सोमवार, 10 अगस्त 2020

भारतेंदु युग (सन् 1850 से 1900 ई.)


भारतेंदु युग का नामकरण भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया, जिन्हें हिंदी साहित्य का प्रथम आधुनिक कवि और साहित्यकार माना जाता है। यह युग हिंदी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जो नई सोच, नई भाषा, और नई संवेदनाओं का वाहक बना। इस युग में न केवल कविता का विकास हुआ, बल्कि गद्य लेखन भी स्थापित हुआ, जिससे साहित्य का दायरा विस्तारित हुआ।

भारतेंदु युग की विशेषताएँ:

  1. कविता और गद्य का समांतर विकास:

    • इस युग में कविता के साथ-साथ गद्य लेखन का भी तेजी से विकास हुआ। कविता अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई, जबकि गद्य खड़ी बोली में लिखा गया। खड़ी बोली का उपयोग इस युग में हिंदी के अधिकृत रूप के रूप में किया गया।
  2. काव्य में स्वचेतनता:

    • भारतेंदु युग की कविताओं में स्वचेतनता (self-consciousness) की प्रवृत्ति दिखाई देती है। कवियों ने अपने समय की समस्याओं को संबोधित किया, जिसमें देशभक्ति, समाज सुधार, ब्रिटिश शासन और भारतीय संस्कृति की चर्चा की गई।
    • राज-भक्ति के साथ-साथ देशभक्ति की कविताओं का भी विस्तार हुआ। भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं पर भी चिंता व्यक्त की गई।
  3. सामाजिक और राजनीतिक विचार:

    • भारतेंदु युग में कवियों ने ब्रिटिश शासन के नकारात्मक प्रभावों की आलोचना की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों और भारत में अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई।
    • निज भाषा के महत्व को भी इस युग में बल मिला। भारतेंदु और उनके समकालीन कवियों ने यह संदेश दिया कि यदि भारतीय समाज को समृद्ध और सशक्त बनाना है, तो उसे अपनी निज भाषा का सम्मान करना चाहिए।
  4. साहित्यिक योगदान:

    • भारतेंदु हरिश्चंद्र के काव्य में काव्य शिल्प और भावों के साथ-साथ राष्ट्रीयता और सामाजिक जागरूकता की झलक मिलती है। उनकी रचनाएँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।
    • भारतेंदु युग की कविताओं में, विशेष रूप से देशभक्ति और निज भाषा के विकास पर जोर दिया गया।

भारतेंदु युग की कुछ प्रमुख कविताएँ:

  1. कठिन सिपाही द्रोह अनल जल बल सों नासी:

    • इस कविता में कवि ने विभिन्न विपत्तियों और कठिनाइयों के बावजूद भारतीय वीरता को प्रस्तुत किया है। यह कविता संघर्ष और शौर्य की प्रतीक है।
  2. अँग्रेज राज सुख साज सबै है भारी:

    • इस कविता में ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की गई है, जिसमें यह दर्शाया गया कि किस प्रकार से भारतीयों का शोषण किया जा रहा था।
  3. निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल:

    • यह कविता भारतीय भाषा और संस्कृति के महत्व को समझाती है। कवि ने यह बताया कि निज भाषा की उन्नति ही समाज की और राष्ट्र की उन्नति का आधार है।
    • कविता का संदेश: "बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल" अर्थात अपनी भाषा के ज्ञान के बिना, किसी भी व्यक्ति का मानसिक संतुलन और आत्मविश्वास स्थापित नहीं हो सकता।

निष्कर्ष:

भारतेंदु युग हिंदी साहित्य में एक नये युग की शुरुआत थी, जिसने न केवल साहित्यिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यह युग भारतीय समाज की चेतना और जागरूकता के विकास का प्रेरणास्त्रोत बना और आगामी साहित्यिक आंदोलनों के लिए एक ठोस नींव तैयार की।

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

हिंदी साहित्य में आधुनिक काल (सन् 1850 से अब तक) का विकास

 आधुनिक काल (सन् 1850 से अब तक) का परिभाषा और विकास

आधुनिक काल को हिंदी साहित्य के इतिहास में चौथा काल माना जाता है। इसकी शुरुआत सन् 1843 ई. से होती है और यह 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के बाद पूर्ण रूप से विकसित हुआ। इस युग में भारतीय समाज में आधुनिकता का प्रवेश हुआ, जो फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई.) से प्रेरित था। यह युग बदलाव, सामाजिक जागरूकता और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का युग था।

आधुनिकता का अर्थ:

आधुनिकता एक प्रवृत्ति है, जो व्यक्ति, समाज, और राज्य के प्रति नए दृष्टिकोणों को लेकर आई। इसका मूल उद्देश्य था:

