत्यता में उतना ही शक्तिशाली है।

उपयोगिता:

इस प्रकार की काव्य-रचनाएँ भक्ति, श्रृंगार और करुण रस के मेल का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इसे साहित्यिक विश्लेषण या सांस्कृतिक संदर्भ में प्रस्तुत किया जा सकता है।

व्याख्या : 

इस छंद में कवि ने विरह (वियोग) की स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है। प्रेमिका या विरहणी की भावनाएँ, उसके मन की व्यथा और प्रियतम से मिलन की तीव्र आकांक्षा को अत्यंत प्रभावी शब्दों में व्यक्त किया गया है। आइए इसे पंक्ति-दर-पंक्ति समझते हैं:


  1. गहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दु:ख सो जाइ किमि काढ़ी।
    कवि कहता है कि दिन और रात दोनों गहन दुःख से भरे हुए हैं। जैसे घटाएँ आकाश को ढक लेती हैं, वैसे ही वियोग का दुःख मन को घेरे हुए है। इस गहरे संताप को दूर करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा।

  1. अब धनि देवस बिरह भा राती। जर बिरह ज्यों बीपक बाती।
    प्रिय के बिना, अब दिन भी रात के समान अंधकारमय हो गया है। वियोग की अग्नि दीपक की लौ की तरह लगातार जल रही है, जो शांत होने का नाम ही नहीं ले रही।

  1. काँपा हिया जनाबा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।
    कवि ने सीता जी के संदर्भ से अपनी व्यथा को व्यक्त किया है। जैसे सीता राम के वियोग में तड़प रही थीं और उनका हृदय काँपता था, वैसे ही वियोगिनी का हृदय काँप रहा है। फिर भी उसे यह आशा है कि यह दुःख सहने के बाद शायद प्रियतम का मिलन हो सके।

  1. घर-घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।
    कवि यहाँ कहता है कि जैसे द्रौपदी का चीरहरण हुआ था, वैसे ही मेरे जीवन का आनंद, मेरा रूप और रंग सभी ने छीन लिया है। यहाँ नाहू (पति या प्रियतम) के प्रति भी एक हल्का उलाहना है कि उसने भी इस दुःख को समझने का प्रयास नहीं किया।

  1. पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिर फिरै रँग सोईं।
    जो एक बार बिछुड़ गया है, वह लौटकर नहीं आता। लेकिन उस प्रियतम की स्मृतियाँ, उसकी छवि बार-बार मन के भीतर उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं।

  1. सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।
    वियोग की अग्नि ने नायिका के हृदय को पूरी तरह से जला दिया है। यह आग लगातार जल रही है, जिससे उसका मन राख के ढेर में बदल गया है। यह पीड़ा असहनीय है।

  1. पिय सौं कहेहू सँदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
    सो धनि बिरहें जरि गई तेहिक धुआँ हम लाग॥

    कवि भँवरे और कौवे से प्रियतम तक संदेश पहुँचाने का आग्रह करता है। वह कहता है कि जो वियोगिनी (प्रेमिका) इस पीड़ा में जलकर समाप्त हो गई, उसकी जलन और धुआँ अब मेरे पास आ रहा है। यह वियोग की गहनता और दोनों पक्षों की आपसी जुड़ाव की व्यथा को दर्शाता है।

समग्र भाव:

यह रचना वियोग और उसकी तीव्र पीड़ा का उत्कृष्ट चित्रण है। इसमें कवि ने भक्ति और प्रेम के भावों का संयोजन करते हुए नायिका की मनःस्थिति को अभिव्यक्त किया है। प्रतीकों (दीपक, अग्नि, धुआँ, द्रौपदी का चीरहरण, सीता का वियोग) का सुंदर और गहन उपयोग इसे भावपूर्ण बनाता है।
यह काव्य प्रेम, तड़प और आशा का ऐसा संगम है जो पाठक को भावविभोर कर देता है।

इस काव्यांश में काव्य सौंदर्य अत्यंत गहन और मार्मिक है। इसमें विरह, तड़प, और वियोग की पीड़ा को कवि ने प्रतीकात्मक और भावपूर्ण भाषा में प्रस्तुत किया है। आइए, इसके काव्य सौंदर्य का विश्लेषण करें:


1. भाव सौंदर्य (Emotional Beauty):

यह काव्यांश करुण रस का उत्कृष्ट उदाहरण है। वियोग की अग्नि में जल रही नायिका की पीड़ा को अत्यंत संवेदनशील और सजीव रूप में व्यक्त किया गया है।

  • विरह का दुःख: कवि ने दिन-रात को विरह से भरी घटा के रूप में चित्रित किया है। यह वियोग का गहरापन और उसकी सर्वग्राही प्रकृति दर्शाता है।
  • आशा और निराशा का संघर्ष: "तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ" में यह झलकता है कि दुःख में भी प्रियतम के मिलने की उम्मीद जिंदा है।

