विद्यपति परिचय :
- जन्म : 1352 ई.
- मृत्यु :1448 ई.
- आश्रय दता राजा: कीर्ति सिंह और शिव सिंह (तिरहुत के राजा थे)
- रचनाएं :
- विद्यापति पदावली ( मैथिली )
- कीर्ति लता कीर्ति पताका (अपभ्रंश)
- पुरुष परीक्षा (संस्कृत)
- उपनाम: मैथिल कोकिल अभिनव जयदेव
- भाषा : मैथिली
पद-2
सखि हे कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।
विद्यापति कह प्रान जुड़इते लाखे न मीलल एक।।
शब्दार्थ:
पूछेसि: पूछती होमोर : मेरासेह: वहपिरिति : प्रीत/प्रेमअनुराग: स्नेहबखानिय: वर्णन करनातिल तिल: पल पलनूतन: नयाअबधि: काल या समयनिहारल: निहारना/ देखनाभेल: हुआसेहो : वहीस्रवनहि : कानों सेसूनल: सुनास्रुति: श्रुति/ कानपरस : स्पर्शगेल: गयाजुग: युगहिय: हृदयराखल: रखा थातइओ: फिर भीजरनि: जलनअनुमोदय: अनुमोदन करना/प्रतिपादित करनापेखल : प्रेक्षण करना / देखना जुड़इते: ठंडकमीलल: मिलनालाखे : लाखों मे
संदर्भ:
प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 के विद्यापति शीर्षक पाठ से और विद्यापति पदावली में संकलित हैl इसके रचयिता भक्ति और श्रृंगार के अपूर्ण मध्यकालीन कवि अभिनव जयदेव और मैथिल कोकिल विद्यापति हैं l
प्रसंग:
व्याख्येय पंक्तियों में कवि ने राधा के माध्यम सच्चेे प्रेम के वास्तविक रूप का चित्रण किया है l
व्याख्या:
अलंकार :
विशेष/साम्य :
- इन पंक्तियों में विद्यापति ने प्रेम की अनिर्वचनीयता का वर्णन किया है l
- भक्त कवि सूरदास ने भक्ति के अनुभव को इसी तरह से अनिर्वचनीय कहा है ' अवगति-गति कछु कहत न आवै।ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै।’
- तुलसी दास ने भी राम के प्रति कौशल्या के प्रेम के संबंध में विद्वानों द्वारा वर्णित प्रेम को सीखा हुआ कहा है: कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी। तुलसिदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥
- विद्यापति ने जिस तरह नित नूतन प्रेम की बात की है वैसे संस्कृत साहित्य म भोज ने ‘सौंदर्य संबंध में लिखा है ‘क्षणे क्षणे यन्नवतमूपैति तदैव रूपम् रमनीयतायां’|’