  • धर्म की जगह विज्ञान का महत्व,
  • भावना की जगह तर्क का स्थान,
  • ईश्वर की जगह मनुष्य को सर्वोच्च मानना।

इसने व्यक्तित्व, लोकतंत्र, और मानवीय अधिकारों की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके परिणामस्वरूप राजतंत्र का स्थान लोकतंत्र ने लिया, और समता, न्याय, और बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्य प्रबल हुए।

भारत में आधुनिकता:

भारत में आधुनिकता की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई। इस समय ब्रिटिश शासन का प्रभाव था, जिसने कई बड़े बदलावों की शुरुआत की:

  1. राजनीतिक एकीकरण: छोटे-छोटे राज्यों के विलय के बाद, भारत एक केंद्रीय सरकार के अधीन आ गया।
  2. आर्थिक एकीकरण: ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को एकीकृत किया, जिससे व्यापार की प्रणाली में बदलाव आया।
  3. परिवहन और संचार: रेलवे और अन्य परिवहन के साधनों के विकास से पूरे देश में आपसी संपर्क बढ़ा।
  4. शिक्षा का यूरोपीकरण: यूरोपीय शिक्षा पद्धति को अपनाकर अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा का प्रसार हुआ।

आधुनिकता के महत्त्वपूर्ण कारक:

  1. 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम: इस युद्ध के बाद भारतीयों में एकता की भावना जागृत हुई और ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति की ललक पैदा हुई।
  2. सामाजिक सुधार आंदोलन: सती प्रथा, विधवा विवाह, और स्त्री शिक्षा जैसे सामाजिक सुधार आंदोलनों ने भारत में सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी।
  3. प्रेस की स्थापना और समाचार पत्रों का प्रकाशन: प्रेस की भूमिका ने जन जागरूकता में वृद्धि की और समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई।

आधुनिक हिंदी साहित्य:

आधुनिक काल को हिंदी साहित्य में गद्य काल भी कहा जाता है। इस काल में:

  • गद्य साहित्य का विकास हुआ।
  • हिंदी में खड़ी बोली (मानक हिंदी) को साहित्य की भाषा के रूप में अपनाया गया।
  • साहित्य ने राष्ट्रीयता, सामाजिक जीवन, और सामान्य मनुष्य को केंद्र में रखा।

आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख कालविभाजन निम्नलिखित हैं:

  1. भारतेंदु युग (सन् 1850 से 1900 ई.):

    • इस काल में कविता और गद्य दोनों का विकास हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र के योगदान के कारण इसे विशेष महत्व प्राप्त है।
  2. द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1918 ई.):

    • इस युग में संस्कृत साहित्य और प्रारंभिक हिंदी साहित्य का पुनरुत्थान हुआ।
  3. छायावाद युग (सन् 1918 से 1936 ई.):

    • छायावाद में प्रकृति, रुमानिज़्म, और आध्यात्मिकता की प्रमुखता रही। प्रमुख कवि जैसे सुमित्रानंदन पंत, सोरहिंद वर्मा, जयशंकर प्रसाद इस काल के प्रमुख लेखक थे।
  4. प्रगति-प्रयोग युग (सन् 1936 से 1954 ई.):

    • यह युग समाजवादी विचारधारा और नवजागरण का समय था। सामाजिक मुद्दों और संघर्षों पर आधारित साहित्य को प्रमुखता मिली।
  5. स्वातंत्र्योत्तर साहित्य (सन् 1947 के बाद):

    • यह काल स्वतंत्र भारत के बाद के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलावों को दर्शाता है।

निष्कर्ष:
आधुनिक काल ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और उसे राष्ट्रीय पहचान प्रदान की। इसके परिणामस्वरूप साहित्य ने न केवल सामाजिक सुधार, बल्कि राष्ट्र निर्माण और मनुष्य के अधिकार को भी केंद्र में रखा।

अधुनिक काल : गद्यकाल

 संवत् 1900 (सन् 1843 ई. के बाद) से अब तक 

सोमवार, 6 जुलाई 2020

पूर्वमध्यकाल : भक्तिकाल

 

संवत् 1375 से संवत् 1700 तक

( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

मध्य का अर्थ है- बीच ।  मध्यकाल आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का काल है । इसके दो भाग हैं— 1. पूर्वमध्यकाल 2. उत्तरमध्यकाल । पूर्व मध्यकाल का ही दूसरा नाम भक्तिकाल है । यह काल भक्ति-साहित्य के लिए प्रसिद्ध है ।