2. प्रतीक सौंदर्य (Symbolic Beauty):

कवि ने अपनी बात कहने के लिए गहरे और प्रभावशाली प्रतीकों का उपयोग किया है।

  • दीपक की बाती: विरह को दीपक की जलती हुई बाती के समान बताया गया है, जो जलने और पीड़ा का अनवरत प्रतीक है।
  • द्रौपदी का चीरहरण: नायिका के सम्मान और पहचान के छिनने का प्रतीक है।
  • सीता का वियोग: सीता की पीड़ा का उदाहरण देकर विरह की व्याप्ति और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संदर्भ को जोड़ा गया है।
  • भँवरा और कौवा: ये संदेशवाहक के प्रतीक हैं, जो प्रेम और वियोग में संदेश के आदान-प्रदान की प्राचीन परंपरा को दर्शाते हैं।

3. रस सौंदर्य (Aesthetic Appeal of Emotions):

इस काव्य में मुख्यतः करुण रस प्रबल है, लेकिन इसमें श्रृंगार रस का वियोग पक्ष भी परिलक्षित होता है।

  • करुण रस: "सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।"
    इन पंक्तियों में विरह अग्नि की तीव्रता और उसकी असीमता का मर्मस्पर्शी वर्णन है।
  • वियोग श्रृंगार रस: प्रियतम के स्मरण और उनकी छवि बार-बार मन में घूमने का वर्णन वियोग श्रृंगार का सूक्ष्म सौंदर्य है।

4. अलंकार सौंदर्य (Use of Literary Devices):

कवि ने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है:

  • रूपक अलंकार: "जर बिरह ज्यों बीपक बाती" में वियोग को दीपक की बाती से रूपक रूप में जोड़ा गया है।
  • अनुप्रास अलंकार: "सुलगि सुलगि दगधै भै छारा" में ध्वनि का सौंदर्य और लय स्पष्ट है।
  • उपमा अलंकार: "काँपा हिया जनाबा सीऊ" में सीता के वियोग से तुलना।

5. भाषा सौंदर्य (Linguistic Beauty):

  • सरल और प्रभावी शब्दावली: कवि ने सरल, लेकिन भावनाओं को सीधे हृदय तक पहुँचाने वाली भाषा का उपयोग किया है।
  • लयात्मकता: पूरे काव्य में प्रवाह और लय बनी रहती है, जो पाठक या श्रोता को बांधे रखती है।
  • प्राचीन संदर्भ: भाषा में द्रौपदी और सीता जैसे पात्रों का उल्लेख इसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गहराई प्रदान करता है।

6. सांस्कृतिक सौंदर्य (Cultural Beauty):

यह काव्य न केवल व्यक्तिगत वियोग की व्यथा को दर्शाता है, बल्कि भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपरा और उसके आदर्शों को भी अभिव्यक्त करता है।

  • सीता और द्रौपदी जैसे पौराणिक पात्रों का उल्लेख इसे गहराई और व्यापकता देता है।
  • विरह में संदेशवाहक के रूप में भँवरा और कौवे का उपयोग प्राचीन प्रेम और लोककथाओं की परंपरा को जीवंत करता है।

7. सार्वभौमिकता (Universality):

इस काव्य में व्यक्त भावनाएँ केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं हैं। यह हर उस व्यक्ति की अनुभूति है, जिसने प्रेम और वियोग का अनुभव किया है।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

विद्यापति के पद

  






विद्यपति परिचय : 

  • जन्म : 1352 ई.
  •  मृत्यु  :1448 ई.
  • आश्रय दता राजा: कीर्ति सिंह और शिव सिंह (तिरहुत के राजा थे)
  •  रचनाएं :
  • विद्यापति पदावली ( मैथिली )
  • कीर्ति लता कीर्ति पताका (अपभ्रंश)
  • पुरुष परीक्षा (संस्कृत)
  • उपनाम:  मैथिल कोकिल अभिनव जयदेव
  • भाषा : मैथिली

पद ; 1

के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुःख रे भेल साओन मास्।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुःख दारुन रे जग के पतिआए।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥

शब्दादार्थ 

पतिया: पत्र
जाएत: जाता 
पीतम: प्रिय/प्रेमी
भेल: हुआ 
साओन: सावन
एकसरि : अकेले 
रहलो: रहना 
अनकर: दूसरे का 
दारुण: भयानक पतियाय: विश्वास करना 
मोर: मेरा
हरि: कृष्ण 
हर: चुराना 
गेल: गया
तेजि : छोड़ना 
मधुपुर: मथुरा 
कन: क्यों 
अपजस : अपयश 
गाओल : गाना (क्रिया)
धनि: स्त्री 
धरु: धारण करना
धीर: धैर्य 

