गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

मलिक मुहम्मद जायसी

 

मलिक मुहम्मद जायसी (1492 ई. - ?) को हिंदी साहित्य में एक महान सूफी कवि माना जाता है। वे प्रेमाश्रयी (प्रेममार्गी) कवि थे, जिन्होंने सूफी विचारधारा को अपनी कविता में बहुत गहराई से उतारा। उनका काव्य जीवन और प्रेम के सूफी दृष्टिकोण का प्रतीक था। 'पद्मावत' उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसे अवधी भाषा में लिखा गया था। इसमें राजा रतनसेन और राजकुमारी पद्मावती के प्रेम की कथा है। इस काव्य के माध्यम से जायसी ने प्रेम को एक आध्यात्मिक अनुभव के रूप में चित्रित किया।

जायसी के विचार और उनके काव्य की विशेषताएँ:

  1. प्रेम संबंधी विचार: जायसी के अनुसार प्रेम एक दिव्य और आत्मा को मोक्ष देने वाला अनुभव है। उनका प्रसिद्ध कथन है—

    "मानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।"
    इसका अर्थ है कि प्रेम ही मानव को स्वर्ग (बैकुंठ) तक पहुँचा सकता है, अन्यथा जीवन में कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। जायसी के अनुसार प्रेम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप में सर्वोत्तम है। यह विचार सूफी प्रेम के सिद्धांत को ही दर्शाता है, जिसमें प्रेम को ईश्वर से मिलने का माध्यम माना जाता है।

  2. गुरु संबंधी विचार: जायसी का मानना था कि गुरु ही उस मार्ग को दिखाता है, जो आत्मा को सत्य तक पहुँचाता है। उनके अनुसार बिना गुरु के कृपा के कोई भी व्यक्ति ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता।

    "गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा, बिनु गुरु कृपा को निरगुन पावा।"

  3. ब्रह्म संबंधी विचार: जायसी के अनुसार पद्मावती का प्रतीक ईश्वर है, जबकि रतनसेन का प्रतीक मनुष्य या जीव है। उनका यह दर्शन सूफी विचारधारा से प्रभावित था, जिसमें ईश्वर और जीव के बीच प्रेम को केंद्रित किया गया है। पद्मावती और रतनसेन के प्रेम की कथा, उनकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा के बीच का प्रेम ही है।

  4. नागमती का वियोग: जायसी की कविता में नागमती के वियोग का वर्णन विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस कथा में प्रेमिका के वियोग में व्यक्ति का दुख और पीड़ा को चित्रित किया गया है। यह वियोग, रचनात्मक रूप से बारहमासा के रूप में व्यक्त किया गया है। बारहमासा एक काव्य रूप है जिसमें वर्ष के बारह महीनों में प्रेमिका के वियोग का वर्णन किया जाता है।

  5. बारहमासा: बारहमासा एक विशेष काव्यशैली है जिसका प्रयोग जायसी ने वियोग के दुःख को व्यक्त करने के लिए किया। यह काव्य रूप विशेष रूप से प्रेम और वियोग के भावों को व्यक्त करता है, जिसमें साल के प्रत्येक महीने में प्रेमिका के वियोग का वर्णन किया जाता है। इस शैली का उपयोग जायसी ने नागमती के वियोग के वर्णन में किया।

  6. पद्मावत और मसनवी शैली: ‘पद्मावत’ एक मसनवी शैली में लिखा गया काव्य है। मसनवी शैली सूफी काव्य की एक प्रमुख शैली है, जिसमें कथात्मक रूप से प्रेम और ईश्वर के साथ आत्मा के मिलन की कथा को व्यक्त किया जाता है। जायसी की काव्यशैली में प्रेम, भक्ति और सूफी दर्शन के गहरे विचार समाहित हैं।

निष्कर्ष:

जायसी ने अपनी काव्य रचनाओं में सूफी विचारधारा और प्रेम के आध्यात्मिक स्वरूप को प्रकट किया। उनकी ‘पद्मावत’ में प्रेम को केवल शारीरिक आकर्षण से अलग, एक आत्मिक और दिव्य अनुभव के रूप में चित्रित किया गया है। उनकी कविताएँ न केवल प्रेम के शारीरिक रूप को, बल्कि प्रेम को आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में प्रस्तुत करती हैं। उनके विचार और काव्य शिल्प हिंदी साहित्य में सूफी दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण परंपरा के रूप में देखे जाते हैं।4o mini

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

संत कबीर: जीवन और विचार


जीवन परिचय
संत कबीर का जन्म संवत् 1455 (1398 ई.) में बनारस (वर्तमान वाराणसी) में हुआ था। उन्हें नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति ने पाला था, और यह बात बहुत ही अद्वितीय है क्योंकि कबीर का पालन-पोषण एक जुलाहे के परिवार में हुआ था। उनके जीवन के बारे में कई प्रकार की कथाएँ प्रचलित हैं, लेकिन उनका साक्षात जीवन और कार्य उनकी वाणी के माध्यम से ही जीवित रहता है। कबीर का कार्य जुलाहे का था, और वे विशेष रूप से ज्ञानमार्गी कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