भक्ति की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई । रामानंद ने इसे उत्तर भारत ले गए । उनका संबंध तमिल आलवारों से था । आलवार वैष्णव थे । रामनंद का संबंध इन्हीं आलवारों से माना जाता है । हिंदी के भक्त कवि रामानंद की शिष्य-परंपरा में हैं ।

भक्ति काव्य की  विशेषताएँ : ईश्वर से प्रेम करने को भक्ति कहते हैं । भक्ति काल में भक्ति को विषय बनाकर कविताएँ लिखी गईं। भक्ति काव्य का क्षेत्र-विस्तार पूरे भारत में था।  भक्ति काव्य ने देशी भाषाओं को महत्व दिया। हिन्दी के भक्ति काव्य में ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी आदि बोलियों में कविताएँ लिखी गईं। इन कविताओं में भक्ति के बाद सबसे अधिक सामाजिक समानता को महत्व दिया। भक्ति काल को हिंदी कविता का स्वर्ण युग कहा जाता है।

 

भक्ति दो प्रकार की होती है—

     भक्ति


 

 


                         सगुण भक्ति                   निर्गुण भक्ति


 


                                   

      कृष्ण भक्ति                 राम भक्ति            ज्ञानाश्रयी              प्रेमाश्रयी

                                                (संत कवि)      (सूफी कवि)

गुरुवार, 11 जून 2020

हिंदी साहित्य का आरंभ

 

हिंदी साहित्य का आरंभ

हिंदी साहित्य की शुरुआत की एक निश्चित तिथि नहीं बताई जा सकती, लेकिन इसका आरंभ सन् 1000 ई. के आसपास मानी जा सकती  है । तब से लेकर अब तक लगभग एक हजार साल में हिंदी का साहित्य लगातार आगे बढ़ता रहा है । इसमें कई तरह के बदलाव आये । इन बदलावों के आधार पर हिंदी साहित्य को अलग-अलग कालों में बाँटा गया है । इन कालों की सही समय-सीमा और नामकरण को लेकर विद्वानों अलग-अलग विचार हैं । इनमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल-विभाजन अधिक मान्य है ‌‌। उनके अनुसार—

1.      आदिकाल (वीरगाथाकाल) : संवत् 1050 से 1375 तक  ( सन् 993 ई. से  सन्1318 ई. )

2.      पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल)  : संवत् 1375 से संवत् 1700 तक ( सन् 1318 ई. से  सन्1643 ई. )

3.      उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल) : संवत् 1700 से संवत् 1900 तक ( सन् 1643 ई. से  सन् 1843 ई. )

4.      आधुनिक काल ( गद्यकाल) : संवत् 1900 से अब तक ( सन् 1843 ई. से  अबतक)

आदिकाल (वीरगाथाकाल )

संवत् 1050 से 1375

आदिकाल हिंदी भाषा में साहित्य लिखने की शुरुआत का समय है । हिंदी भाषा से पहले साहित्य की भाषा अपभ्रंश थी। इसमें आठवीं शताब्दी के आस पास से साहित्य-रचनाएँ मिलने लगती हैं । चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे पुरानी हिंदी कहा है । लेकिन हिंदी साहित्य के आदिकाल का वास्तविक समय संवत् 1050 से 1375 तक माना जाता है। इस समय तीन तरह के साहित्य लिखे गये –

1.      धार्मिक काव्य

2.      वीरगाथा काव्य

3.      स्वतंत्र काव्य

धार्मिक काव्य – इस समय भारत में कई तरह के धार्मिक विचार थे । इनमें से सिद्ध, नाथ और जैन तीन मुख्य थे। आदिकालीन हिंदी में इन तीनों से जुड़ी धार्मिक  रचनाएँ  मिलती हैं । इनमें साहित्य की जगह धार्मिक विचार अधिक प्रभावी  हैं । इन कवियों ने अपनी कविताओं में अपने-अपने धर्मों की शिक्षा दी है। ये धार्मिक विचार की कविताएँ हैं। ये विचार दोहा, चरित काव्य और चार्यापदों में रचे गए हैं । इनमें से मुख्य कवि हैं—

धार्मिक मत

कवि

काव्य

सिद्ध

सरहपा

दोहाकोश

जैन

स्वयंभू

मेरुतुंग

हेमचंद्र

पउम चरिउ (राम-कथा)

प्रबंध चिंतामणि

प्राकृत व्याकरण

नाथ

गोरख नाथ

गोरखबानी

 

जैन काव्य की विशेषताएँ :

1.      जैन काव्य जैन धर्म से प्रभावित है ।

2.      जैन धर्म के महापुरुषों के जीवन को विषय बनाकर चिरित काव्य लिखे गए; जैसे- पउम चरिउ, जसहर चरिउ, करकंडु चरिउ,भविसयत कहा आदि ।