संदर्भ

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के 'विद्यापति' शीर्षक पाठ से अवतरित और विद्यापति पदावली में संकलित है इसके रचयिता ‘अभिनव जयदेव’ और 'मैथिली कोकिल' की उपाधि प्राप्त भक्ति और शृंगार के शीर्षस्थ मध्यकालीन कवि विद्यापति की रचना 'विद्यापति पदावली' में संकलित हैl 

प्रसंग:

उद्धृत पंक्तियों में विद्यापति ने राधा के वियोग का चित्रण करते हुए उनके प्रेम की मनोदशा को बड़े मार्मिक ढंग से उकेरा है l

व्याख्या: 

कृष्ण के मथुरा जाने के बाद राधा अपनी विरह व्यथा का वर्णन करते हुए अपनी सखी से कहती है हे सखी कृष्ण को गए हुए बहुत दिन बीत गएl उनकी अनुपस्थिति में अकेलेपन के कारण यह भवन मेरे रहने योग्य नहीं रह गया है l मुझसे इस भवन में अकेले रहा नहीं जाताl  विरह के कारण मेरी जो स्थिति है, वह मैं किसी से का भी नहीं सकती क्योंकि उसका अनुमान कोई दूसरा नहीं लग सकता l दुनिया में दूसरे के दुःख की भयानकता को कोई अन्य व्यक्ति नहीं समझ सकता l ऐसे में मैं किसके हाथ से अपना संदेश भेजूं जो मेरी स्थिति का ठीक ठीक वर्णन कर सके? कौन मेरे प्रीतम के पास मेरा पत्र लेकर जाएगा ?  मेरा दुख अत्यंत असह्य है मेरा हृदय इसे सहन नहीं कर पा रहा है l इसे यह सावन का महीना और अधिक बढ़ा रहा हैl वे अपनी सखी से कहती हैं कि हे सखी ! मेरा मन कृष्णा हर कर (चुरा कर) अपने साथ मथुरा लेकर चले गए और मेरा मन भी मेरे वश में नहीं हैl वह उनके साथ-साथ चला गया और उसने मुझे समाज की दृष्टि में मेरे अन्य अन्यमनस्का होने का अपयश दे दिया l कवि विद्यापति कहते हैं कि हे धन्ये! अपने मन में उम्मीद रखो तुम्हारे मन भावन कृष्ण इसी कार्तिक महीने में लौट आएँगे l तुम दुखी और निराश मत होl  

 

काव्य सौंदर्य 

  •  छंद: पद 
  • रस: वियोग शृंगार 
  • अलंकार:  पतिया और पतियाय में यमक अलंकार, मोर मन और हरि हर में अनुप्रास अलंकारl
  • भाषा: मैथिली

 विशेष: 

  1. इन पंक्तियों में विद्यापति ने राधा के विरह व्यथा का मार्मिक चित्रण किया हैl
  2. इन पंक्तियों की नायिका प्रोषित पतिका है l

साम्य: 

  1. सखि 'अनकर दुख दारू न रे जग के पतियायके समान अभिव्यक्ति हमें घनानंद की इन पंक्तियों में मिलती है कि
    'ब्याउर के उर की पर पीर को बाँझ समाज में जानत को है ?' 
  2. नरसी मेहता ने इस पर पीर को जानने वाले को ही सच्चा वैष्णव कहा है '
    वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाने री l

पद-2 

सखि हे कि पुछसि अनुभव मोए।

सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए। 

जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।            

सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।               

कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।   

लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।

कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।

विद्यापति कह प्रान जुड़इते लाखे न मीलल एक।।

शब्दार्थ:   

पूछेसि: पूछती हो 
 मोर : मेरा  
सेह: वह 
पिरिति : प्रीत/प्रेम 
अनुराग: स्नेह
बखानिय: वर्णन करना
तिल तिल: पल पल 
नूतन: नया 
अबधि: काल या समय 
निहारल: निहारना/ देखना 
भेल: हुआ 
सेहो : वही 
स्रवनहि : कानों से
सूनल: सुना 
स्रुति: श्रुति/ कान
परस : स्पर्श 
गेल: गया 
जुग: युग 
हिय: हृदय
राखल: रखा था 
तइओ: फिर भी
जरनि: जलन 
अनुमोदय: अनुमोदन करना/प्रतिपादित करना 
पेखल : प्रेक्षण करना / देखना  जुड़इते: ठंडक 
मीलल: मिलना 
लाखे : लाखों मे

