गुरुवार, 28 नवंबर 2024

हिंदी साहित्य का मध्यकाल (सन् 1318 ई. से 1643 ई.) और भक्ति काव्य

 मध्यकाल (सन् 1318 ई. से 1643 ई.) और भक्ति काल

मध्यकाल का परिचय:

मध्यकाल, आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का कालखंड है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है:

  1. पूर्वमध्यकाल (जिसे भक्ति काल भी कहा जाता है)
  2. उत्तरमध्यकाल

भक्ति काल, विशेष रूप से भारतीय साहित्य और संस्कृति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण समय था, जिसमें भक्ति-भावना को प्रमुख रूप से प्रसारित किया गया। यह काल विशेष रूप से ईश्वर के प्रति प्रेम, समर्पण और भक्ति की भावना से ओत-प्रोत था।

भक्ति की शुरुआत और उसका फैलाव:

भक्ति की शुरुआत दक्षिण भारत से हुई थी, जहाँ तमिल आलवार संतों ने भगवान विष्णु के प्रति भक्ति को प्रमुखता दी। इन संतों की भक्ति का प्रभाव उत्तर भारत में रामानंद के माध्यम से पड़ा, जिन्होंने इस भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में फैलाया। रामानंद का संबंध आलवार संतों से था, और उनका कार्य भारतीय उपमहाद्वीप में भक्ति के प्रसार के रूप में मील का पत्थर साबित हुआ।

भक्ति काव्य की विशेषताएँ:

भक्ति काव्य का मुख्य उद्देश्य ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति को व्यक्त करना था। इस काल में कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से भक्ति और धार्मिकता को अपने समय की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से जोड़ा। भक्ति काव्य में देशी भाषाओं की महत्ता बढ़ी, और हिंदी के विभिन्न रूपों में कविता लिखी गई।

  1. भक्ति के प्रकार:

    • सगुण भक्ति: इसमें ईश्वर को साकार रूप में पूजा जाता है। इस भक्ति में ईश्वर के रूप और गुणों का वर्णन किया जाता है।
    • निर्गुण भक्ति: इसमें ईश्वर को निराकार रूप में पूजा जाता है, जो किसी रूप और आकार से परे होते हैं।
  2. भक्ति के प्रकार और उनके क्षेत्र:

    • कृष्ण भक्ति: कृष्ण भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति पर आधारित काव्य रचनाएँ।
    • राम भक्ति: राम के प्रति प्रेम और भक्ति का प्रतिविम्ब।
    • ज्ञानाश्रयी भक्ति: यह भक्ति संत कवियों द्वारा व्यक्त की गई, जिसमें ज्ञान की प्राप्ति और आत्म-बोध पर जोर दिया गया।
    • प्रेमाश्रयी भक्ति: इसमें प्रेम की भावना को परमेश्वर से जोड़ा गया, जैसे सूफी कवियों द्वारा।

भक्ति काल का सामाजिक प्रभाव:

भक्ति काल के काव्य में भक्ति के साथ-साथ सामाजिक समानता और एकता पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। विशेष रूप से, समाज के विभिन्न वर्गों, जातियों और धर्मों के बीच समानता और भाईचारे का संदेश दिया गया। इस समय में कविता, भक्ति और संगीत का मिलाजुला रूप सामाजिक जागरूकता और सांस्कृतिक विकास में सहायक साबित हुआ।

भक्ति काल को हिंदी कविता का स्वर्ण युग कहा जाता है क्योंकि इस दौरान हिंदी साहित्य में एक नया आयाम और उत्थान हुआ। संत कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल भक्ति की अपार शक्ति को प्रदर्शित किया, बल्कि समाज में व्याप्त भेदभाव और ऊँच-नीच के भेद को भी चुनौती दी।

निष्कर्ष:

भक्ति काल ने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी। इस काल में कवियों ने न केवल ईश्वर के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को व्यक्त किया, बल्कि समाज की वास्तविक समस्याओं, भेदभाव और असमानताओं के खिलाफ भी आवाज़ उठाई। भक्ति काव्य ने धार्मिक और सांस्कृतिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग के रूप में याद किया जाता है।

भाषा का विकास और भारतीय भाषाओं का इतिहास

 भाषा का विकास और भारतीय भाषाओं का इतिहास

भाषा, मनुष्य के विचारों, भावनाओं और इच्छाओं को व्यक्त करने का एक प्रमुख साधन है। यह समय के साथ विकसित और परिवर्तित होती रही है, जो मनुष्य की आवश्यकताओं और सामाजिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ी रही है।