3.      जैन कवियों ने व्याकरण-ग्रंथ भी लिखे ; जैसे- प्राकृत व्याकरण, प्रबंधचिंतामणि, सिद्धहेम शब्दानुशासन आदि ।

4.      कड़वक बंध रचनाएँ और चौपई छंद जैन कवियों की देन है ।

5.      हिंदी का पहला बारहमासा वर्णन जैन साहित्य में मिलता है ।

वीरगाथा काव्य– इस समय भारत में एक केंद्रीय सत्ता की कमी थी। देश कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था और प्रत्येक राजा दूसरे राजा से राज्य छीनना चाह रहा था और अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसलिए वे आपस में लड़ रहे थे। इन राजाओं के राज्य में रहने वाले कवियों ने अपने राजाओं की वीरता का वर्णन  किया है । इस लिए इन्हें वीरगाथा काव्य कहा जाता है। इन कविताओं का विषय लड़ाइयों का वर्णन है । चंदबरदाई का पृथ्वीराज रासो और जगनिक का परमाल रासो इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है।

स्वतंत्र काव्य – जिन कवियों ने धार्मिक काव्य और वीरगाथा काव्य नहीं लिखे । उनकी कविताएँ इन दोनों प्रकार के काव्यों से अलग हैं , उन्हें स्वतंत्र कवि कहा जा सकता है; जैसे विद्यापति और अमीर खुसरो 

1.      विद्यापति (14 वीं शताब्दी) — इनके तीन प्रसिद्ध काव्य कीर्तिलता’, कीर्तिपताका और पदावली हैं। कीर्तिलता और कीर्ति पताका का संबंध राजा कीर्ति सिंह से है। विद्यापति उन्हीं के यहाँ रहते थे। पदावली में राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है। इसमें उन दोनों का प्रेम एक सामान्य युवक और युवती के प्रेम जैसा है। विद्यापति के इस काव्य का सबसे अधिक महत्त्व है।

2.      अमीर खुसरो (14 वीं शताब्दी) —  खुसरो फारसी के कवि थे। उन्होंने हिंदी में भी रचनाएँ कीं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने प्रसिद्ध हैं। खुसरो  की रचनाओं की भाषा आधुनिक काल की हिंदी के करीब है। इसलिए इनका ऐतिहारिक महत्त्व है।

3.      अद्दहमाण / अब्दुल रहमान (13वीं शताब्दी)- संदेश रासक (शृंगार काव्य)

4.      रोडा- राउड बेलि (शृंगार काव्य)

5.      लक्षमीधर - प्राकृत पैंगलम्

आदिकाल की सामान्य विशेषताएँ :

1.      इस काल में वीर-काव्य लिखे गए।

2.      इस काल के कवि राजाओं के दरबारी कवि थे और उन्होंने अपने राजाओं की प्रशस्ति में कविताएँ लिखीं।

3.      आदिकाल में वीर के साथ-साथ कुछ शृंगार (प्रेम) की रचनाएँ की भी मिलती हैं; जैसे-  नरपति नाल्ह की बीसलदेव रासो  और विद्यापति की पदावली

4.      जैन और सिद्ध कवियों ने अपने धार्मिक विचार के प्रचार के लिए साहित्य का आधार बनाया है। जसहर चरिउ’, रिठ्ठणेमि चारिउ आदि ।

5.      इन रचनाओं की भाषा अपभ्रंश मिली-जुली हिंदी (डिंगल- पिंगल और अवहट्ट) है।

6.       खुसरो की रचनाओं तथा उक्तिव्यक्ति प्रकरण से आधुनिक हिंदी भाषा का पूर्वानुमान मिलने लगता है।

7.      चरित, दोहा और पद— जैसे नए काव्य-रूप का प्रयोग किया, जो बाद में अधिक लोकप्रिय हुए ।

शनिवार, 9 मई 2020

गीत गाने दो मुझे : निराला

परिचय :

´  ‘गीत गाने दो मुझेकविता महाप्राण निराला की कविता है .

´  यह कविता उनके काव्य संकलन अर्चनामें संकलित है, जो सन्‌ 1950 में प्रकाशित हुई थी .

´  निराला छायावादी काव्य चतुष्टयी के प्रमुख कवि हैं .

´  इनकी कविता में प्रेम और सौंदर्य के सथ ही ओज और करुणा के स्वर भी सुनाई पड़ते हैं .

´  गीत गाने दो कविता भी ऐसी ही कविता है, जिसमें पीड़ा और आक्रोश की सम्मिलित अभिव्यक्ति है .