संदर्भ: 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के विद्यापति शीर्षक पाठ से और विद्यापति पदावली में संकलित हैl इसके रचयिता भक्ति और श्रृंगार के अपूर्ण मध्यकालीन कवि अभिनव जयदेव और मैथिल कोकिल विद्यापति हैं l

प्रसंग: 

व्याख्येय पंक्तियों में कवि ने राधा के माध्यम  सच्चेे प्रेम के वास्तविक रूप का चित्रण किया है l

व्याख्या: 

इन पंक्तियों में राधा अपनी सखी से अपनी प्रेम दशा का वर्णन करते हुए कहती हैं यह सखी तुम मेरे प्रेम का मर्म क्या पूछती हो उसे प्रेम के निहित स्नेह का मैं क्या वर्णन करूं जो प्रतिपल मुझे नया-नया लगता है ? जन्म से ही अर्थात बचपन से ही मैं निरंतर कृष्ण के रूप का दर्शन करती रही, किंतु मेरे नेत्र कभी भी तृप्ति का अनुभव नहीं करते हमेशा उनके दर्शन के लिए प्यासे रहते हैं l मैं सदैव उनके मधुर वचनों को सुनती रही हूं, किंतु मेरे कानों को ऐसा महसूस होता है कि अभी तक उनके शब्दों का मेरे सूती पाठ से स्पर्श ही नहीं हुआ अर्थात अभी भी वे कृष्ण के मधुर शब्दों को सुनने के लिए आकुल रहते हैं l कितनी ही रातों में हमने प्रेम क्रीडा की है, किंतु अभी भी मुझे यह नहीं पता है कि प्रेम की कीड़ा का अनुभव वास्तव में कैसा होता है? लाखों- लाखों युगों से मैं अपने हृदय स्वरूप कृष्ण को अपने हृदय में बसाए हुए हूँ फिर भी मेरे हृदय में अभी में विरह की जलन शांत नहीं हुई l ऐसे में प्रेम का वर्णन सहज नहीं है l इसलिए मुझे यह लगता है कि जिन विद्वानों ने प्रेम के रस अर्थात श्रृंगार रस का वर्णन किया है, उन्होंने वास्तव में प्रेम का अनुभव ही नहीं किया क्योंकि वास्तविक प्रेम का अनुभव करने वाला व्यक्ति उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता l 

अलंकार : 

रस : वियोग श्रृंगार 

छंद: पद 

अलंकार: 

 ‘लाख-लाख’ और ‘तिल-तिल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
' हिय हिय राखल' में प्रथम हिय का अर्थ हृदय है और दूसरे ही का तात्पर्य कृष्ण से है इसलिए यमक अलंकार 
 'स्रवनहिं सूनल स्रुति' में अनुप्रास अलंकारl 

भाषा: मैथिली

विशेष/साम्य : 

  • इन पंक्तियों में विद्यापति ने प्रेम की अनिर्वचनीयता का वर्णन किया है l
  • भक्त कवि सूरदास ने भक्ति के अनुभव को इसी तरह से अनिर्वचनीय कहा है ' अवगति-गति कछु कहत न आवै।ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै।’ 
  •  तुलसी दास ने भी  राम के प्रति कौशल्या के प्रेम के संबंध में विद्वानों द्वारा वर्णित प्रेम को सीखा हुआ कहा है: कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी। तुलसिदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥
  • विद्यापति ने जिस तरह नित नूतन प्रेम की बात की है वैसे संस्कृत साहित्य म भोज ने ‘सौंदर्य संबंध में लिखा है ‘क्षणे क्षणे यन्नवतमूपैति तदैव रूपम् रमनीयतायां’|’ 


 पद-3 

कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूँदि रहल दु नयान।
कोकिल-कलरख, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपड कान।।
माधय, सुन-सुन बचन हमारा। 
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूषरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा ॥
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल-धारा ॥
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन-
चौदसि-चाँंद समान।
भनई विद्यापति सिवसिंह नर-पति
लिखिमादेइ-रमान ॥

शब्दार्थ : 

  1. कुसुमित : खिला हुआ
  2. कानन : वन
  3. हेरि : खोजना / देखना
  4. कमलमुखि : कमल के समन मुख वाली मूँदि : बंद करन 
  5. नयान : नेत्र कोकिल : कोयल
  6. कलरव : पक्शियों की ध्वनि
  7.  मधुकर : भौंरा
  8. धुनि : ध्वनि/लय
  9. झाँपई : बंद करना
  10. माधव : कृष्ण
  11. तुअ : तुम
  12. चौदिस : चरों दिशओं में 
  13. गरए : निचडना/बहना
  14. तोहर : तुम्हारा
  15. बिरह  : प्रिय के दूर जाने से होने वाला दुःख
  16. तनु – क्षीण/कमजोर चौदसि- हतुरदशी(कृष्ण पक्ष) 
  17.  समान। (समान) भनई – भणिति/कहना
  18. तहि : वह
  19. पारा : पार पाना/सकना कातर : विवश/ असहाय
  20. दिठि : दृष्टि
  21. गुन : गुण
  22. भेल :हुआ
  23.  दूषरि : दुबली गुनि-गुनि : सोच सोच कर धरनी : धरती 
  24. कत : कितनी 
  25.  बेरि : बार 
  26.  बइसइ : बैठना
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने: बसंत ऋतु के आगमन और प्रकृति में होने वाले बदलावों के विरहाकुला राधा के व्यक्तित्व पर पडने वाले प्रभवों का मार्मिक चित्रण किया है ।