कबीर की शिक्षा-दीक्षा सामान्यत: नहीं हुई थी। वे स्वयं स्वीकार करते थे, "मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ", अर्थात उन्होंने कभी पुस्तक, कलम या कागज का प्रयोग नहीं किया। बावजूद इसके, उनकी कविताएँ, जो आज भी प्रचलित हैं, साहित्य, दर्शन और भक्ति की एक अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।

कबीर की वाणी और रचनाएँ
संत कबीर की वाणी का संकलन 'बीजक' में किया गया है। इस संकलन के तीन प्रमुख खंड हैं:

  1. साखी - इसमें कबीर के अद्वितीय विचार और अनुभव होते हैं, जिन्हें बहुत ही सरल और सीधी भाषा में व्यक्त किया गया है।
  2. सबद - यह खंड कबीर के भक्ति संगीत और कविताओं का संग्रह है।
  3. रमैनी - इसमें कबीर की कुछ विशिष्ट रचनाएँ और उनके विचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

कबीर के प्रमुख विचार
कबीर की कविताएँ और विचार बहुत गहरे और समय से परे हैं। उनके विचार निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित थे:

  1. कविता के बारे में – कबीर ने कविता को केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि ब्रह्म ज्ञान के रूप में माना था। उनका कहना था, "तुम जिन जानो गीत है वह निज ब्रह्म विचार," अर्थात, कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि ब्रह्म की समझ और सत्य का साक्षात्कार है।

  2. निर्गुण ब्रह्म के बारे में – कबीर ने निर्गुण ब्रह्म (जिसका कोई रूप या आकार नहीं होता) की महत्वपूर्ण अवधारणा को प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि ब्रह्म न तो किसी का रूप है और न ही किसी का आकार। वे कहते थे:
    "जाके मुख माथा नहीं नाहीं रूप कुरूप,
    पुहुप बास तैं पातरा ऐसो तत्त अनूप।"
    अर्थात, ब्रह्म न तो किसी का रूप है, न आकार, और वह सबका आधार है।

  3. प्रेम को महत्व – कबीर के लिए प्रेम सर्वोपरि था। उन्होंने प्रेम को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना और इसे आत्मा के ब्रह्म से जुड़ने का मार्ग समझा। उनका कहना था, "कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नहिं," यानी प्रेम वह घर है जहां ईश्वर निवास करते हैं।

  4. मूर्ति-पूजा का विरोध – कबीर ने मूर्ति पूजा का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा, "पाहन पूजे हरि मिलें तौ मैं पूजूँ पहार," अर्थात अगर पत्थर पूजा से भगवान मिल सकते हैं तो वे पहाड़ की पूजा करेंगे। इस कथन से कबीर का उद्देश्य यह था कि भगवान की पहचान रूप और आकार से नहीं, बल्कि आत्मा और सच्चाई से होती है।

  5. हिंदू-मुस्लिम एकता – कबीर ने हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों को एकता की भावना में बांधने का प्रयास किया। उनका प्रसिद्ध वाक्य है:
    "हिंदू मुए राम कहि, मुसलमान खुदाई,"
    जिसका अर्थ है कि हिंदू राम के नाम से मरे हैं और मुसलमान खुदा के नाम से। कबीर ने यह दिखाया कि सभी धर्मों का मूल एक है और हमें धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठना चाहिए।

  6. गुरु का महत्व – कबीर ने गुरु की महिमा का बखान किया और उन्हें मार्गदर्शन देने वाला बताया। उनका प्रसिद्ध उद्धरण है:
    "गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय,"
    अर्थात, जब गुरु और भगवान दोनों सामने खड़े हों तो मैं सबसे पहले गुरु के चरणों में प्रणाम करूंगा, क्योंकि गुरु के बिना भगवान का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है।

निष्कर्ष
संत कबीर का जीवन और उनका दर्शन हमें यह सिखाता है कि धार्मिकता और भक्ति किसी एक धर्म या परंपरा में बंधी नहीं होती, बल्कि यह सार्वभौमिक है। उनके निर्गुण ब्रह्म, प्रेम और धार्मिक एकता के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर का संदेश था कि ईश्वर एक है, और उसकी प्राप्ति का कोई निश्चित मार्ग नहीं है—वह किसी रूप, आकार या धर्म से परे है। उनकी कविताएँ न केवल भक्ति मार्ग को स्पष्ट करती हैं, बल्कि हमारे भीतर के सत्य को पहचानने की प्रेरणा भी देती हैं।

शनिवार, 5 सितंबर 2020

हिंदी साहित्य में निर्गुण भक्ति

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ और शाखाएँ

निर्गुण भक्ति एक प्रमुख भक्ति आंदोलन था जो मुख्य रूप से भारतीय संत कवियों के द्वारा प्रचारित किया गया। इस भक्ति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है, अर्थात् भगवान को निराकार, निरूपक और अव्यक्त रूप में पूजा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के भीतर स्थित ईश्वर के अनुभव की प्राप्ति था, न कि बाहरी मूर्तियों या प्रतीकों की पूजा।

निर्गुण भक्ति की विशेषताएँ:

  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना: निर्गुण भक्ति के कवियों ने ब्रह्म या ईश्वर को निराकार और निर्गुण रूप में पूजा। वे मानते थे कि भगवान का कोई रूप नहीं होता और न ही वह किसी विशेष प्रतीक या मूर्ति के रूप में अस्तित्व रखते हैं।

  2. अवतारवाद का अस्वीकार: निर्गुण कवियों ने अवतारवाद को अस्वीकार किया। वे यह मानते थे कि भगवान केवल अवतारों के रूप में नहीं आते, बल्कि वह सब में समाहित होते हैं।

  3. मूर्ति-पूजा का विरोध: निर्गुण भक्ति में मूर्ति पूजा का विरोध किया गया। ये कवि मानते थे कि भगवान का कोई रूप नहीं है, इसलिए मूर्ति पूजा निरर्थक है।

  4. ईश्वर को मानव के भीतर देखना: निर्गुण भक्ति के कवियों के अनुसार, भगवान हर व्यक्ति के भीतर मौजूद होते हैं। वे मानते थे कि व्यक्ति को अपने भीतर ही ईश्वर की अनुभूति होनी चाहिए।

  5. ज्ञान और प्रेम का महत्त्व: ईश्वर तक पहुँचने के लिए ज्ञान और प्रेम को माध्यम माना गया। ज्ञान का मतलब सत्य की तलाश और आत्मज्ञान था, जबकि प्रेम ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति का रूप था।

  6. गुरु का महत्त्व: निर्गुण कवियों ने गुरु को अत्यंत महत्त्व दिया। उनका मानना था कि गुरु की कृपा से ही व्यक्ति भगवान के साक्षात्कार तक पहुँच सकता है।

  7. समानता का आदर्श: निर्गुण भक्ति ने जातिवाद और ऊँच-नीच के भेद को नकारा। सभी मनुष्यों को समान समझने का आग्रह किया गया, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग से हों।

निर्गुण भक्ति की दो प्रमुख शाखाएँ:

क. ज्ञानाश्रयी/ज्ञानमार्गी:

  1. संतकाव्य: ज्ञानाश्रयी भक्ति काव्य को संतकाव्य कहा जाता है। इसमें विशेष रूप से ज्ञान, साधना और योग के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति पर जोर दिया गया।

  2. ज्ञान और योग: इसमें ब्रह्म की उपासना के लिए ज्ञान और योग को मार्ग माना गया। यह शाखा विशेष रूप से शंकराचार्य के अद्वैतवाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद से प्रभावित थी।

  3. मूर्ति पूजा और बाहरी आचार का विरोध: इस शाखा के कवियों ने मूर्ति पूजा, नाम जप, तीर्थाटन आदि जैसे बाहरी आचारों का विरोध किया। उन्होंने आंतरिक साधना और आत्मा के अनुभव को प्राथमिकता दी।

  4. जातिवाद का विरोध: इस शाखा के कवियों ने जातिवाद और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने समानता का प्रचार किया और समाज में समरसता की ओर प्रेरित किया।

  5. प्रमुख कवि: इस शाखा के प्रमुख कवियों में कबीर, नानक, दादू, और रैदास शामिल हैं। इन कवियों ने अपने काव्य में इन विचारों को प्रसारित किया।

ख. प्रेमाश्रयी/प्रेममार्गी:

  1. सूफी कविता: प्रेमाश्रयी भक्ति को सूफी कविता भी कहा जाता है। इस शाखा में कवि ईरानी सूफी दर्शन से प्रभावित थे।

  2. प्रेम को मार्ग मानना: प्रेमाश्रयी भक्ति में प्रेम को ही ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता माना गया। इन कवियों के अनुसार, व्यक्ति को प्रेम के द्वारा भगवान से मिलन प्राप्त हो सकता है।

  3. प्रेयसी और प्रेमी का रूप: सूफी कविता में ईश्वर को प्रेयसी और जीव को प्रेमी के रूप में चित्रित किया गया। इसके अनुसार, पूरी दुनिया उसी प्रेयसी के रूप का प्रतिविंब है।

  4. लोककथाओं का आधार: प्रेमाश्रयी कवियों ने भारतीय लोककथाओं और प्रेमकाव्य को आधार बनाकर प्रबंध काव्य की रचना की। इन कवियों का उद्देश्य प्रेम और भक्ति के माध्यम से भगवान के पास पहुँचना था।

  5. प्रमुख कवि: इस शाखा के प्रमुख कवियों में जायसी, कुतुबन, मंझन, और उस्मान शामिल हैं। इन कवियों ने सूफी दर्शन के अनुसार ईश्वर के प्रेम को केंद्रित किया।

निष्कर्ष:

निर्गुण भक्ति का उद्देश्य न केवल बाहरी आचार और धर्म के प्रति श्रद्धा को नकारना था, बल्कि इसने एक आंतरिक यात्रा की ओर इंगीत किया, जिसमें व्यक्ति को अपने भीतर स्थित ईश्वर से मिलन की प्राप्ति करनी थी। इस भक्ति मार्ग में ज्ञान, प्रेम और साधना को मुख्य महत्व दिया गया।