´   आत्मव्यंजकता या आत्माभिव्यक्ति गीत विधा की पहचान है . यहां भी निराला अपनी पीदा और आक्रोश को व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन यहाँ उनका मैं अहम्भारतोस्मि' (मैं भारत हूँ) से जुड़ा होने के कारण निराला की निजी पीड़ा के साथ भारत की जनता की पीड़ा भी है .

भावार्थ : 

गीत गाने दो कविता में निराला ने ऐसे समय की ओर इशारा किया है, जिसमें चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते होश वालों के भी  होश खो गए हैं . यानी, जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। पूरी मानवता हाहाकार कर रही है लगता है पृथ्वी की लौ बुझ गई है, मनुष्य में जिजीविषाखत्म हो गई है। इसी लौ को जगाने की बात कवि कर रहा है और वेदना को छिपाने वेफ लिए,उसे रोकने के लिए गीत गाना चाहता है। निराशा में आशा का संचार करना चाहता है।



काव्यार्थ: मुझे अपने भीतर की पीड़ा को दबाने के लिए गीत गाने दो. रास्ते की चोट खाकर होश वालों के होश ने भी जवाब दे दिया. हाथ में जो रास्ते का भोजन था उसे भी ठगने वाले मालिकों (सामंत और पूंजीपति वर्ग) ने हमारे अनजाने में लूट लिया. यह वातावरण बहुत दम-घोंटू है. ऐसा लग रहा है, जैसे मृत्यु करीब आ रही है. 

व्याख्या : जिसे तुम गीत समझ रहे हो, वह मेरे भीतर की पीडा है, जिसे मैं गा रहा हूँ . इसलिए तुम मुझे रोको मत मुझे अपने गीतों में उसे कह लेने दो . यह वेदना निरला के निजी-सुख दुख की वेदना नहीं भारत के तैतीस करो लोगों की वेदना है, जो अजाद भारत मैं खुशहली की उम्मीद लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा चुके थे . उनके पस जो कुछ भी संबल था आधार था जीवन के रस्ते पर चलने के लिए सहारा था, वह सबकुछ मालिकों (पूंजीपतियो, सामंतो, राजनीतिज्ञों) ने अनजाने में मीठी-मीठी बातें कर और भविष्य के सुंदर सपने दिखाकर लूट लिया . वातावरण  इतना दम-घोंटू है कि इसने हमें मरणासन्न कर दिया है . अपनी बात कहने में गला रुँधा जा रहा है . अपनी पीड़ा को व्यक्त करना मुश्किल लग रहा है . इसलिए मुझे रोको मत मुझे गीत गाने दो क्योंकि ये गीत हमारी पीड़ा को दबाने का माध्यम है . 

काव्य-शिल्प : 

अलंकार : गीत गानेऔर ठग-ठाकुरों में अनुप्रास अलंकार . 

रस=करुण रस, 

छन्द : प्रगीत. गुण : प्रसाद गुण 

बिंब = कंठ रुकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो दृश्य-बिम्ब,  

प्रतीक  = ठग-ठाकुर सत्ता मैं बैठे सामंतों, पूंजीपतियों के प्रतीक. 

भाषा- शैली = संस्कृतनिष्ठ मानक हिंदी का प्रयोग . भाव-सम्प्रेषण  के लिए राह चलते चोट खाना  होश के भी होश छूटना,  कंठ रूकना और काल आना में मुहावरो का प्रयोग

गुण : प्रसाद । 



काव्यार्थ: ऐसा लग रहा है जैसे यह संसार बार-बार हारकर अपने भीतर क्रोध और प्रतिशोध  के ज़हर से भर गया है । लोग एक दूसरे को ठीक से पहचान नहीं पा रहे हैं और अपरिचित निगाहों से सभी को देख रहे हैं । कुंती के बीतर की आग (जिसने अन्याय के खिलाफ महाभारत का युद्ध रच दिया था ) भी बुझ गई है । तुम एक बार फिर उस आग को सींचने के लिए जल उठो । 
व्याख्या : ऐसा लग रहा है कि हार-हार कर इस संसार के सभी मनुष्यों में क्रोध, प्रतिशोध और घृणा का जहर भर गया है । एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर विश्वास नहीं करता । लोग एक दूसरे के साथ अनजान की तरह देखते हैं । एक दूसरे के भीतर छिपी मनुष्यता, जिजीविषा, शक्ति आदि से वे अपरिचित हैं । जिस तरह अपमान और अन्याय के बावजूद कुंती ने अपने भीतर जिजीविषा कायम रखी उसके भीतर अपने अस्तित्व को जिलाए रखने कि शक्ति हमेशा जागती रही और इसी के कारण उसके पुत्र महाभारत में अन्याय और अपमान से लड़ सके, उस तरह की जिजीविषा और आत्मशक्ति लग रहा है बुझ उठी है । उस बुझी हुई शक्ति को अपने भीतर की जिजीविषा से सींचने के लिए तुम अपनी आत्मशक्ति को प्रज्वलित करो । 