भारत में भाषा का इतिहास

भारत में भाषा का इतिहास अत्यंत प्राचीन है, और यहाँ की सबसे पुरानी लिखित भाषा का प्रमाण सिंधुघाटी सभ्यता से मिलता है। हालांकि, इसे अभी तक पूरी तरह से पढ़ा नहीं जा सका है। संस्कृत को भारत की सबसे पुरानी भाषा माना जाता है, जो भारोपीय (Indo-European) भाषा परिवार से संबंधित है। इस परिवार को आर्य भाषा परिवार भी कहा जाता है। यह परिवार विश्व का सबसे बड़ा भाषा परिवार है, और इसमें संस्कृत, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक, लैटिन, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, ईरानी जैसी अनेक प्रमुख भाषाएँ शामिल हैं। संस्कृत और ऑवेस्ता (ईरानी) इस परिवार की मुख्य भाषाएँ हैं।

भारोपीय भाषा परिवार (आर्य भाषा परिवार)

भारोपीय भाषा परिवार का विभाजन इस प्रकार है:

  1. योरोपीय भाषाएँ - जर्मन, लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि।
  2. भारत-ईरानी भाषा परिवार
    • भारतीय आर्य भाषाएँ - संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाएँ।
    • ईरानी आर्य भाषाएँ - जैसे ऑवेस्ता की भाषा और मिडी।

भारतीय आर्य भाषाएँ

भारतीय आर्य भाषाओं का विकास तीन मुख्य चरणों में हुआ:

  1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ (1500 ई.पू. से 500 ई.पू.):

    • संस्कृत को विश्व की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक माना जाता है। इसके दो प्रमुख रूप हैं:
      • वैदिक संस्कृत (1500 ई.पू. से 800 ई.पू.) - वेदों की भाषा।
      • लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू.) - संस्कृत साहित्य की भाषा।
  2. मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ (500 ई.पू. से 1000 ई.):

    • इस काल में कई महत्वपूर्ण भाषाएँ विकसित हुईं, जिनमें प्रमुख हैं:
      • पालि (ईसा पूर्व 5वीं शताबदी से 1वीं शताबदी तक) - बौद्ध साहित्य।
      • प्राकृत (1वीं से 6वीं शताबदी ईस्वी तक) - जैन साहित्य।
      • अपभ्रंश (6वीं से 11वीं शताबदी तक) - यह पूरे उत्तर और मध्य भारत में बोली जाती थी, और इसमें जैन धर्म और व्याकरण के ग्रंथ मिले हैं।
  3. आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ (1000 ई. के बाद):

    • इस काल में भारतीय भाषाओं का विकास हुआ और विविध रूप में फैलने लगीं। प्रमुख भारतीय भाषाएँ निम्नलिखित हैं:
      1. कश्मीरी
      2. हिंदी
      3. मराठी
      4. गुजराती
      5. बंगला
      6. उड़िया
      7. असमिया
      8. पंजाबी
      9. सिंधी

अपभ्रंश और इसकी शाखाएँ

अपभ्रंश की कई शाखाएँ थीं, जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाएँ विकसित हुईं:

  1. शौरसेनी - पश्चिमी हिंदी, पहाड़ी हिंदी (कुमाऊंनी, गढ़वाली), राजस्थानी, गुजराती।
  2. अर्द्ध मागधी - पूर्वी हिंदी।
  3. मागधी - बंगला, उड़िया, असमिया, बिहारी हिंदी।
  4. महाराष्ट्री - मराठी।
  5. ब्राचड़ - सिंधी।
  6. पैशाची - पंजाबी।

निष्कर्ष

भारत में भाषा का इतिहास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। संस्कृत से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं तक, प्रत्येक चरण में भाषा ने समाज और संस्कृति के विकास को दर्शाया है। भारतीय आर्य भाषाएँ विश्व की अन्य भाषाओं से निकट संबंध रखती हैं, और इनकी विविधता आज भी भारतीय समाज की विशेष पहचान बनाती है।

हिंदी भाषा और उसकी उपभाषाएँ

 हिंदी भाषा और उसकी उपभाषाएँ

परिचय: हिंदी मध्य भारत की सामान्य बातचीत की भाषा है, जिसका विकास मध्यकालीन आर्य-भाषा अपभ्रंश से हुआ है। हिंदी के बोली क्षेत्र को "हिंदी प्रदेश" कहा जाता है, और इस प्रदेश में कई स्थानीय बोलियाँ बोली जाती हैं। इन बोलियों का सामूहिक नाम हिंदी है। हिंदी के क्षेत्रीय विभाजन को उसकी उपभाषाओं द्वारा दर्शाया जाता है, और ये उपभाषाएँ क्षेत्रीय आधार पर विभाजित होती हैं।

हिंदी की उपभाषाएँ: हिंदी की कुल पाँच प्रमुख उपभाषाएँ हैं, जो निम्नलिखित हैं:

  1. राजस्थानी हिंदी
  2. पश्चिमी हिंदी
  3. पूर्वी हिंदी
  4. बिहारी हिंदी
  5. पहाड़ी हिंदी

1. राजस्थानी हिंदी

राजस्थानी हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ था। यह हिंदी की एक प्रमुख उपभाषा है, और इसकी चार बोलियाँ हैं:

  • मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी): यह बोलियों का समूह राजस्थान के पश्चिमी भाग में बोला जाता है।
  • जयपुरी (पूर्वी राजस्थानी): जयपुर और आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है।
  • मेवाती (उत्तरी राजस्थानी): यह मुख्य रूप से मेवात क्षेत्र में बोली जाती है, जो हरियाणा और राजस्थान का एक हिस्सा है।
  • मालवी (दक्षिणी राजस्थानी): यह मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में बोली जाती है।

राजस्थानी हिंदी में अपभ्रंश काल के कई प्राचीन तत्व पाए जाते हैं, और यह एक अत्यंत समृद्ध साहित्यिक धारा से जुड़ी हुई है।

2. पश्चिमी हिंदी

पश्चिमी हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ और यह हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में बोली जाती है। इसकी प्रमुख बोलियाँ निम्नलिखित हैं:

  • हरियाणवी या बाँगरू (हरियाणा राज्य में): हरियाणा में मुख्य रूप से बोली जाने वाली यह बोली विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है।
  • कौरवी या खड़ी बोली (दिल्ली-मेरठ के आसपास): दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली खड़ी बोली, जो आधुनिक हिंदी का आधार बनी।
  • बुंदेली (बुंदेलखंड : झाँसी के आसपास): बुंदेलखंड क्षेत्र, जो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में आता है, वहाँ यह बोली जाती है।
  • ब्रजभाषा (मथुरा-आगरा के आसपास): मथुरा और आगरा के आस-पास बोली जाती है और यह कृष्णभक्ति साहित्य से जुड़ी हुई है।
  • कन्नौजी (कन्नौज-फर्रूखाबाद के आसपास): यह बोली कन्नौज और आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है, जिसमें कन्नौजी बोली के कई शुद्ध रूप पाए जाते हैं।

3. पूर्वी हिंदी

पूर्वी हिंदी का विकास अर्द्ध-मागधी अपभ्रंश से हुआ और यह मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में बोली जाती है। इसकी प्रमुख बोलियाँ निम्नलिखित हैं:

  • अवधी (लखनऊ-फैजाबाद के आस-पास): लखनऊ और फैजाबाद के क्षेत्रों में बोली जाने वाली यह बोली विशेष रूप से संस्कृतनिष्ठ साहित्य के लिए प्रसिद्ध है।
  • बघेली (बघेलखंड): यह बोली बघेलखंड, जो मध्य प्रदेश के मध्य और पूर्वी हिस्से में स्थित है, में बोली जाती है।
  • छत्तीसगढ़ी (छत्तीसगढ़): छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बोली जाने वाली यह बोली छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है।

4. बिहारी हिंदी

बिहारी हिंदी मुख्य रूप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में बोली जाती है। बिहारी हिंदी की मुख्य तीन बोलियाँ हैं:

  • भोजपुरी: यह सबसे प्रमुख और व्यापक रूप से बोली जाने वाली बिहारी हिंदी बोली है, जो बिहार, उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में प्रचलित है।
  • मगही: मगध क्षेत्र की यह बोली बिहार के मगध इलाके में प्रमुख रूप से बोली जाती है।
  • मैथिली: मैथिली मुख्य रूप से बिहार के मिथिला क्षेत्र और नेपाल के तराई क्षेत्र में बोली जाती है। यह एक प्रमुख साहित्यिक बोली के रूप में प्रसिद्ध है।

5. पहाड़ी हिंदी

पहाड़ी हिंदी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती है, और यह विशेष रूप से उत्तराखंड राज्य में प्रचलित है। पहाड़ी हिंदी की दो प्रमुख बोलियाँ हैं:

  • कुमायूँनी: यह उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र की प्रमुख बोली है, जो कुमाऊंनी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा है।
  • गढ़वाली: यह उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की प्रमुख बोली है और यहाँ की सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है।

निष्कर्ष: हिंदी भाषा की उपभाषाएँ भारतीय समाज की सांस्कृतिक विविधता का अद्भुत उदाहरण हैं। इन उपभाषाओं का अस्तित्व न केवल हिंदी भाषा की समृद्धि को दर्शाता है, बल्कि यह भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं के बीच संवाद की कड़ी भी बनता है। हिंदी की उपभाषाएँ अपनी-अपनी भाषाई और सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ समृद्ध साहित्यिक धारा से जुड़ी हुई हैं, और इन्हें समझने से हिंदी के विविध रूपों का गहन ज्ञान प्राप्त होता है।