व्याख्या : 


कवि ने इन पंक्तियों में राधा की विरह-आकुलता और प्रकृति की उसमें उद्दीपक रूप की भूमिका का वर्णन किया है। कृष्ण के मथुरा गमन के बाद बसंत ऋतु आगमन पर राधा फूलों से लदे हुए वन को देखकर अपनी आँखें बंद कर लेती हैं। कोयल की मधुर ध्वनि और भौँरें का मधुर गुँजार उन्हें असह्य लगता है। इसलिए इन्हें  सुनकर वे अपने दोनों कान अपने दोनों हाथों से ढंक लेती हैं। कृश्ण की अनुपस्थिति में बसंत के आगमन के कारण राधा को बसंत ऋतु उनके साथ बिताये हुए पल और अधिक व्याकुल कर रहे हैं। विद्यापति कहते हैं कि हे कृष्ण मेरे वचनों को सुनो।  मैं राधा के बारे में आपको जो कुछ बता रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो।  तुम्हारे गुणों को याद करके  और तुम्हरे बारे में सोच-सोच कर वह सुंदरी अत्यंत दुबली हो गई है।  वह इतनी कमजोर हो गई है कि उससे खडा नहीं हुआ जाता।  कितनी ही बार वह  धरती को पकड़कर बैठ जाती है और फिर उसके लिए उठना संभव नहीं होता । वह असहाय दृष्टि से चारों तरफ तुम्हें खोज-खोज कर ऐसे रोने लगती है, मानो उसके नेत्रों से जल निचुड आया है ।  तुम्हारे विरह के कारण प्रतिदिन प्रतिक्षण क्षीण होते होते वह इतनी कमजोर हो गई है, जैसे वह कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की चंद्रमा हो। विद्यापति राजा शिवसिंह और रानी लखिमा देवी को संबोधित करते हुए उनकी मंगल कामना करते हैं और कहते हैं कि राधा क्ष्ण का प्रेम भी इन दोनों की तरह ही है। ये दोनों भी हमेशा उसी तरह रमण करें जैसे राधा कृष्ण मिलन की स्ठिति में करतें हैं । 

विशेष : 


रस: शृंगार रस
छंद : पद
अलंकार : 
‘कुसुमित कानन हेरी कमलमुखी’ ‘कोकिल कलरव’ ‘मधुकर धुनि सुनी’ ‘धरनी धरि धनी’ में अनुप्रास अलंकार 
‘सुन-सुन’, ‘गुन-गुनी’, ‘हेरि-हेरि’ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
 भाषा: मैथिलि 
विशेष : 
प्रकृति का उद्दिपन रूप मं वर्णन
राधा के विरह की मार्मिक व्यंजना 

















कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि

 पद-3 

कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूँदि रहल दु नयान।
कोकिल-कलरख, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपड कान।।
माधय, सुन-सुन बचन हमारा। 
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूषरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा ॥
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल-धारा ॥
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन-
चौदसि-चाँंद समान।
भनई विद्यापति सिवसिंह नर-पति
लिखिमादेइ-रमान ॥

शब्दार्थ : 

  1. कुसुमित : खिला हुआ
  2. कानन : वन
  3. हेरि : खोजना / देखना
  4. कमलमुखि : कमल के समन मुख वाली मूँदि : बंद करन 
  5. नयान : नेत्र कोकिल : कोयल
  6. कलरव : पक्शियों की ध्वनि
  7.  मधुकर : भौंरा
  8. धुनि : ध्वनि/लय
  9. झाँपई : बंद करना
  10. माधव : कृष्ण
  11. तुअ : तुम
  12. चौदिस : चरों दिशओं में 
  13. गरए : निचडना/बहना
  14. तोहर : तुम्हारा
  15. बिरह  : प्रिय के दूर जाने से होने वाला दुःख
  16. तनु – क्षीण/कमजोर चौदसि- हतुरदशी(कृष्ण पक्ष) 
  17.  समान। (समान) भनई – भणिति/कहना
  18. तहि : वह
  19. पारा : पार पाना/सकना कातर : विवश/ असहाय
  20. दिठि : दृष्टि
  21. गुन : गुण
  22. भेल :हुआ
  23.  दूषरि : दुबली गुनि-गुनि : सोच सोच कर धरनी : धरती 
  24. कत : कितनी 
  25.  बेरि : बार 
  26.  बइसइ : बैठना
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने: बसंत ऋतु के आगमन और प्रकृति में होने वाले बदलावों के विरहाकुला राधा के व्यक्तित्व पर पडने वाले प्रभवों का मार्मिक चित्रण किया है ।