काव्य-शिल्प : 

अलंकार : संसार जैसे हार खाकर अनुप्रास, लोग लोगों लाटानुप्रास तथा जल उठो फिर सींचने को में विरोधाभास । 

रस: वीर रस । 

छंद: प्रगीत। 

बिंब: बुझ जाना और जल उठना में 

दृश्य-बिंब । 

मिथक : पृथा के संदर्भ से महाभारत का मिथक, 

प्रतीक : लौ चेतना और क्रांति का प्रतीक । 

भाषा : सहज-संप्रेष्य मानक हिंदी का प्रयोग । 

शैली : लाक्षणिक




सोमवार, 4 मई 2020

निराला : जीवन और साहित्य


सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिंदी साहित्य के महान कवि थे, जिनका योगदान साहित्य जगत में अमूल्य है। उनका जन्म 21 फरवरी 1896 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था। वे एक स्वतंत्र विचारक, क्रांतिकारी कवि और अद्वितीय साहित्यकार थे। उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ था, लेकिन उनकी कविताओं में हमेशा एक विशेष शक्ति, संवेदना और गहरी समझ दिखाई देती है।

निराला का जीवन और प्रेरणा

निराला का जीवन कठिनाइयों और अभावों से भरा हुआ था। उनके पिता बंगाल के महिषादल राज्य में नौकरी करते थे, और उनका जन्म वहीं हुआ। निराला अपनी युवा अवस्था में पहलवानी करते थे और शारीरिक रूप से अच्छे कद-काठी के थे। उनका जीवन कठिनाइयों में बीता। शादी के कुछ ही दिनों बाद उनकी पत्नी का निधन हो गया, और इसके बाद उनके जीवन में और भी कठिनाइयाँ आईं। इसके बावजूद, निराला ने साहित्य की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाई।

उनका जीवन आर्थिक संकटों से जूझता हुआ बीता, लेकिन इसका असर उनकी कविता पर कभी नहीं पड़ा। उनका शोक, ग़म, और संघर्ष उनकी कविताओं में झलकता है, जो उन्हें एक अद्वितीय कवि बनाता है। निराला की पुत्री सरोज का निधन भी उनके जीवन का एक दर्दनाक मोड़ था, और उसकी याद में उन्होंने 'सरोज-स्मृति' नामक लंबी कविता लिखी, जो हिंदी साहित्य में एक अनूठी शोक-गीत मानी जाती है।

निराला की काव्य विशेषताएँ

निराला ने हिंदी कविता में कई नई दिशाओं की खोज की। उनकी कविता में जहाँ एक ओर प्रेम और सुंदरता की झलक मिलती है, वहीं दूसरी ओर उसमें आक्रोश और यथार्थ का भी प्रमुख स्थान है। उनकी कविता का मुख्य तत्व था उनका अद्वितीय शैली, जिसमें वे मुक्त छंद का प्रयोग करते थे। 'जूही की कली' उनकी इस शैली का बेहतरीन उदाहरण है।

निराला की कविता में माधुर्य और ओज दोनों गुण मिलते हैं। उनकी कविताओं में कल्पना और यथार्थ दोनों का सुंदर संतुलन है। 'वह तोड़ती पत्थर' और 'कुकुरमुत्ता' जैसी कविताएँ निराला के यथार्थबोध की गवाह हैं, जबकि 'संध्या-सुंदरी' और 'जूही की कली' जैसी कविताएँ उनकी कल्पना और सुंदरता को दर्शाती हैं।

निराला की कविताओं में उनके जीवन के दर्शन और प्रभाव भी दिखाई देते हैं। रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित निराला की कविताओं में रहस्यवाद और आध्यात्मिकता का समावेश है। 'कौन तम के पार?' जैसी कविताएँ इसके उदाहरण हैं।

कुछ प्रसिद्ध कविताएँ

  1. रहस्य—

    • "कौन तम के पार?"
    • "अखिल-पल के स्रोत, जल जग, गगन घन-घन-धार—"
  2. कल्पना—

    • "दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से उतर रही संध्या-सुंदरी परी सी धीरे-धीरे-धीरे।"
  3. यथार्थ—

    • "वह तोड़ती पत्थर।"
    • "देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर वह तोड़ती पत्थर।"