व्याख्या : 


कवि ने इन पंक्तियों में राधा की विरह-आकुलता और प्रकृति की उसमें उद्दीपक रूप की भूमिका का वर्णन किया है। कृष्ण के मथुरा गमन के बाद बसंत ऋतु आगमन पर राधा फूलों से लदे हुए वन को देखकर अपनी आँखें बंद कर लेती हैं। कोयल की मधुर ध्वनि और भौँरें का मधुर गुँजार उन्हें असह्य लगता है। इसलिए इन्हें  सुनकर वे अपने दोनों कान अपने दोनों हाथों से ढंक लेती हैं। कृश्ण की अनुपस्थिति में बसंत के आगमन के कारण राधा को बसंत ऋतु उनके साथ बिताये हुए पल और अधिक व्याकुल कर रहे हैं। विद्यापति कहते हैं कि हे कृष्ण मेरे वचनों को सुनो।  मैं राधा के बारे में आपको जो कुछ बता रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो।  तुम्हारे गुणों को याद करके  और तुम्हरे बारे में सोच-सोच कर वह सुंदरी अत्यंत दुबली हो गई है।  वह इतनी कमजोर हो गई है कि उससे खडा नहीं हुआ जाता।  कितनी ही बार वह  धरती को पकड़कर बैठ जाती है और फिर उसके लिए उठना संभव नहीं होता । वह असहाय दृष्टि से चारों तरफ तुम्हें खोज-खोज कर ऐसे रोने लगती है, मानो उसके नेत्रों से जल निचुड आया है ।  तुम्हारे विरह के कारण प्रतिदिन प्रतिक्षण क्षीण होते होते वह इतनी कमजोर हो गई है, जैसे वह कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की चंद्रमा हो। विद्यापति राजा शिवसिंह और रानी लखिमा देवी को संबोधित करते हुए उनकी मंगल कामना करते हैं और कहते हैं कि राधा क्ष्ण का प्रेम भी इन दोनों की तरह ही है। ये दोनों भी हमेशा उसी तरह रमण करें जैसे राधा कृष्ण मिलन की स्ठिति में करतें हैं । 

विशेष : 


रस: शृंगार रस
छंद : पद
अलंकार : 
‘कुसुमित कानन हेरी कमलमुखी’ ‘कोकिल कलरव’ ‘मधुकर धुनि सुनी’ ‘धरनी धरि धनी’ में अनुप्रास अलंकार 
‘सुन-सुन’, ‘गुन-गुनी’, ‘हेरि-हेरि’ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
 भाषा: मैथिलि 
विशेष : 
प्रकृति का उद्दिपन रूप मं वर्णन
राधा के विरह की मार्मिक व्यंजना 






सखि हे कि पुछसि अनुभव मोए

 



विद्यपति परिचय : 

  • जन्म : 1352 ई.
  •  मृत्यु  :1448 ई.
  • आश्रय दता राजा: कीर्ति सिंह और शिव सिंह (तिरहुत के राजा थे)
  •  रचनाएं :
  1. विद्यापति पदावली ( मैथिली )
  2. कीर्ति लता कीर्ति पताका (अपभ्रंश)
  3. पुरुष परीक्षा (संस्कृत)
  • उपनाम:  मैथिल कोकिल अभिनव जयदेव
  • भाषा : मैथिली

पद-2 

सखि हे कि पुछसि अनुभव मोए।

सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए। 

जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।            

सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।               

कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।   

लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।

कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।

विद्यापति कह प्रान जुड़इते लाखे न मीलल एक।।

शब्दार्थ:   

पूछेसि: पूछती हो 
 मोर : मेरा  
सेह: वह 
पिरिति : प्रीत/प्रेम 
अनुराग: स्नेह
बखानिय: वर्णन करना
तिल तिल: पल पल 
नूतन: नया 
अबधि: काल या समय 
निहारल: निहारना/ देखना 
भेल: हुआ 
सेहो : वही 
स्रवनहि : कानों से
सूनल: सुना 
स्रुति: श्रुति/ कान
परस : स्पर्श 
गेल: गया 
जुग: युग 
हिय: हृदय
राखल: रखा था 
तइओ: फिर भी
जरनि: जलन 
अनुमोदय: अनुमोदन करना/प्रतिपादित करना 
पेखल : प्रेक्षण करना / देखना  जुड़इते: ठंडक 
मीलल: मिलना 
लाखे : लाखों मे