निराला की प्रमुख कविताएँ

  1. जूही की कली
  2. संध्या-सुंदरी
  3. राम की शक्तिपूजा
  4. सरोज-स्मृति
  5. वह तोड़ती पत्थर
  6. कुकुरमुत्ता

निराला की कविताओं का प्रभाव

निराला की कविताएँ हिंदी साहित्य के इतिहास में मील के पत्थर के रूप में देखी जाती हैं। उन्होंने भारतीय कविता को एक नई दिशा दी, जहाँ भावनाओं और विचारों का अद्वितीय संयोजन देखने को मिलता है। उनकी कविताओं में जीवन के हर पहलू की गहरी अभिव्यक्ति होती है—आध्यात्मिकता से लेकर भौतिक संघर्ष तक। निराला का लेखन न केवल उनके समय के, बल्कि आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक और प्रेरणादायक है।

निष्कर्ष

निराला का साहित्य सृजन उनके जीवन के संघर्षों, दृष्टिकोण और गहरे आत्मविश्लेषण का परिणाम था। उनका साहित्य जीवन के कठिनतम पहलुओं को सुंदरता, संघर्ष, और शोक के माध्यम से व्यक्त करता है। हिंदी साहित्य में उनकी पहचान एक महान कवि और लेखक के रूप में सदैव बनी रहेगी।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

देवसेना का गीत : जयशंकर प्रसाद

                               देवसेना का गीत 



देवसेना का गीत छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद जी के नाटक 'स्कंदगुप्त' से लिया गया है , इसमें देवसेना की वेदना का मार्मिक चित्रण किया गया है। देवसेना जो मालवा की राजकुमारी है उसका पूरा परिवार हूणों के हमले में  वीरगति को प्राप्त होता है। वह रूपवती / सुंदर थी लोग उसे तृष्णा भरी नजरों से देखते थे , लोग उससे विवाह करना चाहते थे , किंतु वह स्कंदगुप्त से प्यार करती थी , किंतु स्कंदगुप्त धन कुबेर की कन्या विजया से प्रेम करता था। जिसके कारण वह देवसेना के प्रणय - निवेदन को ठुकरा देता है। परिवार सभी सदस्यों के मारे जाने के उपरांत उसका कोई सहारा नहीं रहता , जिसके कारण वह इस जीवन में अकेली हो जाती है। जीवन - यापन के लिए जीवन की संध्या बेला में भीख मांगकर जीवनयापन करती है और अपने जीवन में व्यतीत क्षणों को याद कर कर दुखी होती है।




आह ! वेदना मिली विदाई !

मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,

मधुकरियो की भीख लुटाई।


छलछल थे संध्या के श्रमकण

आंसू - से गिरते थे प्रतिक्षण।

मेरी यात्रा पर लेती थी-

निरवता अनंत अंगड़ाई।


शब्दार्थ :

वेदना - पीड़ा। भ्रमवश - भ्रम के कारण। मधुकरियो - पके हुए अन्न।  श्रमकण - मेहनत से  उत्पन्न पसीना।  नीरवता - खामोशी। अनंत - अंतहीन।


प्रसंग :

प्रस्तुत पंक्तियां देवसेना का गीत जो प्रसाद जी के नाटक स्कंदगुप्त  का अंश है।   हूणों  के हमले से अपने भाई और मालवा के राजा बंधुवर्मा तथा परिवार के सभी लोगों के वीरगति पाने और अपने प्रेम स्कंधगुप्त द्वारा ठुकराया जाने से टूटी देवसेना जीवन के आखिरी मोड़ पर आकर अपने अनुभवों में अर्जित दर्द भरे क्षण  का स्मरण करके यह गीत गा रही है इसी दर्द को कवि देवसेना के मुख से गा रहा है।


व्याख्या :

कवि देवसेना के मुख से अपने जीवन के अनुभव को व्यक्त करना चाह रहा है जिसमें वह छोटी छोटी बातों को भी शामिल करना चाहता है। आज मेरे दर्द को मुझसे विदाई मिल गई जिस भ्रम में रहकर मैंने जीवन भर आशाओं और कामनाओं कोई इकट्ठा  किया उसे मैंने भीख में दे दिया। मेरी दर्द भरी शामें आंसू में भरी हुई और मेरा जीवन गहरे वीरान जंगल में रहा। देवसेना अपने बीते हुए जीवन पर दृष्टि डालते हुए अपने अनुभवों और पीड़ा के पलों को याद कर रही है जिसमें उसकी जिंदगी के इस मोड़ पर अर्थात जीवन की आखिरी क्षणों में वह अपने जवानी में किए गए कार्यों को याद करते हुए अपना दुख प्रकट कर रही है। अपनी जवानी में किए गए प्यार , त्याग ,तपस्या  को वह गलती से किए गए कार्यों की श्रेणी में बताकर उस समय की गई अपनी नादानियों पर पछतावा कर रही है। जिसके कारण उसकी आंखों से आंसू बह निकले हैं।