संदर्भ: 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के विद्यापति शीर्षक पाठ से और विद्यापति पदावली में संकलित हैl इसके रचयिता भक्ति और श्रृंगार के अपूर्ण मध्यकालीन कवि अभिनव जयदेव और मैथिल कोकिल विद्यापति हैं l

प्रसंग: 

व्याख्येय पंक्तियों में कवि ने राधा के माध्यम  सच्चेे प्रेम के वास्तविक रूप का चित्रण किया है l

व्याख्या: 

इन पंक्तियों में राधा अपनी सखी से अपनी प्रेम दशा का वर्णन करते हुए कहती हैं यह सखी तुम मेरे प्रेम का मर्म क्या पूछती हो उसे प्रेम के निहित स्नेह का मैं क्या वर्णन करूं जो प्रतिपल मुझे नया-नया लगता है ? जन्म से ही अर्थात बचपन से ही मैं निरंतर कृष्ण के रूप का दर्शन करती रही, किंतु मेरे नेत्र कभी भी तृप्ति का अनुभव नहीं करते हमेशा उनके दर्शन के लिए प्यासे रहते हैं l मैं सदैव उनके मधुर वचनों को सुनती रही हूं, किंतु मेरे कानों को ऐसा महसूस होता है कि अभी तक उनके शब्दों का मेरे सूती पाठ से स्पर्श ही नहीं हुआ अर्थात अभी भी वे कृष्ण के मधुर शब्दों को सुनने के लिए आकुल रहते हैं l कितनी ही रातों में हमने प्रेम क्रीडा की है, किंतु अभी भी मुझे यह नहीं पता है कि प्रेम की कीड़ा का अनुभव वास्तव में कैसा होता है? लाखों- लाखों युगों से मैं अपने हृदय स्वरूप कृष्ण को अपने हृदय में बसाए हुए हूँ फिर भी मेरे हृदय में अभी में विरह की जलन शांत नहीं हुई l ऐसे में प्रेम का वर्णन सहज नहीं है l इसलिए मुझे यह लगता है कि जिन विद्वानों ने प्रेम के रस अर्थात श्रृंगार रस का वर्णन किया है, उन्होंने वास्तव में प्रेम का अनुभव ही नहीं किया क्योंकि वास्तविक प्रेम का अनुभव करने वाला व्यक्ति उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता l 

अलंकार : 

रस : वियोग श्रृंगार 

छंद: पद 

अलंकार: 

 ‘लाख-लाख’ और ‘तिल-तिल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार
' हिय हिय राखल' में प्रथम हिय का अर्थ हृदय है और दूसरे ही का तात्पर्य कृष्ण से है इसलिए यमक अलंकार 
 'स्रवनहिं सूनल स्रुति' में अनुप्रास अलंकारl 

भाषा: मैथिली

विशेष/साम्य : 

  • इन पंक्तियों में विद्यापति ने प्रेम की अनिर्वचनीयता का वर्णन किया है l
  • भक्त कवि सूरदास ने भक्ति के अनुभव को इसी तरह से अनिर्वचनीय कहा है ' अवगति-गति कछु कहत न आवै।ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै।’ 
  •  तुलसी दास ने भी  राम के प्रति कौशल्या के प्रेम के संबंध में विद्वानों द्वारा वर्णित प्रेम को सीखा हुआ कहा है: कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी। तुलसिदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥
  • विद्यापति ने जिस तरह नित नूतन प्रेम की बात की है वैसे संस्कृत साहित्य म भोज ने ‘सौंदर्य संबंध में लिखा है ‘क्षणे क्षणे यन्नवतमूपैति तदैव रूपम् रमनीयतायां’|’ 

के पतिआ लए जाएत

 






विद्यपति परिचय : 

  • जन्म : 1352 ई.
  •  मृत्यु  :1448 ई.
  • आश्रय दता राजा: कीर्ति सिंह और शिव सिंह (तिरहुत के राजा थे)
  •  रचनाएं :
  • विद्यापति पदावली ( मैथिली )
  • कीर्ति लता कीर्ति पताका (अपभ्रंश)
  • पुरुष परीक्षा (संस्कृत)
  • उपनाम:  मैथिल कोकिल अभिनव जयदेव
  • भाषा : मैथिली

पद ; 1

के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुःख रे भेल साओन मास्।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुःख दारुन रे जग के पतिआए।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥

शब्दादार्थ 

पतिया: पत्र
जाएत: जाता 
पीतम: प्रिय/प्रेमी
भेल: हुआ 
साओन: सावन
एकसरि : अकेले 
रहलो: रहना 
अनकर: दूसरे का 
दारुण: भयानक पतियाय: विश्वास करना 
मोर: मेरा
हरि: कृष्ण 
हर: चुराना 
गेल: गया
तेजि : छोड़ना 
मधुपुर: मथुरा 
कन: क्यों 
अपजस : अपयश 
गाओल : गाना (क्रिया)
धनि: स्त्री 
धरु: धारण करना
धीर: धैर्य 

संदर्भ

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के 'विद्यापति' शीर्षक पाठ से अवतरित और विद्यापति पदावली में संकलित है इसके रचयिता ‘अभिनव जयदेव’ और 'मैथिली कोकिल' की उपाधि प्राप्त भक्ति और शृंगार के शीर्षस्थ मध्यकालीन कवि विद्यापति की रचना 'विद्यापति पदावली' में संकलित हैl 

प्रसंग:

उद्धृत पंक्तियों में विद्यापति ने राधा के वियोग का चित्रण करते हुए उनके प्रेम की मनोदशा को बड़े मार्मिक ढंग से उकेरा है l

व्याख्या: 

कृष्ण के मथुरा जाने के बाद राधा अपनी विरह व्यथा का वर्णन करते हुए अपनी सखी से कहती है हे सखी कृष्ण को गए हुए बहुत दिन बीत गएl उनकी अनुपस्थिति में अकेलेपन के कारण यह भवन मेरे रहने योग्य नहीं रह गया है l मुझसे इस भवन में अकेले रहा नहीं जाताl  विरह के कारण मेरी जो स्थिति है, वह मैं किसी से का भी नहीं सकती क्योंकि उसका अनुमान कोई दूसरा नहीं लग सकता l दुनिया में दूसरे के दुःख की भयानकता को कोई अन्य व्यक्ति नहीं समझ सकता l ऐसे में मैं किसके हाथ से अपना संदेश भेजूं जो मेरी स्थिति का ठीक ठीक वर्णन कर सके? कौन मेरे प्रीतम के पास मेरा पत्र लेकर जाएगा ?  मेरा दुख अत्यंत असह्य है मेरा हृदय इसे सहन नहीं कर पा रहा है l इसे यह सावन का महीना और अधिक बढ़ा रहा हैl वे अपनी सखी से कहती हैं कि हे सखी ! मेरा मन कृष्णा हर कर (चुरा कर) अपने साथ मथुरा लेकर चले गए और मेरा मन भी मेरे वश में नहीं हैl वह उनके साथ-साथ चला गया और उसने मुझे समाज की दृष्टि में मेरे अन्य अन्यमनस्का होने का अपयश दे दिया l कवि विद्यापति कहते हैं कि हे धन्ये! अपने मन में उम्मीद रखो तुम्हारे मन भावन कृष्ण इसी कार्तिक महीने में लौट आएँगे l तुम दुखी और निराश मत होl  

 

काव्य सौंदर्य 

  •  छंद: पद 
  • रस: वियोग शृंगार 
  • अलंकार:  पतिया और पतियाय में यमक अलंकार, मोर मन और हरि हर में अनुप्रास अलंकारl
  • भाषा: मैथिली

 विशेष: 

  1. इन पंक्तियों में विद्यापति ने राधा के विरह व्यथा का मार्मिक चित्रण किया हैl
  2. इन पंक्तियों की नायिका प्रोषित पतिका है l

साम्य: 

  1. सखि 'अनकर दुख दारूरे जग के पतियाय' के समान अभिव्यक्ति हमें घनानंद की इन पंक्तियों में मिलती है कि
    'ब्याउर के उर की पर पीर को बाँझ समाज में जानत को है ?' 
  2. नरसी मेहता ने इस पर पीर को जानने वाले को ही सच्चा वैष्णव कहा है '
    वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाने री l





रविवार, 22 सितंबर 2024

पर्वत कहता / प्रकृति संदेश

सोहन लाल द्विवेदी 




पर्वत कहता शीश उठाकर,

तुम भी ऊँचे बन जाओ।

सागर कहता है लहराकर,

मन में गहराई लाओ


समझ रहे हो क्या कहती हैं

उठ उठ गिर गिर तरल तरंग

भर लो भर लो अपने दिल में

मीठी मीठी मृदुल उमंग!


पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो

कितना ही हो सिर पर भार,

नभ कहता है फैलो इतना


ढक लो तुम सारा संसार!

राम हूँ मैं


लालची बंदर: हरिवंश राय बच्चन


हिमाद्रि तुंग शृंग से


हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'


असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाडवाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!