विशेष :

१ देवसेना के जीवन का संघर्ष तथा उसके  मनोदशा का चित्रण आंसू से गिरते थे।

२ 'प्रतिक्षण' में उपमा अलंकार

३ 'छलछल'  में पुनरुक्ति अलंकार

४ मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अंगड़ाई में 'मानवीकरण' हुआ है




श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,

गहन - विपिन की तरु - छाया में,

पथिक उंनींदी श्रुति में किसने-

यह विहाग की तान उठाई।


लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,

रही बचाए फिरती कबकी।

मेरी आशा आह ! बावली,

तूने खो दी सकल कमाई।


शब्दार्थ :

श्रमित - श्रम से युक्त। मधुमाया - सुख की माया। गहन - विपिन - घने जंगल। पथिक - राही।  उंनींदी - अर्ध निंद्रा। विहाग - राग। सतृष्ण - तृष्णा से युक्त दृष्टि।


व्याख्या : देवसेना कहती है कि परिश्रम से थके हुए सपने के मधुर सम्मोहन में घने वन के बीच पेड़ की छाया में विश्राम करते हुए यात्री की नींद से भरी हुई सुनने की अलसाई क्रिया में यह किसने राग बिहाग की स्वर लहरी छेड़ दी है। भाव यह है कि जीवन भर संघर्ष रत रहती हुई देवसेना  दिल से नासिक सुख  की आकांक्षा लिए मीठे सपने देखती रही।  जब उसके सपने पूरे ना हो सके तो वह थक कर निराश होकर सुख की आकांक्षा से विदाई लेती हुई उससे मुक्त होना चाहती है। ऐसी स्थिति में भी करुणा भरे गीत की तरह वियोग का दुख उसके हृदय को कचोट रहा है। देवसेना कहती है की युवावस्था में तो सब की तृष्णा भरी अर्थात प्यासी नजरें मेरे ऊपर फिरती रहती थी। परंतु यह मेरी आशा पगली तूने मेरी सारी कमाई हुई पूंजी ही खो दी। देवसेना के कहने का तात्पर्य यह है कि जब अपने आसपास उसके सब की प्यासी नजरें दिखती थी तब वह स्कंदगुप्त प्रेम में पड़ी हुई स्वयं को उस से बचाने की कोशिश करती रहती थी। परंतु अपनी पागल आशा के कारण वह अपने जीवन की पूंजी अपनी सारी कमाई को बचा न सकी अर्थात उसे अपने प्रेम के बदले और सुख नहीं मिल सका।


चढ़कर मेरे जीवन - रथ पर,

प्रलय चल रहा अपने पथ पर।

मैंने  निज दुर्बल पद - बल पर,

उससे हारी - होड़ लगाई।


लौटा लो यह अपनी थाती ,

मेरी करुणा हा - हा खाती।

विश्व ! न सँभलेगा यह मुझसे,

इससे मन की लाज गंवाई।



शब्दार्थ :

निज - अपना। प्रलय - आपदा। थाती - धरोहर /प्यार /अमानत। सतृष्ण - तृष्णा संयुक्त।


व्याख्या :

देवसेना कहती है कि मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर प्रलय अपने रास्ते पर चला जा रहा है। अपने दुर्बल पैरों के बल पर उस प्रलय से ऐसी प्रतिस्पर्धा कर रही हूं जिसमें मेरी हार सुनिश्चित है। देवसेना कहती है कि यह संसार तुम अपने धरोहर को अमानत को वापस ले लो , मेरी करुणा हाहाकार कर रही है , यह मुझसे नहीं समझ पाएगा इसी कारण मैंने अपने मन की लज्जा को गवा दिया था। आज यह है कि देवसेना जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। पहले स्वयं देवसेना के जीवन रथ पर सवार है अब तो वह अपने दुर्बल शरीर से हारने की अनिश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेते रहती है। उसका पूरा जीवन ही दुख में है वह करुणा के स्वर में कहती है कि अंतिम समय में हृदय की वेदना अब उससे संभल नहीं पाएगी इसी कारण उसे मन की लाज गवानी पड़ रही है।


विशेष :

१ जीवन रथ में 'रूपक' अलंकार है।

२ 'पथ पर हारी होर' , ' लौटा लो' में अनुप्रास अलंकार है

३ प्रलय चल रहा अपने पथ पर में प्रलय का मानवीकरण हुआ है

४ माधुर्य गुण है व्यंजना शब्द शक्ति है।